
आ मन में सपना के ककरी फुलाये-लतराए लागे ला, बड़-बड़ विद्वान मुल्ला, पंडित के सूर, चाप, तप भंग होखे लागे ला. आ कांच कुंवार, बे बिआहल जवान लोग त खखुआईल बानर नियर बिआह के नाम सुनते खानी-बिखानी के मुंह आ आव-भाव बनावल शुरू क देला. ऊपर से देखीं त बुझा ला जे बिआह के नाम सुनते लईका के मधुमाछी कटले बिया. बबुआ भीतरे ओकरा मन में हरिहरी छिंटाए लागे ला. ठीके कहल बा जब बूढ़-बूढ़ लोग बिआह के नाम सुनते कचनार हो जाला, त जवानन के के कहो? बूढ़-बूढ़ लोग अपना जिनगी के हिया क हुलास पर छितराईल सुगंध के सहोरत, सहेजत, बान्हत, बटोरत यादन के बरियात में तितली खानी उड़ान, कुलांच मारे लागे ला. ओहू लोग के मन में बिआह के तीत-मीठ, नरम-गरम, चोट-घाव, कसक-टीस आ का का अइसन जाति-प्रजाति के जीव-जन्तु कुलबुलाए, सुगबुगाए लागेलन स-
‘सुगबुगी हुजूर बाटे.
बात कुछ जरूर बाटे.’ (धरोहर से)
ईहो ठीके बात बा कि बिआहे जिनगी ह. आ बिआह शादी ऋषि-मुनि, पीर-पैगम्बर सभे कइले बा बाकि समय पर, असमय आ कु समय ना. बाबू आ भइया के कमाई पर सगाई के दशा का होई?
बिआह भइला के बादे आपन-बेगाना, गर-गारजियन सबके मान, मोह-माया, हांक-दाब उठे आ डर-भय भागे ला. ‘भइल बिआह मोर करब का’?
बिआह के बहुत महातम बा. एह संसार में हमरा जानते बिआह से लमहर, दमगर, पोढग़र, सोगहग, पवित्र, पाक, सुभ, मोबारक, जग परोजन, असन-जसन, बा धरम करम नाहींये बा. तबे नू? संसार में जतना सुभ बा, ऊ सब बिआहे में खरच हो गइल बा. सुभ अगुआ, सुभ टीपन, सुभ छेंका, सुभ मंगनी, सुभ रासी, सुभ जोरी, सुभ तिलक, सुभ फलदान, सुभ साल, सुभ महीना, सुभ दिन, सुभ तिथि, सुभ निछत्तर, सुभ मंडप, सुभ काम, सुभ कर्म, सुभ कांड, तब रउवे बताई? अब का बांचल बा कि कवनो दोसर सुभ मोबारक काम-करम होई. दरजन भर सुभ बेचारा खरच होलन सन तब जाके ‘चट मंगनी पट बिआह’! अब ई बात अलुई के मेढ़ जइसन साफ हो गइल कि बिआह सादी से लमहर कवनो पाक पवित्र काम संसार में नइखे. बिआह करे वाला विद्वान लोग के सादी ईलाइन लागे ला. आ सादी करे वाला लोग के बिआह खट्टा. बाकी सब काम दूनो विद्वान लोग एके खानी करेला. आदमीये के लइका दूनो ओर बिआह सादी का बाद होला? का जाने एमे कवन-कवन सुभ बा? जाए दीं.
छोड़ीं बिआह, एह बोकाई के बात में का बा? बिआह के सुभ काम-कामना के लोहा त सभे मनबे करेला. बाकिर तबो केहू-केहू बिआह के नाम सुनते जर-मर जाला, बुझाला जईसे ओकरा छीलाईल चाम पर नून दरा गइल. बिखी थर-थर कांपे लागे ला. आ मछीआईल डांर पर हाथ धरत, कपार ठोकत अपना बरबादी के पचरा पसार देला.
झूरी काका अइसने देवास के हमरा गांव के एगो शुद्ध पत्नी भक्त महापुरुस बाडऩ जे गांव के सब लइका, सेआन, बूढ़, जवान के आपन दुखरा सुनावत एह महान कारज बिआह से रोकत कहत रहेलन बबुआ! बिआह के जल्दी नाम जन लिह स. ई बहुत गजबज, घुरचीआह, धोखाह, बाउर काम ह. बिआह मोतीचूर के लड्डू ह, जे खाइल उहो पछतइल, जे ना खाइल उहो पछतइल. बाकिर बबुआ! ‘होत बिआह बिपत के नेवता’. पुरनीया लोग कवनो बुरबक रहलन जे ई कहलन कि के नइखे जानत कि होत बिआह नून, तेल, हरदी के भाव मालूम होखे लागेला? तेल-तासन, खरचा-खरची, कर-कलेवा, चूड़ी-लहठी. लहंगा-साड़ी, दवा-दारू, बर-बेमारी, हित-कुटूंम, आफत-कुफुत, रूसा-फुली, फरका-फरकी एके संघे सब मउर के लाथे भउर कपारे चढ़ जाला. आ बबुआ! मलकीनिया मूहंजोर, घोडऩार मिल गइल तब आउर बिध बनी. बस सात पुहुत, सात पुस पुरखा, पुरनिया के नाम ध-ध के सझींया, बिहनिया गिनल-गिनल, काटल-काटल, सड़ल-सड़ल, धराऊ से धराऊ राग बैताली में संझा पराती होखे लागी. जवना के सुन-सुन के तोहरे ना पुरुखो पुरनियां लोग के नानी याद आ जाई. आ कूल परिवार सब तर जाई.
नसकट खटिया धुलकत घोड़.
कलही नार बिपत के ओर.
‘अब पछता के होई का जब चिरई चूग गइल खेत’ वाली बात होले. बबुआ! देख जे तरे मिठा के मार बोरे बुझे ला. बस बूझ ल बिआह के बाद सब के उहे दसा होला. बबुआ! बाकि र अगुअन के बात-बतकही आव-भाव बात बनउवल सुने जुकुर होला. ओकनी के बात फूलझरी लेखा झर-झर फूल झरावे लागे ला. जवन सुनते मन चप-चपा जाला. अल्ला हो ईश्वर पापी से पापी के माफी दे दिह, बाकी भतखउका, लबार अगुअन के उनको ईहां कवनो उपाय गुंजाईस, गुजारा ना मिली. कतना जवानन के चढ़ा-बढ़ा के बिआह का सूली पर लटका देलन सन. ठीके कहल बा जेकरा से तोहरा पुरान दुस्मनी, बैर भाव चाहे मुदईपन होखे त बस ओकर बिआह करा द. बस दोसर कुछुओ कइला के जरूरत नइखे. प्रेमे से तहार उनका से सात पुस के खीस सध जाई. आ उनका इ बात कहियो ना बुझाई, प्रेम से चिरकुट बन जइहन.
हमरा गांव भर के दुलरूआ मुंह लगुआ काका बाबू राज नारायण सिंह शफियाबादी. जब ना तब हमनी के एगो बिआह के सूत्र बतावस, समुझावत कहस. ‘रे तोहनी का बिआह-बिआह रटे ल स- एकर कवनो माने आ अरथ जाने ल स कि सुखले खाली बतकहीये करे ल स’. देख स बिआह में – ‘तीन टिकट महा विकट’ अछर बा. बि+आ+ह = बिआह. भइल बिआह. एकर मतलब, अरथ भइल. ‘बि’ से बिपत, ‘आ’ से आफत, ‘ह’ से हूरकुचन. अब बिआह के मतलब, अरथ भइल, बिपत + आफत + हूरकुचन माने जवन आफत, बिपत, हूरकुचन हंसते-हंसते मुड़ी पर चढ़ा देव उहे बिआह ह. देख सन पुरूखो पुरनिया लोग बहुत सोच, विचार के नू कहले, बतवले बा. कुछ जनबो कर स, खाली भूसा कुटला से खीर ना भेंटाई. कबीरो बाबा जइसन संत महात्मा कहले बाडऩ जे…. ‘साहेब का घर दूर है’
झूरी काका के भासन-भुसन, तोख-परतोख, सनुत-सुनत हमनी लइका से सेआन हो गइनी, बाकी का मजाल जे हमनी का उन का फेर में पड़ी सन. ‘राम केकरा ना भावस’ दु चार लाख रुपिया, पइसा, धन समान, तिलक, दहेज तब नू बिआह.
‘आम के आम. गुठली के दाम.’
तबे नू तुलसी बाबा लिखले बाडऩ? आ हमनी का अतना नादान नइखीं सन कि झूरी काका के बात में पर के तिलक, दहेज, धन, दउलत, मान-सम्मान आ सोना के अंडा देबे वाली मूर्गी बिआह के छोर दीं सन आ ब्रह्मचर्य के पालन करींसन.
ब्रह्मचर्य त पुरुषार्थ के धनी, महान, वीरपुरुष, प्रतापी युवा लोग के पालन करें के चीज ह. हमनी काहे झंझट में पड़ी सन? ‘पेड़ के पार के, जड़ से उखार के. उपर-उपर झार के, आम नियर गार के .’ बेटी वाला के चूस-चास के ठीक कइला का बादे बिआह करी लेसन. करब सन. जब हमनी के ईमान-धरम, लोक-लाज, आचार-विचार, हित-परित, आपन-बेगाना सब के पईसा, धन दउलत खातिर तिलांजलि देबे में,
आ मजहब धरम के कानून नियम, वसूल के कोसी भरे, आ गोधन कूटे में देर ना लागे त झूरी काका के बात के का मोल?
‘जात धरम के मारी लात. पेट भरे से करीं बात.’
–जौहर शफियाबादी