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आकृति विज्ञा ‘अर्पण’ जी लिखल कुछ भोजपुरी रचना

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आकृति विज्ञा ‘अर्पण’ जी
आकृति विज्ञा ‘अर्पण’ जी

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अस मन जनलीं
कि भोले बानी भीतरां

बनाई लिहलीं
अपने मन के मंदिरवा बनाई लिहलीं।

पियलें गरल भोले
होइके सरल

जताई लेहलीं
अपने भोले जी से नेहिया जताई लिहलीं।

मन रहिहें जो कांच
एहवां टिकिहें न सांच

तपाई लेहलीं
अपने भोले जी के जोग में तपाई लिहलीं।

नाहीं हे अभाव में
नाहीं हे प्रभाव में

उतारि लेहलीं
अपना भोले के स्वभाव में उतारि लेहलीं।

करम क वेग से
धरम क डेग से

पुकारि लेहलीं
अपना भोले जी के मन से पुकारि लेहलीं।

कजरी में मल्हार जब चरम पर होता है तो समष्टि से व्यष्टि ,सगुण से निर्गुण ,मिलन से वियोग और प्रेम से ज्ञान की तरफ भावनायें बहने को आतुर हो जाती हैं उसी समय सहेलियों अपने रहस्य को गीतों का लोर देकर उद्घाटित करती हैं ।

यही ऐसी अवस्था है जहाँ प्रेम और ज्ञान का गूढ़ बुनाव समझने में मज़ा आता है। आज मैने इसी तरह का मल्हार कल्पित कर एक हिंदी के आस पास घूमती कजरी लिखी है।
पढ़ियेगा………..मन हो तो गुनगुनाइयेगा भी।

अरे रामा प्रेम की नहीं परिभाषा
नहीं कोई आशा री हरी
लगी अचक नेह की डोरी
बूझ सके नहीं कोई छोरी रामा
अरे रामा कौन फेक रहा पासा
नहीं कोई आशा री हरी…………

मन लगा एकाकी होने
बिन कारन हँसने रोने रामा
अरे रामा बूझूं नहीं अभिलाषा
नहीं कोई आशा री हरी………

छलिये ने छापा नयन रे
हर लिया चित्त औ’ मन रे रामा
अरे रामा तम ने लखो उजासा
नहीं कोई आशा री हरी…..

गदराईल मन
बऊराईल मन
देखीं न अक्ताईल मन
खूब चलीं अ खूबें दउड़ीं
एहि बीच अलसाईल मन
गईलीं जब सोनरा के नगरी
खूबे खूब ललचाईल मन
बात पड़ल जब मान मनौती
हरि अंगना हो आईल मन
बोझा भईलें नात बतैकी
दान पुण्य क आईल मन
महक अघाये सगरो बगिया
फिरो हमरो मुरझाईल मन
एक सपन संग एक नींद में
कहां कहां हो आईल मन

(तीन चौमासा या दो छहमासा युक्त)
उपयुक्त: हर उत्सव के नाच ,खेलौना ,फूलसेराव ,झूला,कजरी सबमें।

मन के भाषा चतुर्दिक बूझत
बूझ , सिरवा नवावे हो

देखत असाढ़ के उफनत बदरिया
ससुरू के पठवे सनेसा
भवन मन ,छप्पर छवावे हो

जस बूझत है सवनी फूहार रे
पियां संग झूलवा झूले
नयन में, सपना सजावे हो…….

बहुरा के सउसें जो भादो बदरिया
भीतरे रिझावत कृष्ण
जनम के , उत्सव मनावे हो……

कुआर के सूखत बिलाइल बदरिया
घमवा से नैना मिलाके
कहे अब ,पितरपख आवे हो……..

कातिक महीना में देवता जगावै
पावन तुलस के छइयां
मनेमन ,दीयना जरावे हो

अगहन ले आवत कांधे जड़ैया
सिहरन के सजिहें रूप
देखत अब , घमवो टेरावे हो

पूस महीना में कांपे बदनिया
कमली भीतर से झांके नयन
घाम ,नेवता पठावे हो

खिचड़ी खियावत माघ महीना
आवें बसंती बयरिया गंगा माई
तीरे ,बोलावे हो

रंग बिरंगी हो फगुनी बयरिया
तन बहुरंगी हो मन नेहपोरे
रंग ,बरसावे हो

चैता बिरह में डाहत कोयरिया
लड़ले से हारलि नौकी पतोहिया
बरत ,उठावे हो

बैशाखे लगनि बा धराइल ननद के
दुसूत्ती पे लिक्खल बा पियां मिलन
के गिलाफ ,बनावे हो

जेठ में चुए पसीना बदन से
घमवो सवति अस जरिके अघाये
मूंग ,खेत्ते छिंटावे हो

मन के भाषा चतुर्तिक बूझत
बूझ,सिरवा नवावे हो।

पूर्वांचल की कठिन कजरी रागों में एक इस राग को लेकर शायद इस सावन की यह पहली कोशिश है ,शब्दों में अवध ,बिरज होते हुये पूर्वांचल तक की थाप है महसूसियेगा।

अरे रामा उतरे असाढ़ रहनिया
सवनी भई दुलहिनिया ना
सजी दुलहिनिया , भयी रे जोगिनिया
जोगिया खातिर सजनिया ना
अरे रामा उतरे असाढ़ रहनिया
सवनी भई दुलहिनिया ना………..

कत कोई गोकुला में छाछ न जोहे
जोहे बजत ही पेजनिया ना……
अरे रामा कवन , मास ई सलोनो
बसुधा लगेली उतरल कनिया ना
अरे रामा वृंदावन की गलियां
खिलि गयीं अनगिन कलियां ना………

वन में सिया रिन्हत रही खैका
राम डोलावे चंवरिया ना….
डोलत चवर जे ,लजाय बयरिया
लखन के रूंधल बा गरवा ना
अरे रामा धन्य हो उर्मि सखा के
धनि धनि भ्रात पीरितिया ना ………..

अस मन जनलीं
कि भोले बानी भीतरां

बनाई लिहलीं
अपने मन के मंदिरवा बनाई लिहलीं।

पियलें गरल भोले
होइके सरल हो

जताई लेहलीं
अपने भोले जी से नेहिया जताई लिहलीं।

मन रहिहें जो कांच
एहवां टिकिहें न सांच

तपाई लेहलीं
अपने भोले जी के जोग में तपाई लिहलीं।

नाहीं हे अभाव में
नाहीं हे प्रभाव में

उतारि लेहलीं
अपना भोले के स्वभाव में उतारि लेहलीं।

करम क वेग से
धरम क डेग से

पुकारि लेहलीं
अपना भोले जी के मन से पुकारि लेहलीं।

झूला उतारते समय निर्गुण भाव जगता है और भादो के माधो का स्वागत भी करना है। यह भावों की जुगलबंदी कैसी होती है ,यह महसूसकर ही मन झुरझुर करके भीगता है। झूलते झूलते सवनी निर्गुण आये तो समझिये झूला उतरने को है अगली फुग्गाहट नंदलाल को झूलाकर पनगेगी।। प्रस्तुत है एक सवनी बिछोहगीत(निर्गुण)….

हम नाहीं जनलीं हिडोलवो उतरिहें हो
छूछ होईहें नीमियों के डाढ़ि ए हरी
हम नाहीं जानीं कि झिसियों पटईहें हो
सूखि जईहे भीजल बयारि ए हरि

जनती ते लेती एकरंगी चुनरिया हे
ढपती में भीतरो कपार ए हरि
अस मन उतरत मुसकाई लेत डोलिया से
अचके में अईलें कहांर ए हरि

फुनगी के चिरई के लोर टपे अँखिया से
भीजेला सखी के लीलार ए हरि
नेकुरा में नथ नभे बाली पहिरवनी हो
दोहरवतीं सोलहो सिंगार ए हरि

नन्हकी उमरिये में मेड़ुओ अघईले हो
झूरि जाली तिलरि बयारि ए हरि
पियवां ले उड़लें मोरी धनकी चुनरिया हो
हरि के बचन ही अधार ए हरि

कुआर मास विशेष(आश्विन) कवितई………..

कुआर को जीने साथ कार्तिक की तैयारी भी इस मास की ख़ास विशेषता है। पढ़ीं सभे……….

खांड़े पर के जिउतिया
ताग ना हे नेह ह
माई के आशीष हउहे
नेह क ई मेह ह

रे कुआरी ब्यार भीजस
धूप म़े तपि तपि चललि
कादो तौंकत बाटे जियरा
कादो पानी संग गललि

माटी सानत चाक चढ़वत
दिन दी दियरिया ढल रहलि
पित्तरन के नेह बा
जिनगी क पहिया चल रहलि

धान भदई थकि रहलि बा
अब ना रीती खेत में
भल अगहनी अंग सिरजति
धूप के संकेत में

कोहांर के कलशा लहकिहें
मेटिया आ बट्टा ढंग भर
ले बजववा आज हमरे
चुंदरी में रंग भर

नीमिया हिडोला डालि देबें
खोलि देइब मन के पट
हे भवानी बा अगोरा
आसनी बा एहु घट

का कपासी सूत बाती
कातिक बदे सिरजीं भला
मन में दियना पहिले बारीं
देव के फिर दीं भला

बिरह, प्रेम, बिरह………निर्गुण।
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बारह मासा के भाव बिटुरि के
बिंब रचे एक नाम लिखाल
शब्द अघइलें अघइली बरन कुल
काहें अघइली हमें न बुझाला

दीयरी बाती बिन बाती बेतेल
अइसे में दियन कहां जगमगाला
आंखि के लोर लिखीं नैन कोर कि
बिरहिन पहाड़ी के झरना झुराला

कवना भी सीजन धान कुटाई त
भूसी प भूसीय जाके गजाला
गोहूं लगन चाहे पीसीं बरमभोजे
चोकर अंगिया भीतर रहि जाला

मेटिया दो मटका चाहे कंहत्तरि
दही के साढ़ी त ऊपरे सजाला
नेहि क नाता लगल निरमोहिया रे
एक ही रंग चराचर बुझाला

एकही रंग से निकसे बहुरंग
बहुरंग जाके ओही में हेराला
बीया ही भाव दो गांठि भ ँखि क
माटीय ऊपर माटी पटाला

पगीके लगीके जागे परान
पतई क नौका झुरुट उगि जाला
सबहि साध बन्हाइल बा एक से
एक सधइला से सब सधाला

मानुज ते भल मानुज ही हवे
नैन में सुनर सपना सोहाला
सोहत रोपत निरखत ही बल
काल क चक्र चलत चलि जाला

जवना रहल कादो बीया कली फूल
आस अधारे फसल होई जाला
किंचिंत ही बड़भाग सुभाग के
आस सुबास के कलशा पुराला

बाकि निठुर ए भागि के आगि में
कुंदन पहिले त मन भर तपाला
पाला लगे दो बयारि बिछोहिन
पहिला तमाचा तनिक न सहाला

उठत सम्हारत रोअत मनावत
ठीकहि ठाक बखत बिति जाला
कोहूं के भागि फिरो पुरवाई आ
कोहूं के बंजर हिया बसि जाला

कोहूं के बारह रंग फेनो आवे
केहूं के कवनो नागे डंसि जाला
देखत सुनत बूझत जानत
अनुभवे क अधार गढ़ाला

धरम करम मरम के तरे
मोह क ताग परान दुखाल
कहेलें कृष्ण सुजान परान जे
नेह त मोह से ऊपर ले जाला

जुग जनम सव भागि भरत देश
एह धरा पे जो तन मंझाला
आँखि पुतरिया क छईंया निरखि क
नैन परान सभै जुड़ि जाला

नेह क नाता सदा ही अमर बा
पवला बदे ना ई भाव जोराला
राखहुं मंगल सुखी कुशल हे
सृष्टि नियामक मोरा उरवाला

पावस मन के कवनो अमावस
में भी नाहीं नेह दीया बुताला
भूत त भूते भविष्ये भविष्य ह
साँस क सांचे स लाग मनाला

करत रहल जा न्याय समय से
ईहे असल मे न्याय कहाला
नेह बहावत नेह बसावत
सूतींय चीर नींदे हम बाला।

(भोजपुरी कविताई)

चान के सुजान गति बा
तिथि के घटबढ़ नयन
कई अयन क जोड़ लेहलन
सांच के बा उन्नयन

साँच पर ना आँच आवें
काल का दो घूमि जा
न्याय त होईबे करी
अन्याय केतनो झूमि जा

बज्र खंभा बज्र भीतिया
भलभे से चाहे टूटि जा
प्रहलाद खातिर न्याय होई
चाहें आसन छूटि जा

सत्व भक्ति के मरम
से ही अभय स्थापना
नरसिंह चीरिहें खंभ जब
ई भय करे अवमानना

हर बार के ई सत्य ह
कि स्वीकृति नाहीं सहज
बाकिय देखीं पंक में ही
उग सके सुंदर जलज

हो संसार में अवहेलना
ठाकुर के घर में नेह बा
तबहीं त चिकनी ,लोम बा
तबहीं त बालू ,रेह बा

मलमास के कहिके सुघर
ठाकुर दिहीं संदेश हे
सब प्रेम के भागी हवन
बेकाज क ह क्लेश हे

तन के थाका लागि जा त
मन के मांजे के बखत ह
चान जोड़े तीथि उधारी
तीन बरखा पर नखत ह

मलमास क सुआस ई
मन में भरे उजास ई
ध्यानि धावें जोगी जोगें
ह करम क क्लास ई।

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