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आकृति विज्ञा जी के लिखल कुछ रचना

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आकृति विज्ञा ‘अर्पण’ जी
आकृति विज्ञा ‘अर्पण’ जी

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पढ़ ललमुनिया तोरे पढ़ले
घोर अन्हारे दीप जरी ।
बढ़ ललमुनिया तोरे बढ़ले
एक दुनिया के डेग बढ़ी ।

दुनिया जेकर बोली
दबा गईल कहले से पहिले
जीवन जेकर तरुणाई
बुढ़ा गईल बढ़ले से पहिले

आपन सपना खुदे भुलवलस
ओकरे आँखिन जोत जरी ।
एक दुनिया के डेग बढ़ी ….।
घोर अन्हारे दीप जरी।

सजिहे सुंदर खोता चिरई
ताना बाना नेह डोर के
शाख से अपना छूटे ना
कसि के बनिहे शीर्ष छोर के ।

जेकर सोरि धरा धारेले
ओकरे नवकी सोर धरी
एक दुनिया के डेग बढ़ी….।
घोर अन्हारे दीप जरी।

ते नदिया जेकर धारा
रूप धरेले अनघ अनघ
सब सभ्यता तोरे से ही
ऊपराईल बा पनग पनग ।

हँस ललमुनिया तोरे हँसले
तिमिर कलश में भोर भरी ।
घोर अन्हारे दीप जरी….।
एक दुनिया के डेग बढ़ी ।

—————————————–

माथ लगा के चन्नन अइसे
ए बबुआ ई सोना माटी
बीज लक्ष्य के जम के साध s
दुनिया देखी हिम्मत खांटी ।

कदम बढ़ाव धीर धरs तू
धीरे धीरे सब हो जाई
तोहरे साथे बरम बाबा
तोहरे साथे काली माई

खटिया जस जो होई दुनिया
याद रखs कि तूंही पाटी
दुनिया देखी हिम्मत खांटी…….

मेहनत रथवा कबो न रोकिहs
इनके उनके जिन तू तकिहs
साध साध के शब्द खरचीहs
आला बाला मत तू बकिहs

याद रखs कि करम के खेती
जे जो बोई ऊहे काटी
दुनिया देखी हिम्मत खांटी….

तू ओह धरती से बाड़s कि
जेह पर गोरख गाथा गइलें
वीर कुंवर के चौड़ा सीना
जियक् कबीरा अलख जगइलें

जेकरे टिकुली में हो लासा
ऊहे त माथे पर साटी
दुनिया देखी हिम्मत खांटी।

—————————————–

नीबी क पेड़

काट देलन स नीबिया के पेड़
ईया कहति रहे
अब खटिया रहि गईल
बस चारपाई ले
काहें कि बिन बयारि
खटिया के भार लगेले पाटी
ईया ईहो कहलसि
एह नवरातर हमरे दुआर
न झूलिहें सातो बहिन
ईया के ई बाति ढेर खात रहे
कि अब ना जानि पईहें
कि कब पटिदारी में पाहुन अईलें
आ अबकी बरिस केना लईके
चेचक के चपेट में अईले स
अब दतुअन आ गांछ बदे
केहूं न आई दुआर
बड़का बाऊजी जब
हटावत रहें कटलकी नीबिया
त ईया के आंखि लोर चू गईल
एही पेड़वा के तरे
खेलत रहे कबो बाबू
अपना चेहरा के झुर्री सोहरावत
ईया मन में कहल
” मनईयो एक दिन पेड़ हो जाला।”

 

कजरी

जवन नीबिया के तरिया
मिलनी घोर दुपहरिया
मिलनी घोर दुपरिया
बन्हली नेहिया के डोरिया।
अब झूला ना ओहपे डराई सखी
होइगे कटाई सखी ना….

जवने पोखरा के तीर
जुटे पीड़िया के भीड़
जुटे पीड़िया के भीड़
का गरीब का अमीर
अब पीड़िया न ओहवां दहाई सखी
होईगे पटाई सखी ना….

जवने खेत के मचान
उतरे रोज राति चान
उतरे रोज राति चान
होखे खेत से विहान
अब सोना न खेत उपजाई सखी
खेत गे बिकाई सखी ना….

जोहीं बाग – बगइचा
महुआ ,इमिली मोगइचा
महुआ इमिली मोगइचा
अउरो पुअरा के गलइचा
सब धीरे’ धीरे जाइ बिलाई सखी
जेआ’जु न बचाई सखी ना…

अबकी सावन महीना
एक भरोस हमें दीं ना
एक भरोस हमें दींं ना
खुद से वादा करीं ना
सभे दुइ’ दुई पेड़ जीयाईं सखी
धरती बचाईं सखी ना…..

 

 दू गो क्षणिका

१. उ न जानेले ,
के हवे मैकाइवर ?
बाकिर जानेले
सामाजिक संबंधन के जाल।
हमनी के जानीले के हवे कृष्ण
हमन से प्रेम ही त ना हो पावेला।

२.केहू कहलस चीनी नीयन मीठ बीया
केहू कहलस एकदम कड़क नमकीन
गाय नीयन सीधवा ,कादो कउआ-हकिनी
माई ,भौजाई , चिन्नी,नमक,गाय ,कउआ
सब ठीक बा बाकिर ईहो ईयाद रहे
मेहरारू जाति भी मानव मात्र होले।

बेटी बदे आस निहोरा

तोहके तरसेला हमरी दलान सुगिया
हमरो छतवा पे उतरेला चान सुगिया।

चार ऋतुअन के घर अगवानी हवे
आँख में ई पीरितिया के पानी हवे
अइतू लोरी के लिहले उठान सुगिया
राहि देखत के कुहुके परान सुगिया…….

झारि आसन देती बिठवती तोहे
हाथ से रीन्हि खैका खिअवती तोहे
आँख के तू पुतरिया ई मान सुगिया
एक तोहरे बिना घर मकान सुगिया ‌…..

चिर अन्हरिया बुझाला पूरा घरा
टेरे तोहरे बदे सगरो अन धन भरा
बनके दियरी तू कइ द विहान सुगिया
मोर अरजिया प दे द धेयान सुगिया

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