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जय भोजपुरी : जय हिन्दी

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जय भोजपुरी : जय हिन्दी
जय भोजपुरी : जय हिन्दी

भोजपुरी के महातम बड़ा बड़ बा। एकर विरवा बड़ा होनहार बा। एकर भविस हमरा बड़हीं चौचक आ टहकार चाँदनी निभर सुभग आ धप-धप उज्जर सूझत वा । भोजपुरी भाषा के किरतन हम कहाँ ले करी। एकर गुन गवले ना ओराई।

महादेव जी के मन्दिर होला । ओह मन्दिर भा सिवाला का भीतर एगो-दूगो ना, कई गो देवथान आ देवकुर रहेला। एह देवल में खाली शिवजी ना पुजालन अलग-अलग कई गो मंडप होला, जवनन में कहूँ अन्नपूर्णाजी, कहूँ गणेशजी त कहूँ महाबीर जी विराजमान रहेलन । कहूं धनुहाधारी अवतारी राम-लखन का बीचे सुकुमारी जनक दुलारी सोभेली त कहूं मुरलीधर मुरारी जवरे वृषभानु कुमारी राधिका के मूरति मन मोहेले। देवी-दुरगा का छोट-गोट प्रतिमन का संगे-संगे  भूतभावन के सवारी ‘बसहा’ तक के दरस-पूजन, आरती-वन्दन कइल जाला विश्वनाथ का मंदिर में आन-आन देव-देबी के साथ-संधत अनसोहावन ना लागल आजु ले कवनो सरधावान का।
ठीक एही तरे भारत-भारती हिन्दिओ के एगो बहुत बड़, भरल मंदिर बा। एह मंदिर में कई गो मंडप बा । कवनो मंडप अवधी के, कवनो ब्रजभाषा के, कवनो राजस्थानी के, कवनो बुदेली-बघेली के, कवनो मैथिली के, कवनो उर्दू के, त कवनो भोजपुरी भा मगही के बा। देखल जाय, एह मंडपन में भगत लोगन के कतहत बड़ भीर भरल-ठकचल बा। कवनो मंडप में अक्षय भाव के सुमनांजलि लेले भगतवर गोसाई तुलसीदासजी बानी, त कवनो में सूरदासजी; कवनो में मीराबाई त कवनो में विद्यापति । अलख लखनिहार कबीरदास आ बिरह-पीर से पोरे-पोर बिन्हाइल जायसी का पाछा लागल रहीम, रसखान, बिहारी, भूषण, मतिराम, केशवदास, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महाबीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द, प्रसाद, निराला, पंत, शिवपूजन सहाय, दिनकर का लगही-पंजरा गालिब, जफर, दाग, अकबर इलाहाबादी आ विस्मिल मतिन कतेक जने अपना-अपना साधना में लवलीन लउकत बाड़न। एह विशाल दिव्यालय के मंडपन मे केकरकेकरा के फरिआई! गिनती के पार नइखे। मुड़िए-मूड़ी त लउकत बा। एहिजा ना छुआछूत बा, ना ँच-नीच बा आ ना जाति-पाति बा। काबा-काशी के कपरफोरउवल इहवा नइखे । एहिजे डिठार होता जे बाँभन तुलसी बाबा जवरे चमार रैदासो भगत बाड़न । हिन्दू सूर-मीरा बाड़ी त जोलहा कवीर, मलिक मोहम्मद जायसी आ रसिया रसखान से ले के सभकर सिरताज ‘ताज’ भी बाड़ी। एह मुसलमान भगत लोग के देखि के भारतेन्दु जी सिहा गइलन आ माथा नवा दिहलन।

एह जेतना मंडपन मे साधक-उपासक लोग भेद-भाव भुला के, एक रीतिपिरीति से, एक रस होके बइठल बा ओह कुल्हि मंडपन के मिला के संउसे मन्दिर के जवन एगो नाँव ह ऊह हिन्दी-मन्दिर। हमनी का सब केहू, अवधी, ब्रजी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी-बषेली, उर्दू अउरी मैथिली, मगही, भोजपूरी बोलनिहार एही एके मन्दिर के उपासक हई जा। संस्कृत के एगो उक्ति ह जे चाहे कवनो देवता के नमस्कार करी कृष्णे भगवान के मिलेला। मतलब ई कि केहू के पूजी किसुने के टिसुना (चाह, तृष्णा) ह। एही तरे हमनी का कवनो मंडप मे गोहार लगावत होखी जा बाकी ई हरमेसे अॅखियान राखे के चाही कि ई आपन-आपन अढ़ाई चाउर के खिचड़ी ना ह, ई कुल्हि एके जेवनार-हिन्दीए के सिंगार-ह।

दिल्ली से देवघर लगाइत हिमालय आ विन्ध्याचल का बीचे बोलात जतना भाषा बाडीसन राष्ट्रभाषा हिन्दी के सिंगार हई सन । ओह में भोजपुरी के आपन खास महातम बा । ई भारत-भारती हिन्दी का मन्दिर के उजागर करे खातिर एगो दीया ह-अपना लोकगीत, लोकगाथा, लोकवार्ता के पुरान सशक्त, सम्मोहक आ संघटक सुभाव लेले सत्प्रेरणा-स्रोत, जागरण-संदेश आ कर्तव्य-बोध करवनिहार आजुओ काल्हु भाकर्षक प्रभावशाली आ ओजस्वी कविता, नाटक, कहानी, निबंध आदि का रूप में नेह के अंजोर पसरवनिहार । बड़ही समरथ आ गहू-गम्हीर एह भाषा के प्रवाह निरगुन से ले के सगुन भक्ति-काव्य-धारा तक में लखार होत बाइल हा। ईजारे वाली भाषा ह, तूरे-फारे वाली ना। कहे के ना होई कि महतारी का दूध का साथे पावल एह भाषा के सपूतन का हाथे-कान्हे-माथे हिन्दी के सिंहासन ँच से ँच होखत आइल बा। ई कुल्हि भइलो पर, भोजपुरी बोली’ के बेवहार निकहन ढंग से नीमन भाव-बिचार का प्रकाश खातिर कइला पर आलु जे कोहनाता ओकरा भोजपुरिहन का अवदान के अन्दाज नइखे। जुग-युग से सोचेसमुझे, कहे-सुने खातिर नीके तरे अजमावल भोजपुरी भाषा के आपन खासिअत बा। आपन वजन बा आ आपन पानी बा, थोर कहीं आ ढेर बूझी, अइसन इसारावाली, चउकस-चुस्त भोजपुरी भाषा अवधी, ब्रजी, राजस्थानी, मैथिली आ मगही मतिन हिन्दी के एगो अंग ह । विस्तृत हिन्दी अंगी ह, आ ई कुल्हि क्षेत्रीय भाषा ओकर अंग हईसन । अंगी का अलगा अंग के मोल-महातम ना होला। ई बूझे के चाही जे जवन हिन्दी ह तवने भोजपुरिओह। जे राम हउवन से ही भरत हउवन । ‘राम भरत मोर दूर आँखी।’ हिन्दी का अनभल का नाँव पर भोजपुरी के बढ़ती सपनो मे ना सोचल जा सके। एह में कवनो राई-रत्ती संका नइखे जे भाषा का उन्माद मे हिन्दी से अनदेखाई करेवाला लोग गोड़ काटि के नौह रंगेलन आ मूड़ी काटि केस के रइछा कइल चाहेलन ।

का ईहो कहे के परी जे हिन्दी अँगाठ बिरिछ ह आ भोजपुरी ओकर लह-लह पतई। हिन्दी पानी ह त भोजपुरी मछरी ह। जे पेड़ काटि के पलो पटावेला आ मछरी का जीये खातिर पानी उबिछेला ओह गँवार से केहू के, कतो, कबो भलाई ना हो सके । ओकरा एह कुकरम से बड़ही अनरस आ अनरथ होला । पहिले कहाइल हा जे भोजपुरी हिन्दी का मन्दिर मे अर्पित एगो दीया ह। दीया घर में अंजोर करे खातिर होला, घर के सिंगार होला। जवन दियना घर के गह-गह ना करे बलुक जेकरा लाफि से आँचर में आगि लागि जा ओकरा के अँचरा भा अँजुरी के आड़ ना देके, बढ़ा देवे के चाही। हमहन भोजपुरिहन का अपना मरजादा, धरम आ करतब के बराबर श्यादि रासे के चाहीं । घर फूकि के तमासा देखेवाली नीयत कबो ना होने के चाहीं। भोजपुरी बोली सुनि के हमहन का अगराए-धधाए के त चाहीं, बाकी अंगरे आ धन्ह के के ना चाहीं। ई कबो ना भुलाए के चाहीं कि हिन्दी आपन घर-मकान ह आ भोजपुरी ओही घर के अंगना ह । अँगना पर अगर इलाके केह बाउर ना मानी बाकी अंगना में अंगरा के घर में आगि लगा देवे खातिर कबिरा के लुआठी लेके जे हरनठि जाई ओके चतुर-चल्हाँक केहू ना कही। अइसना मत-बाउर के सभे दुर-दुर करी।

भोजपुरी के ‘जय-जयकार’ सुनि के हम उमगि रहल बानी, अलगि रहल बानी। रउरो उमड़ी आ एह जय-जयकार का अनगिनित सुर मे हमरा साथे आपनी सधल सुर मेराई। हँ, भाषाई उन्माद का अगलगी से हमनीका हरमेस सजगसचेत रहे के चाहीं। भाषाई उन्माद मे केहू अवधी का नाँव पर अगियाबैताल बनल बा, केहू बिरिज-चोली खातिर बिसमधल बा, केहू बघेली खातिर विथकल बा, केहू उरदू खातिर उदासल बा, केहू राजस्थानी खातिर रिरिया रहल बा । केहू मैथिली खातिर मगज मारि रहल बा त केहू मगही खातिर मातल बा आ केहू भोजपुरी खातिर भभकि रहल बा । केहू दोसरे कवनो भाषा बदे बदी बद रहल बा, लरिआइल बा, लोहा लेवे के ललकार रहल बा।

हमरा मन मे ई भरोसा बा जे हिन्दी कोहड़ा के जनमतुआ बतिआ ना हजे अंगुरी देखते कुम्हिला जाई, आँखि का पानी के ठार एकरा लागि जाई भा टोना के एंड टूमि के एकर आल्हर जान ले लेई । हिन्दी अछबट ह–’अक्षय वट’-जे कवनो आन्ही-तूफान से निरमूल ना हो सके । भोजपुरी समेत ई कुल्हि क्षेत्रीय भाषा हिन्दी का अछैबट के बरोहि हुई सन । बरोहिए से बरगद अछैबट कहाइल । बरोहि जब धरती घडलेला त एगो बरिआर मजिगर पेड़े हो जाला ।

आ ना त आकास में टंगाइल बकरी का गर का लर निअर अनेरे लटकल रहेला, बहेतुआ मतिन झूलत रहेला। जवन बरोहि धरती धइ के बरिआरा बनि जाला, पेड़ के डाढ़ि से ना बलुक मूले से रस के बल पाके, धधा के धरती धइ के फेरु मूले के बरिआर आ अछ बनावेला । एह में अब कवनो अनेसा नइखे जे हिन्दी का अछबट के भोजपुरिओ वाली बरोहि अवधी, ब्रजी आ मैथिली निअर धरती धइ लिहलस । अब अकासे मे ई टंगाइल नइसे, धरती के रस सोखि के अपनहुँ डापुट आ बरिार हो गइल आ हिन्दी का बरगद के भी अछबट नाव सार्थक कद रहल बा।

भोजपुरी के महातम बड़ा बड़ बा। एकर विरवा बड़ा होनहार बा। एकर भविस हमरा बड़हीं चौचक आ टहकार चाँदनी निभर सुभग आ धप-धप उज्जर सूझत वा । भोजपुरी भाषा के किरतन हम कहाँ ले करी। एकर गुन गवले ना ओराई। हम त थोरे में ईहे कवि जे एह में हमनी का जिनिगी के मिठास आ सोना निअर सुघर सपना सहेजल बा। एही से आसा के बदरी ओनइ आवेले आ मन के मोर लालसा के सतरंगी पॉखि लहरावत थिरक उठेला । एही से नेह के मेह बरिसे लागेला, मनवाँ के बनवाँ हरिअरा जाला, लहलहा उठेला । केतना ले’ कही, भोजपुरी हमनी का साँस-साँस मे समाइल बिआ। एही में जनम बा, बिआह वा, उगंग बा, दुलार बा, पियार बा; सोरहो सिंगार बा। एही मे दुख-सितम के आहो बा, कराहो बा। कतहुँ रही, एह के सुनते हमरा माई श्यादि परे लागेले आ माई के देखते टहटह अंजोरिया निअर एह भाषा के रूप परतच्छ हो जाला, आँखि जुड़ा जाले, हियरा में हुलास आ मन मे उछाह जागि जाला। बाकी ई हमरा कवो ना बिस रे जे हिन्दी हमार देस ह आ भोजपुरी हमार गाँव ह । हम अपना गाँव खातिर ललकीला बाकी देस खातिर हरदम आपन बलिदान करे बदे हँकरत रहीला । देस आ गाँव के लेके हमरा मन में कवनो दोबिधा-दन्द नइखे। एही से हम असंक हो के कहत बानी जय भोजपुरी ! जय हिन्दी !

इ आलेख डा० अनिल कुमार ‘आंजनेय’ जी के लिखल किताब विचार बन्ध से लिहल गइल बा।

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