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कौन सुनता है कुतुबपुर की इस आवाज को

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Bhikhari thakur
Bhikhari thakur

भिखारी ठाकुर रचनावली के प्रधान संपादक वीरेंद्र नारायण यादव ने बताया कि उनकी जयंती मनाने की तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं। छपरा, सिवान, आरा से लेकर पटना तक तरह-तरह के आयोजन हो रहे हैं। ठिठुरते जाड़े में खुले मैदान में नाट्य प्रस्तुतियां होने वाली हैं। सारा आयोजन स्वत:स्फूर्त है। मुझे अपने बचपन की कुछ बातें याद आईं। गांव में जब-तब भिखारी ठाकुर की चर्चा करते हुए लोग मिल जाते थे- यह चर्चा कि भिखारी के नाच में किस कदर भीड़ उमड़ती थी और किस तरह लोग पागल हो उठते थे और कैसे पुलिस-प्रशासन को नाकों चने चबाना पड़ता था। भिखारी ठाकुर किसी लीजेंड की तरह बने हुए हैं।

केदारनाथ सिंह की कविता भिखारी ठाकुर ने इस भाव को गहन बनाया है। उनकी कविता भिखारी ठाकुर के नाच को आजादी की लड़ाई से और विदेसिया की लय को राष्ट्रगान की लय से ही नहीं, बल्कि भिखारी ठाकुर को गांधी से जोड़ती है। छपरा जिले के छोटे-से गांव कुतुबपुर से भिखारी ठाकुर खड़गपुर (पश्चिम बंगाल) गए। उन दिनों आजीविका की तलाश में लोग कलकत्ता (कोलकाता) जाते थे। वहीं भिखारी ठाकुर को नाटक- नौटंकी की लगन लगी। कुछ दिनों बाद भिखारी कुतुबपुर लौट आए। विदेसिया के प्रमुख पात्र विदेसी की तरह भिखारी को भी यकीन हो चला था- कहत भिखारी भिखार होई गइलीं दौलत बहुत कमा के। बहुत दौलत कमा लेने के बाद मैं दरिद्र हो गया हूं। कुतुबपुर लौटकर भिखारी ने अपनी नाटक मंडली बनाई और उसके माध्यम से नई पनप रही सभ्यता की समीक्षा करने लगे। व्यंग्य उनका सबसे प्रमुख औजार है। भिखारी ठाकुर का व्यंग्य भोजपुरी भाषा की अपार रचनात्मक संभावना का अर्क है।

भोजपुरी जीवन और समाज को भिखारी ठाकुर अच्छी तरह जानते तो थे ही, कुछ दिन कलकत्ता रहकर उसे पहचान भी गए थे। उसकी खूबियों को ही नहीं, खामियों को भी, सरल-सरस जीवन संगीत में छिपी विसंगतियों और विडंबनाओं को भी। जिस तरह गांधी को भारत को देखने की नजर दक्षिण अफ्रीका में मिली, उसी तरह भिखारी ठाकुर को खड़गपुर में अपने समाज को देखने की नजर हासिल हुई। नाटकों में भिखारी ठाकुर ने नई नजर से देखे-सुने अपने गांव-समाज का अंकन किया। इसीलिए उनके नाच में लोगों को मुक्ति का संगीत सुनाई पडम। गांधी की तरह भिखारी ठाकुर को इस बात का इल्म था कि गांवों को बेहाल करके देश का विकास नहीं हो सकता।

पटना, कलकत्ता व दिल्ली से गांवों को देखना एक बात है, गांव में जाकर उसे देखना बिल्कुल अलग है। गांव की आवाज दुनिया को सुनाने के लिए गांधी सेवाग्राम से बोलते हैं, तो भिखारी कुतुबपुर से। सेवाग्राम से गांधी की आवाज को उनके चेलों ने ही अनसुना कर दिया। क्या हम भी भिखारी ठाकुर की आवाज को अनसुना कर रहे हैं?

सदानंद शाही, प्रोफेसर, काशी हिंदू विश्वविद्यालय

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