भारत की सरकार भारतीय भाषाओं का विकास चाहती है और वर्ग पाँच तक मातृभाषा में शिक्षा देने जा रही है। परन्तु, विविध भाषा-भाषी इस भारतवर्ष में सरकार को सबसे पहले अपनी मातृभाषा संबंधी अवधारणा को स्पष्ट करना चाहिए। क्योंकि यह बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है। इसे सरकारी ठसक के जरिये लागू करना घातक सिद्ध हो सकता है। व्याकरण के आधार अथवा सहारा लेकर अर्जित भाषा राजभाषा और रोजगार की भाषा हो सकती है, मातृभाषा नहीं। देशी मातृभाषाओं के समन्वय-समुच्चय से निर्मित स्वाभाविक भाषा राष्ट्र की सम्पर्क भाषा, राजभाषा और राष्ट्रभाषा हो सकती है और उसकी भी स्वाभाविक स्वीकृति तभी संभव हो पायेगी जब वह क्षेत्रीय, प्रांतीय भाषाओं/मातृभाषाओं के विकास-मार्ग में सहायक सिद्ध हो।
इस विषय को विमर्श के केन्द्र में लाना होगा। अन्यथा भविष्य के किसी भयानक अनहोनी पर पछताना होगा। पाठकीय प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है। इस पठनीय सामग्री को साझा करना केवल मातृभाषाओं के हित में ही नहीं होगा, बल्कि देश और किसी भी लोकतांत्रिक विकास चाहने वाली राजनीतिक पार्टी अथवा सरकार के हित में होगा। अन्तर्राष्ट्रीय भाषा, राष्ट्रभाषा और मातृभाषा का अपना-अपना महत्त्व और अधिकार है। सबके ज्ञान और सम्मान से ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र महान बन पायेगा। इनमें से एक की भी उपेक्षा समाज और देश के लिए अहितकर सिद्ध हो सकता है।
(इस विमर्श में सकारात्मक सोच-समझ वाले प्रत्येक भाषाविदों, साहित्यकारों, शिक्षाविदों, पत्रकारों और सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं का सहर्ष स्वागत है।)
-जयकान्त सिंह ‘जय’
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