भाषा-उत्पत्ति चिंतन : प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह ‘जय’

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भाषा-अध्ययन का क्रम में भाषा-विज्ञानी लोग के ‘भाषा-उत्पत्ति’ के लेके सबसे अधिका माथापच्ची करेके पड़ल बा। आरम्भ में जब कवनो निजी स्वतंत्र धारणा ना बन सकल त मान लिहल गइल कि भाषा मनुष्य खातिर ईश्वरीय अर्थात् दैवी देन बा। जवन आउर जीया-जन्त का प्राप्त ना हो सकल। किन्तु, भाषा-अध्ययन के क्षेत्र में जइसे-जइसे एह विषय से जुड़ल अनुभवजन्य विचार उभरत गइले, तइसे-तइसे बनत धारणा सिद्धांत के रूप लेते गइल; जइसे – दैवी सिद्धांत के अलावे संकेत सिद्धांत, अनुकरण सिद्धांत, अनुरणन सिद्धांत, श्रम-ध्वनि सिद्धांत, प्रतीक सिद्धांत, सम्पर्क सिद्धांत, संगीत सिद्धांत, आवेग सिद्धांत आदि। किन्तु, भाषा-उत्पत्ति के लेके एह कुल्ह सिद्धांतन के एतना ना अपवाद मिलत गइल आ संसार के हर भाषा के उत्पत्ति से ई कुल्ह सिद्धांत अपना के तर्कसंगत ढ़ंग से ना जोड़ पावल,जवना के चलते भाषा-विज्ञानी लोग का सामूहिक निर्देश जारी करत एह ‘ भाषा-उत्पत्ति ‘ विषय के दर्शन, मानव-विज्ञान आ समाज-विज्ञान के पाले डाले के पड़ल।

सन् 1866 ई. में पेरिस में ‘ लोसोसिएते द लेंगिस्तीक ( La societe de linguistique ) ‘ नाम के एगो भाषा-विज्ञानी लोग के समिति के स्थापना भइल। जवन सर्वसम्मति से एगो अधिनियम बनावल कि आगे से ‘ भाषा-उत्पत्ति आ विश्वभाषा-निर्माण ‘ विषय पर विचार ना होई।

( Language : Otto Jesperson , page-96) एह अधिनियम का पक्ष में तर्क देत समिति के कहनाम रहे कि चूंकि भाषा-उत्पत्ति सम्बन्धी कुल्ह सिद्धांत के आधार अनुमान बा आ विज्ञान आपन सिद्धांत अनुमान के आधार पर तय ना करके तथ्य के आधार पर तय करेला। भाषा के मूलरूप प्राप्त नइखे। एह से भाषा-विज्ञान एह दिसाईं आपन असमर्थता प्रकट करऽता। भाषा-विज्ञानी लोग का ओह समिति का निर्देश के बावजूद ई भाषा-उत्पत्ति वाला विषय रूचिगर होखे के कारण आजुओ भाषा का अध्येता लोग के बीच विमर्श के महत्वपूर्ण विषय बनल बा। भाषा-विज्ञान का पोथियन में सबसे अधिक यूरोपीय सिद्धांतन पर विचार कइल जाला जबकि भाषा, भाषा-उत्पत्ति, भाषा-संरचना आदि के लेके सबसे पहिले आध्यात्मिक का सङ्गे-सङ्गे भौतिक आधार पर भारतीय ऋषि-मुनि आ आचार्य लोग अध्ययन-चिंतित कइले बा। एह से भाषा-उत्पत्ति सम्बन्धी भारतीय अवधारणा पर विचार के उपरांत यूरोपीय विद्वान लोग का सिद्धांतन पर विचार कइल उचित होई।

भाषा आ भाषा-उत्पत्ति सम्बन्धी भारतीय चिंतन परम्परा में ऋग्वेद, निरुक्त, ऐतरेय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण, अष्टाध्यायी आदि भारतीय वाङ्मय में उभरल तथ्यन के उल्लेख आ ओकर व्याख्या करे का पहिले न्याय, वैशेषिक, मीमांसा आदि दर्शन में भाषा-उत्पत्ति सम्बन्धी आइल विवेचन के आधार पर भाषाविद् आचार्य किशोरी दास वाजपेई द्वारा राखल तथ्यन के ध्यान में राखे के होई। एह दर्शन सब में भाषा-उत्पत्ति सम्बन्धी तथ्यन के सार समझावत अपना ‘ भारतीय भाषाविज्ञान ‘ के पन्ना – 26 आ 27 में बतवले बारन कि ” भाषा मनुष्य के बनावल चीज ह। ‘ एह शब्द से ई अर्थ समुझे के चाहीं ‘ एह तरह के ‘ समय ‘ – संकेत ही भाषा के मूल ह। एह ‘ समय ‘ शब्द के प्रयोग पहिले कवनो चीज के तय करेके अर्थ में होत रहे। तय कर लिहल गइल कि ‘ जल ‘ शब्द बोलल जाई त पीये चाहे नहाये के चीज समझल जाई, जवन नदी- तालाब, झरना आदि से प्राप्त होला। ई सुने, पढ़े, देखे आ बेवहार आदि करे वाला मान लिहल। ओही चीज ( अर्थ ) खातिर अलग-अलग जगह पर ‘ वाटर ‘ आ ‘ आब ‘ आदि शब्द तय कइल गइल। चीज ( अर्थ ) सगरो एके आ ओकर बोध करावे वाला शब्द के रूप अलग-अलग। ओइसहीं एक जगह से उठके अपना पाँव से दोसरा जगह पहुँचे के क्रिया खातिर शब्द ‘ समय ‘- संकेत से ‘ गम् ‘ तय भइल त कहीं ‘ गो ‘ त कहीं ‘ जा ‘ आदि। एह गम् , गो , जा आदि मूल शब्द में प्रत्यय आ उपसर्ग लगा के एके क्रिया बोधक अर्थ प्राप्त कइल जाला। अइसहीं हजारन-हजार शब्द-संकेत तय हो गइल त भाषा बनत गइल।

एह तरह से मनुष्य ‘ समय ‘- संकेत से भाषा बनावल। ई कवनो नैसर्गिक चीज नइखे। पत्थर नैसर्गिक ह आ ओकरा भवन मनुष्य बनवल। माटी नैसर्गिक ह। ओकरा से ईंटा आ ईंटा से घर मनुष्य बनावल। पत्थर, माटी (उपादान) नैसर्गिक ह। ईंटा, भवन, घर, मंदिर आदि मनुष्य बनवले बा। ‘न्यायवार्तिक’ में कहल गइल बा कि ” जदि कवनो अर्थ में कवनो शब्द के स्वाभाविक सम्बन्ध होखित, ईश्वर के इच्छा से नैसर्गिक सम्बन्ध रहित कि ‘ एह शब्द से इहे अर्थ समुझल जाए ‘ त फेर विभिन्न जातियन में एके अर्थ खातिर विभिन्न शब्दन के बेवस्था ना होखित। सगरो एगो अर्थ खातिर एके शब्द चलित। बाकिर विभिन्न जातियन में विभिन्न शब्द-बेवस्था बा। जहँवा नैसर्गिक सम्बन्ध होखेला, उहँवा अइसन भेद-भाव ना होखे। अइसन ना होखे कि दीया हमरा के आउर ढ़ंग से अँजोर दी आ अमेरिका का लोग के कवनो दोसरा ढ़ंग से अँजोर दी। ‘

( यदि स्वाभाविक: शब्दसंबंधोऽभविष्यत् , न जातिविशेषे शब्दार्थ-व्यवस्थाऽभविष्यत्। अस्ति तु जातिविशेषे प्रयोग:। जातिविशेषे यथाकामं प्रयोगो दृष्ट:। न तु स्वाभाविकेन संबंधेन संबद्धानां जातिविशेषे व्यभिचारो दृष्ट:। नहि प्रदीपोऽस्माकमन्यथा प्रकाशयति, अन्यथा जातिविशेषे।’

जल में पियास बुझावे के स्वाभाविक क्षमता बा। जइसे एगो सनातनी के पियास बुझावेला, ओइसहीं ईसाई आ मुसलमानो के पियास बुझावेला। किन्तु, एक चीज जल (अर्थ) खातिर अलग-अलग ‘ समय ‘-संकेत ( शब्द ) पानी, वाटर, आब आदि तय कइल गइल बा। अपना इहाँ ‘अर्थ’ के माने ‘ मतलब ‘ होला आ इंग्लैंड वाला लोग ‘पृथ्वी’ के अर्थ खातिर ‘ अर्थ ‘ शब्द के प्रयोग करेला। त, शब्दार्थ-भेद नैसर्गिक कहाँ रहल? किन्तु, अइसन ‘समय’-संकेत करे के शक्ति कहँवा से आइल? ‘ एह शब्द से ई अर्थ समुझिहऽ ‘ अइसन कहे-सुने आ समुझे के शक्ति कहँवा से आ गइल? प्रारंभिक बातचीत कइसे भइल? ई एगो गंभीर प्रश्न बा।

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