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भोजपुरी की परम्परा

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भोजपुरी की परम्परा
भोजपुरी की परम्परा

भोजपुरी भाषा की उत्पत्ति चाहे जैसे हुई हो, लेकिन अब यह प्रश्न अविचारणीय हो गया है। इस विषय में मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि भोजपुरी, भोजपुर का विशेषण मात्र है जो भोजपुर प्रान्त के आस-पास के लोगों की बोली के लिए प्रसिद्ध हुआ।

भोजपुरी की परम्परा

भोजपुरी की परम्परा यद्यपि बहुत लम्बी नहीं है, लेकिन भोजपुरी काव्य धीरे धीरे अत्यन्त समृद्ध हुआ है। भोजपुरी अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं, विविधता, व्यापकता, लोकसंपृक्ति, मानवीय अन्तर्सम्बन्धों की परख और लोकमानस की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति में सफल है। लोक वाणी से लोक मानस की समूची चेतना, वेदना, कसक, और भावाभिव्यक्ति के कारण आज भोजपुरी भाषा का अपना महत्व स्थापित हुआ है।

भोजपुरी का काव्य सही अर्थों में जनकाव्य है, जो लोक द्वारा लोक के लिए सृजित हुआ है और सदियों से गाया जा रहा है। इसके पीछे एक लम्बी परम्परा रही है। भोजपुरी समाज के उतार-चढ़ाव का उदात्त वर्णन करने में सफल रही है। भोजपुरी काव्य क्षेत्रीयता या संकीर्णता के दायरे में बँधकर नहीं रहा, उसमें मनुष्य, समाज और देश की आशाओं, आकांक्षाओं को सबसे पहले महत्व दिया और उसकी पहचान के आग्रह का वातावरण बनाया।

आजकल लिखित और अलिखित रूपों में भोजपुरी का पुराना साहित्य जो उपलब्ध होता है, उसे तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-

1. सिद्ध साहित्य
2. नाथ साहित्य
3. सन्त साहित्य (हिन्दी कवि)

1. सिद्ध साहित्य :

भोजपुरी का सर्वप्रथम प्रयोग सिद्धों की कविता में उपलब्ध होता है। सिद्धों ने प्रकृत भाषा को छोड़कर उसके स्थान पर लोकभाषा को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया ।

राहुल सांकृत्यायन का मत है- “सिद्धों ने तत्कालीन प्राचीन मान्य साहित्यिक भाषाओं को त्यागकर देश भाषाओं के माध्यम से अपने विचारों को जनता तक पहुँचाना शुरू करके हर प्रकार से देश में क्रान्ति का आन्दोलन जारी किया।” सिद्धों की काव्य भाषा पर बड़ा विवाद है और विद्वान अभी तक इस निर्णय पर नहीं पहुँचे हैं कि इनकी भाषा पुरानी बंगला है अथवा अन्य कुछ। फिर भी इनकी कविता की भाषा पर ध्यान दिया जाय तो उसमें अनेक भोजपुरी के क्रिया पद मिलेंगे।

सिद्धों में सरहपा, शबरपा, कण्हपा, गड़रिया, लुइपा, कुक्कुरिपा, विणापा, दणिपा, भादेपा, धामपा, भुसूक, डोम्भिपा आदि प्रमुख हैं ।

सरहपा : सरहपा सर्वप्रथम सिद्ध माने जाते हैं। इनका समय आठवीं-नौवीं सदी माना जाता है। इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना कीइनकी कविताओं में भोजपुरी के अनेक शब्दों का प्रयोग किया गया है।

जैसे-
जह मन पवन न संचरइ, रवि ससि नाहिं पवेस ।
तहि वट चित विसाम करूँ, सरहे कहिय उवेस ॥

शबरपा : शबरपा सरहपा के बाद दूसरे सिद्ध थे। ये श्री पर्वत पर रहा करते थे। शबरों या कोल-भीलों के सम्पर्क में रहने के कारण इनका नाम शबरपा पड़ा। इनकी कविताओं में भोजपुरी के संज्ञा और क्रिया के पद पाये जाते हैं।
उदाहराणार्थ-

ँच-ँच पावत तिहि बसइ सबरी वाली,
मोरग पीच्छ परहिण सवरी गिवत गुंजरी माली ।
उज्जु रे उजु छाड़ि मा लेहु रे बंक,
नि आहि वोहि मा जाहु रे लंक ॥

डोंभीपा: सिद्धों में डोंभिपा प्रमुख सिद्ध थे। इन्होंने अपनी कविताओं में भोजपुरी का प्रयोग किया है, जो निम्नलिखित है-

वाहुत डोम्बी वाहलो डोम्बीवाटत भइल उछाहा ।
सद्गुरु पाअ पए जाइब पुणु जिण धारा ॥

इस पद में भइल’ और ‘जाइब’ क्रिया पद पर भोजपुरी के स्पष्ट प्रभाव दिखाई देते हैं।

भुसुक: चौरासी सिद्धों में सिद्ध भुसुक का नाम श्रेष्ठ है। ये नालन्दा (बिहार) में एक क्षत्रिय वंश में पैदा हुए थे। इनका आविर्भाव नवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है । इन्होंने ‘सहजगीति’ नामक पुस्तक की रचना की है, जिसका एक पद उद्धृत है-

आजि भुसु बंगाली भइली,
णिअ धरिणी चण्डाली लेली ।

इस पद में ‘भइली’ क्रिया स्पष्ट भोजपुरी की है।

कुक्कुरिपा : कुक्कुरिपा ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। इनका विचित्र नाम ‘कुक्करिपा’ कैसे पड़ा, यह ज्ञात नहीं है। इनका निम्न पद अत्यधिक प्रचलित है –

संसुरी निंद गेल बहुड़ी जागअ,
कानेर चोर निलका गइ भगाअ ।
दिवसइ बहुणी काढइ डरे भाअ,
राति भइलकामरू जाअ ।।

कुछ लोगों का मानना है कि इनके आश्रम में कुत्तों (कुक्कुरों) की संख्या अधिक थी, इसलिए इनका नाम कुकुरिपा पड़ गयालगता है कुक्कुरपाद से कुकुरिपा हो गया होगा। कुकुर पाद का अर्थ है कि जिनके चरणों में कुक्कुर अधिक पलते हों। पौराणिक आख्यायिका के अनुसार दत्तादेय के आश्रम में एक श्वान-शाला थी।

2. नाथ साहित्य :

भोजपुरी साहित्य का आदिकाल गोरखनाथ की कविता से माना जा सकता है। नाथों के आदि गुरु गोरखनाथ माने जाते हैं। जिन्होंने अपने गुरु मछिन्दर नाथ (मत्स्येन्द्र नाथ) की नारी-भोग प्रधान-साधना पद्धति का विरोध किया थागोरखनाथ का आविर्भाव विक्रम सम्वत् की दसवीं शताब्दी में हुआ था। नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरखनाथ जी शिव रूप हैं। अनादि है। उनका व्यक्तित्व देश और काल की सीमा से परे है। नाथ लोग मूलतः शैव थे और शून्य साधना को ईश्वरवादी बना दिया। नाथों की हठयोग परक साधना को आगे चलकर कबीर ने आत्मसात् कर लिया। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी की मान्यता है-“शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली महिमान्वित महापुरुष भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ।” गोरखनाथ ने हिन्दी में गोरखसार, गोरखबोध, नरवैबोध, काफिरबोध आदि कृतियों की रचना की। डॉ० बड़थ्वाल ने गोरख-बानी संग्रह में उनकी रचनाएँ संग्रहीत की हैं। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं-“गोरखनाथ ने लोकभाषा को भी अपने उपदेशों का माध्यम बनायायद्यपि उपलब्ध सामग्री से यह निर्णय करना बड़ा कठिन है कि उनकी भाषा का विशुद्ध रूप क्या था तथापि इसमें सन्देह नहीं कि उन्होंने अपने उपदेश भोजपुरी में प्रचारित किये थे।” उनकी कविता में भोजपुरी का प्रयोग दिखाई पड़ता है। सिद्ध साहित्य की भाँति नाथ साहित्य में भी भोजपुरी का पुट पाया जाता है।

गुरु कीजै गहिला, निगुरा न रहिला,
गुर बिन ग्यान न पायला रै भाइला ।
दूध धोया कोईला उजला न होईला
कागा कण्ठे पहुप माल हंसला न भैला ॥

भर्तृहरि (भरथरी):

भर्तृहरि लोकभाषा में भरथरी के नाम से विख्यात हैं। संस्कृत में शतक-त्रय ( शृंगार-शतक, नीति-शतक, वैराग्य-शतक) के रचयिता राजा भरथरी से इन्हें पृथक व्यक्ति समझना चाहिएभरथरी और गोपीचन्द के नाम से अनेक लोक-गाथाएँ भोजपुरी में प्रचलित हैं, परन्तु इन्हें भोजपुरी की रचना मानना उपयुक्त न होगा। इनके शिष्यों ने सम्भवतः इन गाथाओं की रचना की होगी। इनके नाम से बारहमासा प्रसिद्ध है। जिसकी अन्तिम पंक्तियाँ अधोलिखित हैं-

जेठ तपे मिगिटहवा होए बहे पवन हहास,
भरथरी गावे बारहमासा, हो पूजे मन के आस ।

3. सन्त साहित्य (हिन्दी कवि) :

हिन्दी के अनेक कवियों ने भोजपुरी भाषा के शब्दों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है। इन कवियों में विद्यापति, तुलसीदास और जायसी प्रसिद्ध हैं।

विद्यापति

महाकवि विद्यापति उस काल में उत्पन्न हुए, जब मैथिली, भोजपुरी और बंगला पृथक पृथक भाषा के रूप में विकसित नहीं हुई थी। विद्यापति ने अनेक गीत लिखे हैं, जिनमें भोजपुरी के शब्द पाए जाते हैं। निम्न गीत की पंक्तियाँ विद्यापति ने अपनी विधवा चाची के मुख से आधी रात में सुनकर लिखा-

बसहर घरवा के नीच दुअरिया ए उधो रामा झिलमिल बाती,
पिया ले में सुतलों ए उधौ, रामा पिया जइहें चोरी ।
जो हम जनितो ए उधौ, रामा पिया जइहें चोरी,
रेसम के डोरिया ए उधौ, टूटि-फाटि जइहें ।
रेसम के डोरिया ए उधौ, खींची बंधवा बन्धितो,
बन्धन के बान्हल पियवा, रामा. से हो कहाँ जइबे ।

मलिक मुहम्मद जायसी

प्रेममार्गी कवि जायसी जायस (अवध) के रहने वाले थे। यह सिद्ध फकीर थे। फकीर और साधू-योगियों के साथ सत्संग करने के कारण इनकी बोली में भोजपुरी शब्दों का मिलना आश्चर्यजनक नहीं है। जायसी ने अपने काव्य ‘पद्मावत’ की रचना ठेठ अवधी भाषा में की है, किन्तु उनमें भी भोजपुरी के शब्दों का बहुतायत से प्रयोग हुआ है-

‘साजि सबै चंडोल चलाये, सुरंग ‘ओहार’ मोति जनु लाये ।’

इसमें ‘ओहार’ शब्द भोजपुरी है, जिसका अर्थ पालकी के परदे से लिया जाता है । आगे जायसी लिखते हैं- ‘का पछिताव आउ जो पूजी’ अर्थात आयु समाप्त हो जाने पर पश्चाताप करना व्यर्थ है। हिन्दी में ‘पूजना’ का अर्थ आदर-सत्कार होता है। परन्तु भोजपुरी में ‘पूर्ण’ होने के अर्थ में प्रयुक्त होता है।

गोस्वामी तुलसीदास

महाकवि तुलसीदास जी ने रामचरित मानस की रचना अवधी भाषा तथा विनय पत्रिका की रचना ब्रजभाषा में की है। रामचरित मानस तथा विनय पत्रिका में कुछ अध्याय की रचना तुलसीदास ने काशी में किया था और काशी भोजपुरी भाषा क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। इसलिए उनकी रचनाओं में भोजपुरी का प्रभाव स्पष्ट दीखता है।

तुलसीदास ने अपने ग्रन्थों में भोजपुरी के शब्दों का प्रयोग कर इसे गौरव प्रदान किया है । इनकी रचना रामलला-नहछू भोजपुरी में प्रचलित छन्द ‘सोहर’ में है। तुलसी की भाषा में भोजपुरी के शब्दों, मुहावरों आदि का प्रयोग मिलता है। रामचरितमानस’ में ऐसी अनेक पंक्तियाँ हैं, जो एक ओर अवधी की, तो दूसरी ओर शुद्ध भोजपुरी की प्रतीत होती है।

जो राउर अनुसासन पाँ । कन्दुक इक ब्रह्माण्ड उठाँ।।
यहाँ ‘राउर’ शब्द का अर्थ भोजपुरी में ‘आप’ होता है।

इसी प्रकार- ‘कहेउ कृपाल लेहु उतराई ।’

नदी को नाव से पार करने का शुल्क ‘उतराई’ भोजपुरी का शब्द है। इसके अतिरिक्त तुलसीदास ने अन्य स्थाने पर भी भोजपुरी के अनेक भोजपुरी शब्दों का प्रयोग किया है।

‘मरनु नीक तेहि जीवन चाही ।’ (नीक – अच्छा)
‘जौ बिधि पुरब मनोरथ काली ।’ (पुरब – पूर्ण करना)

अनेक शब्द भोजपुरी भाषा के मिलते हैं।

सूरदास :

इसी प्रकार भोजपुरी प्रदेश में निम्न और पिछड़ी जातियों में प्रचलित कुछ गीत सूरदास के भी हैं जिनकी भाषा आद्योपान्त भोजपुरी है। जैसे-
काहे ना प्रभुता करीं ए हरी जी काहें ना प्रभुता करी,
जइसे पतंग दीपक में हुलसे पाछे के पगु ना धरे,
कृष्ण के पाती लिखत रुकमिनी, विप्र के हाथ धरे,
अब जनि बिलम करी ए प्रभु जी, गडुर चढ़ि रउरा धाई ।

सूरदास ने अपने काव्य भ्रमर गीत सार में भी कहीं कहीं भाजपुरी शब्दों का प्रयोग किया है।

हमारे हरि हारिल की लकरी ।
मन बच क्रम नन्दनन्दन सो, उर यह दृढ़ कर पकरी
जागत सोवत सपने सौतुख कान्ह कान्ह जकरी,
सुनतहि जोग लगत ऐसो अलि, ज्यों करुई ककरी ।

यहाँ पर लकरी (लकड़ी), पकरी (पकड़ना), जकरी (जकड़ना), करुई (कड़वा) आदि भोजपुरी के शब्द हैं।

यहाँ पर सिद्धों, नाथों, हिन्दी के प्रधान कवियों का उल्लेख केवल यह दिखाने के उद्देश्य से किया गया है, कि इन कवियों ने कुछ भोजपुरी के संज्ञा तथा क्रिया पदों का प्रयोग अपनी कविता में किया है। किन्तु इस आधार पर इन कवियों को भोजपुरी का कवि स्वीकार नहीं किया जा सकता। दुर्गा शंकर प्रसाद सिंह के शब्दों में -“अनुचित ही नहीं होगा बल्कि इन कवियों के साथ अन्याय करना भी कहा जायेगा।”

उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि भोजपुरी साहित्य के शब्द अनेक कवियों और विद्वानों की रचनाओं में प्रयोग हुआ है, उन्हें भोजपुरी कवि की उपाधि नहीं दी जा सकती है।

सन्त साहित्य :

भोजपुरी सन्त साहित्य का काल सन् 1400 ई० से प्रारम्भ होता है और सन् 1900 ई० तक माना जाता है। इन पाँच सौ वर्षों में अनेक सन्त कवियों ने इस पवित्र धरती पर जन्म लेकर भोजपुरी को अपनी मधुर कविता का माध्यम बनाया। इन पाँच सौ वर्षों में अनेक सन्त सम्प्रदाय का उदय हुआ, जिनकी कृपा से भोजपुरी साहित्य की श्रीवृद्धि हुई। इन सम्प्रदायों में कुछ प्रमुख सम्प्रदायों का विवेचन निम्नलिखित है।

निर्गुण सम्प्रदाय :

सन्त सम्प्रदाय में निर्गुण सम्प्रदाय के प्रवर्तक कबीरदास जी हैं। और यहीं से भोजपुरी साहित्य की धारा प्रारम्भ होती है। सन्त कबीर की साधु-वाणी में भोजपुरी के पूर्ण रूप से दर्शन होते हैं। कबीर दास जी भोजपुरी प्रदेश के निवासी थे। इसलिए इनकी कविताओं में भोजपुरी का गहरा पुट एवं भोजपुरी में उनकी काव्य-रचना स्वाभाविक है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर का जन्म सम्वत् 1456 मानते हैंइनकी मृत्यु 1505, 1569, 1575 और 1549 मानी जाती है। किन्तु इसमें से किसे सत्य माना जाय, यह कहना कठिन है। इनकी पत्नी का नाम ‘लोई’ अथवा ‘धनिया’ माना जाता है। कबीरदास गृहस्थ थे। एक पुत्र ‘कमाल’ और एक पुत्री ‘कमाली’ के पिता थे। इनकी सभी रचनाओं का संग्रह इनके शिष्य धर्मदास ने ‘बीजक’ नाम से किया है।

‘बीजक’ के तीन भाग हैं : अ- साखी, आ- सबद, इ- रमैनी। कबीर की कुछ रचनाएँ सिक्खों के धर्मग्रन्थ ‘गुरु ग्रन्थ साहब’ में संकलित हैं।

कबीरदास के जन्म काल को भोजपुरी साहित्य का श्री गणेश मानना चाहिएकबीरदास जी कहते हैं कि हमारी बोली पूरब की है। हमें तो वही पहचान सकता है, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश का रहने वाला होगा।

बोली हमरी पूरब की, हमकों लखे न कोय ।
हमको तो सोई लखे, जो धुनि पूरब का होय ॥

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का विचार है- “इनकी (कबीर) भाषा सधुक्कड़ी अर्थात राजस्थानी, पंजाबी, मिली खड़ी बोली है, पर रमैनी और सबद में गाने के पद्य हैं जिनमें ब्रजभाषा और कहीं कहीं पूर्वी बोली का भी व्यवहार है।”

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का विचार है-“कबीर के बीजक की भाषा भोजपुरी है।”

डॉ. उदय नारायण तिवारी कबीर दास की भाषा के सम्बन्ध में कहते हैं-“यह बोली (भोजपुरी) बनारस के पश्चिम, मिर्जा मुराद थाने से दो तीन मील और आगे तमंचाबाद तक बोली जाती है। वस्तुतः यह बोली कबीर की मातृभाषा थी। यह प्रसिद्ध है कि कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, अतः अपनी मातृभाषा में रचना करना स्वाभाविक था।

डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल एवं डॉ० उदय नारायण तिवारी आदि शीर्षस्थ विद्वानों ने कबीर दास की भाषा को भोजपुरी स्वीकार किया है, जो उनकी रचना ‘साखी’ में देखने को मिलता है।

सूतल रहलू मैं नींद भरि हो पीया दिहलैं जगाय,
चरन-कँवल के अंजन हो, नैना ले लूँ लगाय ।
जासों निदिया न आवै हो, नहिं तन अलसाय,
पिया के बचन प्रेम सागर हो, चलूँ चली हो नहाय,
जनम-जनम के पापवा छिन में डारब धोबाय,
यहि तन के जग दीप कियौ प्रीत बतिया लगाय ।

कबीरदास की जन्मस्थली काशी है, जो पश्चिम भोजपुरी का केन्द्र है। उनका लालन-पालन काशी में हुआ और उनका अधिकांश समय काशी में ही बीता। इनकी काव्य की प्रधान तथा मूल भाषा भोजपुरी ही है। इन्हीं सब कारणों से कबीर को भोजपुरी का आदि कवि स्वीकार किया जाता है।

डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी ने कबीर की भोजपुरी कविता के उदाहरण में निम्नलिखित पदों को उद्धृत किया है-

कनवा फराइ जोगी जटवा बढ़वले, दाढ़ी बढ़ाई जोगी हो गइलें बकरा
कहत कबीर सुनो भाई साधो, जग दरवज्जा बान्हल जइबे पकरा

बाबा घर रहलू त बबूनी कहवलू, सइयाँ घर चतुर सयान ।

डॉ० उदय नारायण तिवारी ने अपनी पुस्तक में कबीर के निम्न पद भोजपुरी भाषा के उदाहरण में दिए हैं-

तोर हीरा हिराइल बा कचरे में,
अपने पिया की हम होइबौं सुहागिन, अहे सजनी !
कवन ठगवा नगरिया लूटल हो
चन्दन खाट के बनल खटोलना, ता पर दुलहिन सूतल हो,

अइली गवनवा के सारी हो, अइली गवनवा के सार
साज समाज ले सइया मोरे, अइली कहरवा चारी ।

धरमदास:

धरमदास कबीर की वाणियों से चमत्कृत होकर अपना सारा धन लुटाकर कबीर के शिष्य हो गये। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कथन है-“इनकी रचना कबीर की अपेक्षा अधिक सरल है। इनकी वाणी में कबीर की तरह कठोरता और कर्कशता नहीं है। इन्होंने अपनी कहानी में पूर्वी भाषा का प्रयोग किया है। इनकी अन्योक्तियों के व्यंजक चित्र अधिक मार्मिक हैं। इनकी वाणी खण्डन-मण्डन न होकर प्रेम की भाषा है। धरमदास की एक वाणी प्रस्तुत है –

मितऊ मडैया सूनी करि गैलो
अपने बलभू परदेस निकसि गैलो, हमरा के कछु ना गुना देइ गैलो,
जोगी होइके मैं बन बन ढूँढो, हमरा के बिरहा बिराग देइ गैलो,
संग के सखी सब पार उतरि गैलो, हम धइ ठाढ़ अकेला रहि गैलो।

पलटू साहब :

सन्त कवियों में पलटू साहब का नाम अत्यधिक प्रचलित है। ये अपने गुरु गोविन्द साहब से अधिक विख्यात हुए। इनका जन्म जलालपुर (फैजाबाद) में हुआ था। इनके शिष्य हुलास दास के अनुसार इनकी जन्मतिथि माघ सुदी रविवार सम्वत् 1826 है। यह भी सम्भव है कि उक्त तिथि इनके दीक्षा ग्रहण की हो। इनकी मृत्यु आश्विन सुदी 12, सोमवार को बतायी जाती है। इनकी रचनाओं का संग्रह ‘पलटू दास की बानी’ के नाम से प्रकाशित है। इनका एक पद निम्न है-

काहे के लगावे ले सनेहिया हो अब तुरल न जाय
जब हम रहलो लरिकवा हो, पियवा आवहि जाय,
अब हम भइलो सयनिया हो, पियवा ठेकले बिदेस,
पियवा के भेजलो सदेसवा हो, अइहें पियवा मोर ।

धरनीदास :

धरनी दास सिद्ध सन्त थे। ये बिहार प्रान्त के सारन जिले के माँझी गाँव के निवासी थे। ये स्वभाव से साधू थे। धार्मिक प्रवृत्ति का होने के कारण ये अपना अधिक समय हरि-भजन में व्यतीत करते थे।

भाई रे जीभ कहलि नहिं जाई,
रामरटन को करत निहुराई, कूदि चले कुचिराई ।

लक्ष्मी सखी :

श्री लक्ष्मी सखी जी को भोजपुरी का महाकवि कहा गया है। इनका पूरा नाम बाबा लक्ष्मी दास था, परन्तु ये लक्ष्मी सखी दास से नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं। इनका जन्म बिहार प्रान्त के सारन जिले के आमनौर नामक ग्राम में हुआ था। इनका आविर्भाव काल उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है।

मने-मने करीले गुनावनि हो पिया परम कठोर
पहनो पसिजि-पसिजि के हो, बहि चलत हिलोर,
जो उठत विषय लहरिया हो, छने-छने में घघोर,
तनिको ना कनख नजरिया हो चितवत मोर ओर ।

शिव नारायण :

सन्त कवि शिवनारायण का जन्म उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के ‘चन्द्रवार’ नामक ग्राम में हुआ था। इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की है, जो हस्तलिखित रूप में उपलब्ध होते हैं। इनकी पुस्तकें अबतक अप्रकाशित हैं। इनके ‘अन्नास’ नामक ग्रन्थ का निर्माण सन् 1734 ई० या 1791 वि० सम्वत् में हुआ था। इनका एक पद दृष्टव्य है-

सूतल रहली नींदभरि, गुरु देलेहिं जगाई
गुरु के सबद अंग अंजन हो ले लो नयना लगाई,
तबहीं से नींद नहिं आवे हो, नाहि मन अलसाई,
गुरु के चरन रज सागर हो, नित सबेरे नहाई ।

लोक काव्य :

भोजपुरी के लोक काव्य की परम्परा अत्यन्त समृद्ध है। लोकजीवन की प्रसन्नता, संस्कृति बोध, प्रेम-विरह, विद्रोह, यथार्थ एवं संघर्ष आदि की यथार्थ व्यंजना इसमें मिलती है। उत्सव, पर्व, खेत-खलिहान, कुआँ-बावड़ी, बाग-बगीचा, नदी, पोखर, कजरी-फाग, बिरहा-कहरवा, धोबिअउवा और बारहमासा आदि जैसे पुरुष-प्रधान गीतों के साथ प्रायः नारी कण्ठों में संरक्षित कजरी, झूमर, सोहर, संझा, पराती, जंतसार, जेवनार, गारी, छठ, बहुरा, पिड़िया, नाग पंचमी, तथा अनेक संस्कारों पर गाये जाने वाले गीत भोजपुरी लोक-जीवन को प्रमुखता प्रदान करते हैं। भोजपुरी लोक गीतों के संग्रह और सम्प्रदान में जिन लोगों ने अपनी भूमिका निभायी है, उन विद्वानों में जे० वीम्स, ए० जी० शिरेफ, डॉ० ग्रियर्सन, पण्डित रामनरेश त्रिपाठी, डॉ० कृष्णदेव उपाध्याय, देवेन्द्र सत्यार्थी, डॉ० विद्यानिवास मिश्र, दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह, डब्ल्यू० जी० आर्चर, संकटा प्रसाद पाण्डेय, पाण्डेय कपिल एवं श्री हंस कुमार तिवारी आदि प्रमुख हैं।

आधुनिक काव्य :

आधुनिक भोजपुरी कविता को कविता की श्रेष्ठ भारतीय परम्परा से जोड़ने में पूरबी के जनक महेन्दर मिसिर, लोकरंग को लोकमंच की विशिष्ट शैली से सम्पन्न करने वाले भिखारी ठाकुर, देश-राग के अमर गायक बाबू रघुवीर नारायण और बिरहा के अमर गायक बिसराम का नाम प्रमुख है। इनके अतिरिक्त मनोरंजन प्रसाद सिन्हा, महेन्द्र शास्त्री, विमलानन्द सरस्वती, धरीक्षण मिश्र, मोती बी० ए०, रामविचार पाण्डेय, राम जियावनदास ‘बावला’, गोरख पाण्डेय, जगदीश ओझा ‘सुन्दर’, भोलाराम गहमरी, चन्द्रशेखर मिश्र, राहगीर, दूधनाथ शर्मा ‘श्याम’, रामनाथ पाठक ‘प्रणयी’, प्रभुनाथ सिंह ‘अंजन’ आदि ने सृजन के नये आयामों से इसे जोड़ा है।

सातवें दशक के बाद भोजपुरी में अनेक श्रेष्ठ काव्य प्रकाशित हुए। इनमें कुँवर सिंह (हरेन्द्र देव नारायण), वीर कुंवर सिंह, भीषम बाबा, द्रोपदी (चन्द्रशेखर मिश्र), साहित्य रामायण (दुर्गा शंकर प्रसाद सिंह), किरनमयी (रामवचन शास्त्री), अँजोर, बहुधायन (बिमलानन्द सरस्वती), प्रेमायन (अवशेष), लव-कुश (तारकेश्वर मिश्र ‘राही’), महाभारत (गणेशदत्त ‘किरन’), ‘कुणाल’ (रामबचन लाल), रुक जा बदरा ( मधुकर सिंह), सुदामा-यात्रा ( दूधनाथ शर्मा), कौशिकायन ( अविनाशचन्द्र ‘विद्यार्थी) आदि प्रमुख हैं।

भोजपुरी में रचना करने वाले प्रमुख कवियों में राहगीर, हरीराम द्विवेदी, आनन्द सन्धिदूत, अशोक द्विवेदी, प्रकाश उदय, चन्द्रदेव सिंह, पाण्डेय कपिल, पी० चन्द्र, विनोद, लक्ष्मीशंकर त्रिवेदी, चन्द्रदेव यादव, रंगनाथ ‘रंग’, मुख्तार सिंह दीक्षित, रामवृक्ष राय “विधुर’, रवीन्द्र श्रीवास्तव ‘जुगानी’, स्वर्ण किरण, प्रो० ब्रजकिशोर, सुभद्रा वीरेन्द्र, उपेन्द्र कुमार, नागेन्द्र मणि, ‘मंजुल’, श्रीकृष्ण तिवारी, विन्ध्यवासिनी दत्त त्रिपाठी, माहेश्वर तिवारी ‘अनुपम’ आदि महत्वपूर्ण हैं

भोजपुरी कविता का भविष्य उज्ज्वल है। कवियों की इस पीढ़ी में कविता को ँचाई पर ले जाने वाली क्रियाशीलता और सृजनशीलता विद्यमान है।

गद्य साहित्य :

भोजपुरी काव्य के मुकाबिले उसका गद्य साहित्य थोड़ा अविकसित अवस्था में है। इसका कारण यह है कि भोजपुरी क्षेत्र में शिक्षा का माध्यम हिन्दी है। पुरानकागजों में भोजपुरी गद्य के नमूने मिलते हैं। ये कागज दानपत्रों, एकरारनामों, बही खातों, पंचनामों और फैसलों के रूप में मिलते हैं। डॉ० उदय नारायण तिवारी ने भोजपुरी गद्य को तीन भागों में बाँटा है-

1. प्रचीन कागज-पत्रों में सुरक्षित गद्य
2. आधुनिक पुस्तकों में प्रयुक्त गद्य
3. लोक कथाओं का गद्य

आधुनिक युग में डॉ० तिवारी राहुल सांकृत्यायन को भोजपुरी गद्य का प्रवर्तक मानते हैं। राहुल सांकृत्यायन ठेठ भोजपुरी में धाराप्रवाह भाषण भी देते थेगोपालगंज में आयोजित दिसम्बर ’47 में भोजपुरी सम्मेलन के दूसरे अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए राहुल जी ने कहा था-‘के अभागा के आपन जनम-धरती आ जनम के बोली पयार ना लागी, बाकी अब मन-मन में रखला के काम नइखे। ओके करे के चाहीं । हमनी के भाई-बहिन चारों छूट के कबहूँ जे मिलेला, आपन बोली में बतिआवे में तनिकों संकोच ना करेला। हम देखीले कि दुसरा दुसरा जगह के लोग आपन बोली-बानी छोड़ि के अरबी-फारसी बूके लागेला, आ आपन जनम धरती के छिपावेला।’

गद्य विधाओं में कहानी साहित्य भोजपुरी में अत्यन्त उन्नत और महत्वपूर्ण है सर्वश्री अवधबिहारी ‘सुमन’, (बाद में श्री विमलानन्द सरस्वती), महेन्द्र शास्त्री, रामेश्वर सिंह ‘कश्यप’, चतुरी चाचा, विवेकी राय, पी चन्द्रविनोद, रामेश्वर नाथ तिवारी, रामदेव शुक्ल, हरिकिशोर पाण्डेय, प्रतिमा वर्मा, पाण्डेय कपिल, गणेश दत्त ‘किरन’, अशोक द्विवेदी, रामनाथ पाण्डेय, विनय बिहारी सिंह, कृष्ण नन्द सिंह ‘कृष्ण’, प्रकाश उदय, सुरेश काटक, मधुकर सिंह, सत्यदेव त्रिपाठी, तैयब हुसेन ‘पीड़ित’, भगवती प्रसाद द्विवेदी, विष्णुदेव तिवारी एवं जवाहर सिंह की कहानियाँ सम्भावना के नये क्षितिज खोलती हैं।

विवेकी राय, गणेश दत्त ‘किरन’, शिव प्रसाद सिंह, विद्यानिवास मिश्र, आनन्द सन्धिदूत, अशोक द्विवेदी और प्रकाश उदय की सुन्दर रचनाएँ, रसिक विहारी ओझा ‘निर्भिक’, चन्द्रभाल द्विवेदी और सरदार देविन्दर सिंह के यात्रा संस्मरण, रामदेव शुक्ल, रामनाथ पाण्डेय एवं पाण्डेय शुक्ल के उपन्यास, माधुरी शुक्ल की कहानियाँ और राहुल सांकृत्यायन, भिखारी ठाकुर के नाटकों ने भोजपुरी गद्य की परम्परा को समृद्ध किया है।

भोजपुरी की एक लम्बी परम्परा रही है और इसके पीछे भोजपुरी भाषा की सरलता, मधुरता, सहजता और स्पष्टवादिता है। इसी प्रवृत्ति के कारण सर्वप्रथम सिद्धों ने इसे अपनी भावाभिव्यक्ति का माध्यम बनाया और आगे चलकर नाथ सम्प्रदाय ने इसी भाषा में अपनी वाणी को आयाम दिया। धीरे धीरे सन्त सम्प्रदाय के भक्त कवियों ने अपने हृदय के उद्गार को जन सामान्य तक पहुँचाने के लिए भोजपुरी की मधुर कविता को माध्यम बनाया।

भोजपुरी साहित्य के सम्बन्ध में सबसे बड़ी समस्या यह रही है कि यह प्रकाशित रूप में विशेष उपलब्ध नहीं है। यह प्रधानतः मौखिक रूप में ही प्राप्त होता है। गाँवों में साधुओं, सन्तों और योगियों के सरस एवं मधुर स्वरों में यह साहित्य छिपा पड़ा है, साथ ही साथ ग्रामीण अंचल के घरों में स्त्रियों के कलकण्ठ से विभिन्न उत्सवों, पर्यों एवं आयोजनों में गाये जाने वाले मंगल गीत आदि इन सबके अतिरिक्त आल्हा, बिरहा, विभिन्न जाति-समुदाय के लोक गायन भी, जो लोक-कण्ठ में छिपा है। इस प्रकार भोजपुरी की एक विस्तृत परम्परा है और जिसका आधुनिक युग में और भी विस्तार हुआ है।

भोजपुरी की सबसे बड़ी कमी इसमें प्रकाशित उच्च श्रेणी के साहित्य का अभाव है भोजपुरियों को अपनी भाषा के प्रति इतना अनुराग होने पर भी यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इस भाषा की श्री वृद्धि नहीं हुई है। प्राचीन काल में भी इसकी बहनों बंगाली, मैथिली एवं कोशली के मुकाबले में इसमें विशेष साहित्य की रचना नहीं हुई। इसका प्रधान कारण ब्राह्मणों, पण्डितों, का संस्कृत भाषा के प्रति (मातृभाषा की उपेक्षा कर) विशेष अनुराग है।

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