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विवेक सिंह जी के लिखल भोजपुरी कहानी रसपान

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विवेक सिंह जी

जिनिगी के सभसे मधुर इयाद साइद बचपने के होला। लरिकाईं के कुछ मीठ स्मृति के असर अइसन गहिरोर होला कि ताउम्र अदिमी ओकर अहसास के अनुभव करत रहेला। पुरान भइला का संगे अइसन इयाद अमृत में तब्दील होके मन के घइला में समा जाला।ई अमृत जीवन के हतास-निराश छन में बहुते संबल प्रदान करेला।

आज बहुत दिन बाद हम अपना बेडरूम में के शो-केस साफ करत रहीं। अचानक हमरा एगो फ़ोटो मिलल। फ़ोटो बहुत पुरान रहे, साइद बीसहन बरिस पहिले के। फ़ोटो प जमल गरदा के कारन कुछुओ साफ नजर ना आवत रहे, लेकिन जहाँ हमार अँगुरी पड़ल रहे ओ’जा से जमल धूर थोरिका हट गइला का ओजह से एगो चेकदार कमीज पहिनले लइका के चेहरा साफ दिखाई देत रहे जेकर उमिर तकरीबन दस से बारहs बरिस होई। अउर केहू ना हमहीं रहनीं। जी हँ, ई हमरे बचपन के फोटो रहे, साथ में अउर लोग भी रहन लेकिन फ़ोटो पे गर्दा के वजह से सब केहू ना लउकत रहे। अब हमरा अंदर बेचैनी समा गइल। अब हम कहीं अकेला में बइठ के सब केहू के देखे के चाहत रहनीं जे जे फ़ोटो में रहे। हम सफाई कइल छोड़ के अपना बाहर के कोठरी में आ गइनीं अउर गला में लपेटल गमछा के छोर से ओहि फ़ोटो के साफ कइनीं। अब सब चेहरा हमरा आँखि के सोझा रहे।

विवेक सिंह जी
विवेक सिंह जी

हमार नाम ‘नितेश’ ह अउर हमरा छोट भाई के नाम ‘नितिन’।हमनीं के दु भाई रहनींजा, हर चीज में बराबर-बराबर के बखरा लागे। हमरा से तीन साल छोट रहे नितिन बहुत ज्यादा जिद्दी। हर बात में टेक अड़ा देवे सब कुछ ओकरा अधिके चाहत रहे, माई के कोरा होखे भा बाबूजी के कन्हइया। ओकरा लागे कि भइया के ज्यादा प्यार-दुलार मिलेला एही से आपन हक सब में भा सब चीज में जबरन जतावे के कोशिश करे। नीतिन के जबरदस्ती के शरारत-ठिठोली ओकर छुटपना में अच्छो लागे।

हमनी के दुनू भाई के जन्म गाँव में ही भइल आ पढ़ाई-लिखाई के व्यवस्था अपना गाँव के प्राइमरी स्कूल से लेके बगल वाला गाँव के हाईस्कूल तक भइल काहे कि हमार बाबूजी किसान रहनीं अउर आपन खेती-बारी उहाँ के कइल पसंद रहे। एही से उहाँ के बहरा ना गइनीं अउर हमनियों के गाँवें में रहे के पड़ल। पहिला क्लास से पँचवा क्लास तक बोरा पर बइठनींजा तब जाके आगे के क्लास में बेंच प बइठे के मिलल।

छुट्टी में त आदमी बहुत कम घूमे जाय कहीं बाकिर सावन में त पक्का तय रहत रहे कि मामा के घरे जाये के बा काहे कि सावन के अंतिम दिन रक्षाबंधन पड़ेला। हमनीं के कवनो बहिन ना रही। मामा के एगो लइकी रही, जवन हमनीं दुनू भाई से छोट रही, एकदम कवनो जापानी गुड़िया नियन। ओकर नाम रहे ‘अराध्या’, हमनी ओकरा के प्यार से पिहू कहींजा। रक्षाबंधन के एक सप्ताह पहिले से मामा के घरे चल जाईंजा अउर खूब मजा करींजा।

सावन के पूरा महीना खुशनुमा होखे। भरि सावन कवनों-ना-कवनों परब-उत्सव होखे से हमनीं के खुशी के पर्याप्त अवसर भेंटे । सावन के शुरुआती पखवारा में नागपंचमी मनावल जाय तेकरा दु दिन बाद सतमी के पूजाई होखे, फेरु महाबीरी धजा फेराई, गढ़देवी ‘अश्कामनी माई’ आ ‘सिमरीख बाबा’ के पूजा। ई दुनू देवी देवता के पूजाई से पहिले सबसे श्रेष्ठ देवी यानी काली माई के पूजाई होखे। सावन के पूरनमासी के होखे वाला रक्षाबंधन सबसे विशेष होखे। एह दिन एगो ‘पढ़कउवा’ पूजा होखे जवना लइकी-मेहरारू सब मिल के मेंहदी पिससि। मेंहदी अउ फुलावल चना देवी माई के अरपित होखे आ शेष मेंहदी घर के सब सदस्य औरत-मरद, आपन अँगुरी भा हाथ प प्रसाद के रूप में धारण करस।

सावन माह में लागेवाला दु-दुगो मेला हमनीं बदे सभसे बड़ आकर्षण रहे, पहिला गाँवें में लागेवाला नागपंचमी मेला आ दोसरका रक्षाबंधन के दिन मामा गाँवें के मेला। हमनीं के मामा बहुते मानत रहलें। अउर कबो जाईं जा चाहे ना बाकिर रक्षाबंधन हमनीं मामा गाँवें जरूर जाईंजा। पिहू हमनी के राखी बान्हस अउ माई मामा के।

इहे सावन के दिन चलत रहे हमनी दुनु भाई इस्कूल से पढ़के छूटल रहींजा। ओह समय स्कूल में कवनो तय पोशाक ना होत रहे, जवन मन करे तवन पहिनऽ। चट्ट भा कपड़ा के झोरा ओ समय के इस्कूल बैग रहे। कच्ची रोड प गाड़ी के चक्का से पड़ल दाब से बनल गड़ही में बरखा के पानी लाग गइल रहे जेकरा से बचत-बचावत हमनीं क चलल जात रहीं स। नितिन साइद कुछ पूछल चाहत रहे। एक कान्ह से दोसर कान्ह प बस्ता फेरत पूछ बइठल- “भइया, अब त राखी में चारे दिन रह गइल नू? हमनी कब मामा किहाँ जाएम स ? परसाल त दस दिन अगते चल गइल रहींजा।”

हम नितिन के माथा पर हाथ फेरनी कहनी- “अरे बबुआ, चलल जाई। माई के तबियत अभी खराब बा, जब ठीक हो जाई त माई थोरे मनिहें? जरूर जइहें त हमनियों जाइब।” हम नितिन के दिलासा देवे के भलहीं जतन कइले होखीं बाकी हमरे मन में एह बात के निश्चिंतता ना रहे। मामा गाँवें के मेला अ ओ’जा के बेरोक मस्ती, हमजोलिन संगे के हुरदंग सब कुछ आखि क सोझा नाचत रहे। लागे कि माई के तबियत गबड़इला से असों सब खलिहे सपना ना रहि जाय। दुनु भाई घरे चहुँपनींजा आ बस्ता रख के माई लगे जम गइनींजा। साँझ के चार बजत होई। लागल जइसे माई हमनिएँ के बाट जोहत रही। भात में नून-तेल अउ मरीचा के भरवाँ आचार सउन के खाये के दिहली अउर नितिन के अपने हाथे खिआवे लगली।

नितिन मुँह में कवर भरले पूछ बइठल- “माई, मामा किहाँ कहिया चले के बा।”
माई कटोरा में भात के कवर बनावत कहली- “चलल जाई ननकू, जब हम ठीक हो जाएम तब।” माई नितिन के ननकू कहत रही साइद छोट होखे के ओजह से। हमू आपन मुँह में कवर लेत कहनी- “माई, इहे बात ई हमरा से इस्कूले से पूछत रहे। हम ऐके बोलनी कि माई जब ठीक होइहें त खुदे जइहें अउ हमनियों जाइबि ।

रक्षाबंधन में माई मामा किहाँ जरूर जात रही काहे की उ उनसे छोट रहली। माई आपन बाबूजी आ माई के मुँह जादे दिन तक ना देखले रहली। माई के पालन-पोसन, पढाई-लिखाई से लेके बिआह आ कन्यादान तक के दायित्व मामा ही निभइले रहलनि। ऐ से दुनो भाई-बहिन में बेइंतहा स्नेह रहे। लाख व्यस्तता के बावजूद माई मामा के राखी बान्हे जरूर जात रहली।

जब बाबूजी साँझ के घरे अइनीं त माई खातिर बाजार से दवाई भी लेके आइल रहनीं। उहाँ के माई से कहनी- “ऐ रमा, डॉक्टर साहब कहनींहँ कि ज्यादा काम-धन्धा नइखे करेके ना जादे फिकिर-चिंता करे के बा, काहे कि गइल बुखार फिर लौट सकत बा। तू अब खाली आराम करऽ आज से सब काहम करेम।”

माई के कई दिन से बोखार रहत रहे कबो छूटे कबो आ जाय। माइयो के आपन तबियत के चिंता कमे रहत रहे। बोखार के बावजूद घर के सभ काम अकेलहीं कइल चाहस। बाबूजी कहस कि एगो आदमी रख देत बानी त मना कर देस।

माई बाबूजी से दवाई लेत कहली- “का हम असों आपन भइया के राखी ना बान्हे जाएम?”
अइसनो लाचारी में माई मामा के राखी बान्हे के सोचत रही ई सुननीं त बाबूजी थोरे खीझनीं। बाबूजी आपन पूरा बाँहि के कुर्ता खोलत कहनी- “आ एह साल ना जइबू त काम ना चली? अरे तनी पहिले आपन सेहत के खयाल करs। जब ठीक हो जइहऽ त जाके घूम अइहs।” एतना कहिके बाबूजी दुअरा चलि गइनीं। माई के आँखि से टपटप लोर चुवत रहे। पता ना का बात के दुख रहे माई के तबियत खराब भइला के भा मामा के राखी ना बान्हल पावे के?

ओ बखत ना मोबाइल होत रहे ना कंप्यूटर जइसन संसाधन रहे कि तुरत संवाद भेजल जा सके। चिट्ठी-पाती के जुग रहे आ अब समय भी ओतिना ना रह गइल रहे कि चिट्ठी लिख के पोस्ट कइल जा सके।

हमरो मन उदास रहे कि अबके सावन में मामा किहाँ के मेला धूमे के मोका ना मिल पाई। नितिन के उदासी दोसर रहे। पिहू के बहुत मानत रहे, जब मामा घरे जाय पिहू का संगे खेले-कूदे में मगन रहे।

आखिर रक्षाबंधन के दिन आइए गइल। हमनीं मामा गाँवें ना जा पाइनीं। माई के आज मन सभसे अधिका उदास रहे। हम महसूस कइनीं कि माई के आँख रहि-रहि के डबडबा जाता। कुछो खुरखार क के काम में व्यस्त रहे के ढोंग जरूर करस बाकी आँख रहे जे भीतर के चुगली कर जाय।

अचके ननकू दुआर प से दउड़ल- हाँफत आँगन में आ धमकल। ओकर चेहरा प अथाह खुशी रहे- “माई, मामा….मामा.. मामा आइल बानीं पि क संगे । पिहू के ‘पि’ कहे।
अतिना सुनते माई ड्योढ़ी का ओरि दउर गइली। बाबूजी पिहू के आपन गोदी में उठइले मामा संगे आवत दिखाई दिहलें। माई के बेमरिया-पियर चेहरा प गजब के चमक रहे।

घर भर के मुर्दनगी ना जाने कहाँ परा गइल रहे। माई मामा के राखी बन्हली आ पिहू हमनी दुनु भाई के। बाबूजी कवनो फोटोग्राफर के बोलवले रहलीं। ई बाबूजी के करामात रहे कि फजिरे के गाड़ी से उहाँ का मामा गाँवे चल गइल रहलीं, मामा के बोलावे। एह बात के जानकारी केहू के ना रहे। ओह दिन के ई फ़ोटो आज मिल गइल। जवना में हमनीं सब केहू एक साथ रहींजा।

अब ना माई रहली ना बाबूजी ना मामा, सब कुछ बदल गइल बाकी ई तस्वीर जस-के-तस रहे। एक-ब-एक कवनो गाड़ी के आवाज से हमार धेयान भंग भ गइल । आवाज के दिशा में देखनीं त अराध्या यानि पिहू अपना पति आ गोदी में लरिका लिहले स्कॉर्पियो से उतरत नजर अइली। हर साल रक्षाबंधन में पिहू के आवे के क्रम अबो ले ना टूटल ह कबो बिलानागा।
हम अमरित कुंभ से टपकत जीवन रस में बोथा होत चलि गइनीं।

विवेक सिंह, पंजवार,सिवान


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