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जयकान्त सिंह जी के लिखल नेग में फगुआ

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जयकान्त सिंह जी

परनाम ! स्वागत बा राउर जोगीरा डॉट कॉम प, रउवा सब के सोझा बा जयकान्त सिंह जी के लिखल नेग में फगुआ, पढ़ीं आ आपन राय जरूर दीं कि रउवा जयकान्त सिंह जी के लिखल इ रचना कइसन लागल आ रउवा सब से निहोरा बा कि शेयर जरूर करी।

एगो दमाद जी फगुआ में ससुरारी पहुँचलें। ससुरारी के फगुआ, उहाँ के हँसी-ठठा, गलचउर, रंग -रहस, मटकी -मुस्की, ढोल-झाल-करताल पर उठान लेत होरी- फगुआ उनका के बाहर -भीतर से सराबोर कर दिहलस। गोत- बोत दिहलस। उनका किहाँ अइसन फगुआ होत गवात ना रहे।

जयकान्त सिंह जी
जयकान्त सिंह जी

अपना रंगरहसी चचेरा सार से पुछलन- हो हमरा किहाँ अइसन फगुआ कइसे गवाई ? ई फगुआ हम अपनो किहाँ ले जाए के चाहSतानी।सार रहे लाल बुझकड़। बात बुझ गइल। छुटते कहलस- पाहुन, हम जाए के समय इन्तजाम कर देब। रउरा केहू से बताएब जन। करे के एतने होई जे घरे जाके टोला भर का लोग के बिटोर कर लेहब।

सब लोग ढोल- झाल- करताल लेके कोठरी के बाहर फगुआ गावे खातिर तइयार रही आ रउरा ओह फगुआ के जवना के हम माटी के बरतन में खूब जतन से बान्ह के देहब, लेके कोठरी में बन्द हो जाएब। टोला भर के लोग जब बाहर से कोठरी बन्द कर दी तब रउरा माटी के बरतन में बन्द फगुआ के मुँह खोलेब। फेर भीतर से रउरा जे बोलेब भा गाएब उहे बाहर के लोग ढोल- झाल- करताल पर जोर-जोर से गाई। जबले रउरा चुप ना होखब केहू केवाड़ी ना खोली ना त फगुआ भाग जाई।ई बात सभका के बता देब।

अगिला दिन पाहुन सार के देहल माटी के बरतन में बन्द फगुआ लेके गाँवे पहुँचले।कुल्ह बेवस्था के बाद ससुरारी से नेग में मिलल फगुआ लेके कोठरी में बन्द हो गइलें। बाहर सभे उनका फगुआ कढ़ावे के इन्तजार करे लागल ।

भीतर फगुआ खातिर बरतन के मुँह खोललें त ओकरा में हाड़ा- बिर्हिनी बन्द रह स।बन्द भइला से बिखिआइलो रह स। ओकरा में से बनबना के निकलत उनका पर टूट पड़लन स। फेर जोर से चिल्लइलन- “हाड़ा कटलस रे साला खोल ना केंवड़िया।” बाहरो लोग चिल्ला के कढ़ावल-“हाड़ा कटलस रे साला खोल ना केंवड़िया।

फेर तेजी में रेघावत चिल्लइलें- ” साला खोल ना केवड़िया साला खोल ना केवड़िया।” बाहरो लोग ढोल-झाल पर ओतने तेज आ रेघा के गावल शुरु कइलस-” साला खोल ना केवड़िया साला खोल ना केवड़िया।
आउर तेजी में रोआइन राग में रेघावे लगलें-” आरे खोल ना केवड़िया साला खोल ना केवड़िया।” बाहर सभे ओही तरे ढोल-झाल पर दोहरावत जाए।” जइसे-जइसे उनकर आवाज धीमा पड़त गइल बाहरो का लोग के सुर- ताल धीमा होत गइल।

जब भीतर से फगुआ के गायन बिल्कुल बन्द हो गइल तब लोग कोठरी के केवाड़ी खोलल आ ओकरा में से बनबना के फगुआ बाहर निकले लगलें स। केतना लोग का ससुरारी वाला फगुआ भेंटाइल आ उहाँ का त फगुआ के नशा में बेसुध पड़ल रहीं।

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