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होली के सांस्कृतिक महत्व : अक्षयवर दीक्षित

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होली के सांस्कृतिक महत्व : अक्षयवर दीक्षित

परनाम ! स्वागत बा राउर जोगीरा डॉट कॉम प, आयीं पढ़ल जाव अक्षयवर दीक्षित जी के लिखल निबंध होली के सांस्कृतिक महत्व, रउवा सब से निहोरा बा कि पढ़ला के बाद आपन राय जरूर दीं, अगर रउवा अक्षयवर दीक्षित जी के लिखल भोजपुरी निबंध अच्छा लागल त शेयर जरूर करी।
इ निबंध अक्षयवर दीक्षित जी के लिखल किताब अङऊँ (भोजपुरी पद्य संग्रह ) से लिहल गइल बा।

भारत के सांस्कृतिक परम्परा विश्व में सबसे पुरान हवे। एह परम्परा के पोषक पर्व त्योहार भाजुओ आपन काम कर रहल बाड़े सन । होली एगो अइसने सांस्कृतिक त्योहार हवे। खुशी, जोस, उल्लास से भरल एह पर्व में युग-युग के स्मृति जुड़ल बाटे आ लोक-जीवन के कई गो इतिहास एह उत्सव का परम्परा में ढुकल लुकाइल बा।

अक्षयवर दीक्षित जी
अक्षयवर दीक्षित जी

भारतवर्ष अपना सांस्कृतिक जीवन में हजारों-हजार वसंत देख चुकल बा। ना जाने केतना होली मचवले बा । ई पर्व देशकाल का मुताबिक अनेक नांव से पुकारल जाला । मदनोत्सव, कहीं वसंतोत्सव, कहीं होली त कहीं फगुआ। हमरा संस्कृति के धारा वैदिक-युग से अबले निरन्तर बहते रहल बा । कबो-कबो विदेशी आक्रमणो भइल जवना से तनीमनी कठिनाई आइल । बाकी विदेश से आइल लोग के संस्कृति एह संस्कृति में मिलत गइल हालत ई भइल, जे एकर धारा अउरचाकर आ तेज हो गइल । इहे कारण बा जे संसार के अनेक संस्कृति महाकाल के चपेट में परिके विनष्ट हो गइली सन, बाकी हमार संस्कृति सैकड़न बरिस तक गुलामी का बादो गतिशील बनले रहल । एकर बहुत श्रेय एह होली, दिपावली, दशहरा आदि पर्व-त्योहार के बाटे।

अइसे त होली, वसंत पंचमी से सुरू होके चइत का एकम तक चलेला । बाकी ठीक से धूमधाम के साथे मनावल जाला, फगुनी पूरनवासी आ चइती एकम के।

एह पर्व के सांस्कृतिक परम्परा के कुछ बात हम पाठक लोग के आगे थोरे में परोसतानी।

ई प्रसिद्ध कथा बा कि हिरण्यकशिपु राक्षस का घरे “होलिका” नाँव के एगो राक्षसी रहे, जवना पर आग के कवनो असर ना परे। भक्त राज प्रहलाद का सत्याग्रह के दबावे के कुल्हीं उपाय जब खतम हो गइल त राक्षस-बाप हिरण्यकशिपु प्रह्लाह के जान से मार देवे के ढेर योजना बनवले । बाकी सब बेकार भ गइल ओही में एगो इहो रहे जे होलिका प्रलाद के कोरा में लेके धधकत आग में बइठी त ऊना जरी आईजारि जइहे। बाकी भइल एकरा उलटा। प्रल्हाद हँसते आगी में से निकल गइले आ होलिका जरि के राखि हो गइली। तबे से भक्त प्रह्लाद का सम्मान में आ होलिका का अपमान के याद करे खातिर हर साल “होलिका-दहन’ के परम्परा भारतीय आचार्य लोग सुरू कइल ।

पुराना जमाना में जब इक्ष्वाकुवंशी लोग के शासन भारत पर रहे तब ‘अडाडा” नाँव के एगो राक्षसी गाँवन में घूमि-घूमि के लइकन के मारत-मुआवत रहे । राक्षसी का डर से कपसल प्रजा लोग राजा का लगे गइल आ आपन दुख रोअल । लोग का रक्षा में तत्पर राजा चिन्तित होके तुरंते महर्षि नारदजी से रक्षा क उपाय पुछले। ई संयोग के बात रहे जे ओही बेरा नारदजी पहुँच गइल रहनी । नारदजी बतवनी जे ‘रक्षोन’ मंत्र से हवन करत आगि जलावल जाव आ लरिका लोग राक्षसी के भगावे के नोयत से हल्ला करत लुकारी लेके दउरो । महाराज सगरे राज में अइसने करे के व्यवस्था कइलें। एकरा बाद डेराइल राक्षसी के क्रोध शान्त भ गइल । कपसल लइका ढीठ हो गइले तबे से ई परम्परा बन गइल लरिका सब जे ‘अडाडा’-‘अडाडा’ कहिके लुकारी भंजले, उहे पाछे ‘अररर झररर सररर’ भ गइल आ तिरस्कार गारी के रूप में बदल गइल ! तबे से लुकारी भँजला के, कबीर गावत (गारी देत ) में झररर कहला के परम्परा चलि गइल। एही ‘बाल रक्षा विधान’ के याद करे खातिर लारका लोग ‘सम्हत’ जरावेला।

कहीं-कहीं इहो लिखल पावल जाला जे महात्मा कबीरदास के अखड़पन से ओह घरी के हिन्दू-मुसलमान केहू खुश ना रहे । एही से हिन्दू समाज उनका तिरस्कार में होली का हुरदंग के अवसर पर उनही का नाँव पर गारी देवे लागल। जवना के नांव परल ‘कबीर’ । उहे गारी ‘कबीर’ से बिगड़ ‘कबिरावन’ भ गइल। बाकी सभ्य समाज में ‘कबीर’ गावे के परम्परा नइखे । काहे से जे महात्मा कबीर के अपमान के दुर्गन्ध एह परम्परा में मिलता। जे महात्मा के हिन्दी-गोजपुरी साहित्य में, भक्ति-परम्परा में मोतना ँचा स्थान बाटे भोका नाम पर गारी देहल उचित नइखे । ई बात सबका समझे बूझे के चाही।

भारतीय भाषा में बरिस के पर्यायवाची शब्द ‘सम्वत्’ हवे । जबन हर साल नया नांव से आवेला । जरो अपना पूर्वज लोग के गुमला पर सम्मान के साथ जरावल जाला, ओइसही सम्बत्’ का खतम गइला पर ‘सम्हत’ जरावल जाला। ई ‘२.म्हत जरावल’ कीतल सम्बत का प्रति सम्मान देखावल हवे।

ई वात पद्मपुराण में आइल बा जे केहू एकग के होलिका दाह कहेला त केहू ‘वर्ष-दाह’ आ केहू ‘काम-दाह’ भी कहेला।

मीमांसा ग्रंथन में एगो ‘होलाका-यज्ञ’ के वर्णन आइल बाटे। अइसन बुझाला जे ओह यज्ञ में रबी के नया अन्न से ‘होला’ (हवन-सामग्री) बनावल जात रहे । एही से ओह यज्ञ के नाम ‘होलाका-यज्ञ’ रहे। इहे होलाका बदलत-बदलत होरहा’ हो गइल बाटे। ओह घरी हर बरस में एक बेर ई यज्ञ होत रहे । अइसनो हो सकेला जे ओही के बिगड़ल रूप ई ‘होलिकादाह’ होखे । भारतवर्ष में हर जगह होलिका का आग में जव के बाल पकावल जालाकहीं-कहीं त होरहा खाए के भी प्रथा बाटे। भोजपुरी जनपद में ई पावन पर्व एही ढंग से मनावल जाला । इहो सुने में आवेला जे ओह आगि पर रोटी पका के खिअबला से पुरान से पुरान रोग मेट जाला।

शास्त्र में लिखल बा जे कात्तिक-माघ-बइसाख में खूब सबेरे नहइला पर पुण्य मिलेला । आ जे रोज ना नहा सके अंतिम दिन पूरनवासी के नहा के संतोष क लेला। ओइसही वसंत पंचमो से सुरुआत कके होली तक पाँच रंग रोज देवता पर चढ़ावे आ प्रसाद रूप में एक दोसरा के लगाने के भी बात शास्त्र में कहल बाबाकी रोज पार ना लगला से अंतिमे दिन देवता लोग पर चढ़ा के रंग अबीर उड़ावल जाला ।

भारतीय पर्व-त्योहार के एगो बारीकी इहो हवे जे ओकरा साथे स्वास्थ्य-रक्षा के भाव भरल रहेला । ईहो पर्व एइसे अछूता नइखे । जाड़ा का दिन में पसीना त होइबे ना करे । ठंडी का डर से कमे नहइबो करेला लोग । आ तेल के ब्यवहार खूब होला । कुल्हि मिला-जुला के कहेके ई बा जे देह में खूब मइल बइठ जाला जाड़ा के मोसम मे। जब होली के दिने खूबे कीचड़-राखी रंग अबीर आदि देह में लागी, लोग खूब तरह अच्छा से नहाई त देह के मइल जाड़ा के अन्त में छुटि जाई। जवन स्वास्थ्य खातिर बड़ा लाभदायक होई।

महादेवजी कामदेव के जरवले तs, बाकी ‘काम के प्रभाव उनहू का ऊपर परिए के रहल। कामदेव के साथी ‘वसंत’ हवें । ओही घरी से वसंत आवे के समय सब लोग के मन में मादकता भर जाला। काम वासना के प्रभाव तेज हो जाला ओइसे बने खातिर, कुछ हद तक भी, मर्यादा के पालन करे खातिर ‘भग’ आ ‘लिङ्ग’ के पर्यायवाची शब्दन के व्यवहार करत स्वतंत्रलापूर्वक खेले कूदे के परम्परा तत्कालीन मनोविज्ञान के जानकार विद्वान लोग चलावल । काहे जे अइसन शब्द कहला सुनला से मने में ‘काम’ के जोस दब जाला। मनोविज्ञान कहेला जे कामातुर आदमी एकांत मे जवन बात सोचेला, मन पारेला, उहे बात जो सबका सामने कहे-सुने लागे त मने में ओकर काम-भावना दबि जाई । शास्त्रो एह बात के समर्थन करत कहेला :

भग-लिङ्गाङ्कितैः शब्दैः क्रीडितव्यम् पिशाचवत्”

“भग आ लिङ्गवाचक” शब्दन के प्रयोग करत पिशाच का तरे खेले कूदे के चाही।

होलो के दिने सब भेद-भाव जाति-पांति, छुआ-छूत भुला के सबसे प्रेमपूर्वक मिले के रिवाज बाटे एकर मतलब ई बा जे पुरान बगिस ( संवत ) का सुरुआत में सब केहू प्रेम-भाव से रहो आ एही तरह से साल भर रहे के प्रतिज्ञा करो। एगो इहो मतलब बा जे एह दिन लोग विचार करो जे जाति-पाति कवनो खास मतलब से चलावल गइल होई । एकरा के अधिक महत्व ना देवे के। एही से न एह दिन “श्वपचस्पर्श” से अर्थात छूआछूत के रिवाज व्यर्थ करेके बात पात्रा (पंचांग) में शास्त्र का आधार पर लिखल रहेला

एह तरह से ई बात स्पष्ट हो गइल जे होलिका नाँव का राक्षसो का जरला से ओकरा तिरस्कार के स्मारक, प्रहलाद का सूरक्षा के स्मारक त ई पर्व बड़ले बाटे, ‘अडाडा’ नाँव का राक्षसी से लरिकन का बचाव का सफल योजना के स्मारको ई पर्व बाटे । साथ ही सम्वत के विसर्जनो के इयाद ई पर्व दिलावता । आदि आदि

एह पृष्ठभूमि में होली के बहुत-बहुत सांस्कृतिक महत्व बाटे। लोग का एही सन्दर्भ में होली पर्व के देखे के चाही आ मनावहू के चाहो।

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