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भोजपुरी कहानी अली मियाँ : डॉ. प्रभुनाथ सिंह

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भोजपुरी कहानी अली मियाँ : डॉ. प्रभुनाथ सिंह

अली मियाँ एगो संस्मरणात्मक कहानी बा। एह रचना में सामाजिक सद्भाव के आदर्श चित्रित बा।

डॉ. प्रभुनाथ सिंह के जन्म बिहार के सारण जिला के मुबारकपुर (मांझी) गाँव में 2 मई, 1940 के एगो किसान परिवर में भइले रहे। इनकर स्वनिर्मित व्यक्तित्व, अनुकरण के लायक बा। गरीबी के दंश झेलत इहाँ का अर्थशास्त्र में एम.ए. तक के पढ़ाई कइनी। पढ़ाई के बाद बिहार विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के विभागध्यक्ष पद तक पहुँचनी।

साहित्य में छात्र-जीवन से ही इनका गहिर अभिरूचि रहे। साहित्य का संगे-संगे राजनीति में भी इनका सफलता मिलल आ बिहार सरकार में राज्यमंत्री के पद पवलन अर्थशास्त्र के पुस्तकन का अलावे हिन्दी आ भोजपुरी में इनकर अनेक कृति बा। हीरा-मोती (काव्य-संग्रह), ‘इ हमार गीत’ (काव्य-संग्रह) ‘गांधीजी के बकरी’ (निबंध-संग्रह), ‘हमार गाँव : हमार घर’ (गद्य-रचना) आदि इनकर प्रसिद्ध रचना बा।

भोजपुरी कहानी अली मियाँ : डॉ. प्रभुनाथ सिंह
भोजपुरी कहानी अली मियाँ : डॉ. प्रभुनाथ सिंह

पता ना काहे, आज अली मियाँ के इयाद अनसोहातो बार-बार आ रहल बा। दशहरा के छुट्टी के बाद आठ-नव महीना पर गाँव आइल बानी। एक बीच गाँव में बहुत कुछ घटल-बढ़त बा। आवते-आवत, गाँव-घर के लोग कुशल-क्षेम पूछे खातिर दुआर पर टाट बन्हले बा। दशहरा आ गर्मी के बीच के लेखा-जोखा चल रहल बा- के मुअल, के जिअल, केकर बिआह भइल, केकर श्राद्ध, केकर बैल मुअल, केकर गाय बिआइल। एक-एक कर के सभ लोग सुन रहल बा, किसिम-किसिम के बेयानकाठ मार गइल, जब ई पता चलल कि अली मियाँ मर गइले। बिजली के झटका अइसन ई समाचार लागल, जइसे कि गाँव मर गइल, गाँव में केहू जिन्दा नइखे, सब कुछ जर के राख हो गइल। आँख डब-डबा गइल। केहू जीये खातिर नइखे आइल। बहुत लोग एह बीच गाँव में मुअल बा, लेकिन अधिक पीड़ा अली मियाँ के मुअला से काहे बुझाता जइसे आपन बाप मर गइल होखस।

मियाँ के चेहरा आँख के सामने नाच गइल- दुबला-पतला शरीर, साठ के पार के ढलत उमिर, चंडल माथ, हाथ में गोजी आ एक हाथ में थरिया-लोटा, घुटना पर ले धोती, देह में मिरजई आउर माथ पर पगड़ी। अली मियाँ के परिवार रहे, जात-पाँत से ऊपर, आपन घर नाम के चीज भी उनका ना रहे। एगो बाबूसाहेब के दलान में रहत रहनसम्पत्ति के नाम पर बस लोटा-थरिया, एगो चटाई आ कम्बल, बिछावन के लेवा, कुछ धोती आ मिरजई- मिलाजुला के एक मोटरी के सारा असबाब। भाँजा बान्ह के हर घरे एक टाइम भोजन करत रहलें। लोग उनका के श्रद्धा से खिआवत रहे। अपने सूखल-पाकल लोग खा लेबे; लेकिन जवना दिन अली मियाँ के खाये के दिन रहे, ओह दिन सुअन्न बने, बड़ा पसंद से। इंतजार रही अली मियाँ के आवे के आ जूठन गिरावे के। इयाद बाबचपन में लइकन में तहलका रही, आनंद कि आज अली मियाँ खाये अइहें आ कवित्त सुने के मिली। जवना घरे उनका भोजन करे के रही ओकरा दस-बीस कदम पहिले से ही उनकर कवित्त शुरू हो जात रहे

गहागड करो,
गहागड करो,
मिलाव गहागड, डोलाव गहागड।
गहागड करो, महागड करो
गहागड करो गहागड।

कवित्त कान में पड़ते झुण्ड-के-झुण्ड लइकन के दल टिड्डी अइसन मियाँ केचारो तरफ बटोरा जास। घर के सभे बइठ जाई आ बीच में अली मियाँ के भोजन चलत रही। भोजन समाप्त होते लइकन के गोहार- ‘अली बाबा एगो आउर कवित्त, अली बाबा एगो आउर कवित्त’ आ हो जइहें चालू एक बार आउर अली मियाँ अपना कवित्त का साथे ‘गहागड करो, गहागड करो…।’ एक हाथ में लोटा-थरिया आ एक हाथ में लाठी लेले कवित्त सुनावत आगे-आगे अपना डेरा के राह धइले अली मियाँ आ पीछे-पीछे लइकन के जमात उनका के ‘सी ऑफ’ करे खातिर

साल-छव महीना पर दोबारा कवनो घर में अली मियाँ के भोजन करे के भांज लवटत रहे। ँच-नीच, धनी-गरीब-सबका घरे बारी-बारी से अली मियाँ के भोजन होखे। आज ले कबहूँ केहू उनका के खिआवे में भार ना महसूस कइल। लोग का ईहे बुझाइल कि अली मियाँ के चरण अइला से घर पवित्र हो गइल। अली मियाँ ना हिन्दू रहले, ना मुसलमान, बस मात्र एक इंसान। लोग बेआन करे लागल कि जवना दिन अली मियाँ मुअले, गाँव के कवनो घर आँच ना बराइल। झमेला खड़ा हो गइल। मुसलमान लोग कहे कि अली मुसलमान के घर पैदा भइल रहले, एह से गाड़ल जइहें। हिन्दू लोग कहे कि अली मियाँ के शरीर में हिन्दू के अन्न के रक्त रहे, एह से अली मियाँ जरावल जइहें आ हिन्दू रीति-रिवाज से उनकर श्राद्ध करम होई। गाँव में पंचायत बटोराइल आ फसिला भइल कि अली मियाँ के लाश कब्र में दफना दिआव आ सोलह दिन का बाद हिन्दू रीति-रिवाज से उनकर श्राद्ध-करम कइल जाव।

सारा गाँव पइसा-अनाज एकट्ठा कर के बड़ा धूम-धाम से अली बाबा के श्राद्ध कइल। तीन दिन तक भंडारा चलत रह गइल। पूरा जवार जूटल। रामधुन, हरिकीर्तन, अष्टयाम सब कुछ बड़ा ठाट-बाट से सम्पन्न भइल। ‘कलियुग के कबीर’ के जीवन-लीला समाप्त हो गइल। सोचत-सोचत चेतना शून्य हो गइल। कहाँ जा रहल बा आज अली बाबा के गाँव-देश? धरती ऊहे बा : पहिले उगत रहे प्यार-भाईचारा, मिल्लत के बिचड़ा, आज ओही धरती पर उग आइल बा नफरत के रेंगनी के काँट, जवन डेग-डेग पर चुभ रहल बा, कर रहल बा तलवा लहुलुहान। बा कवनो अइसन संजीवनी बूटी, जवन कर सके अली मियाँ के फेर से जिन्दा ? गाँव के डगर पर सुनाई पड़े अली मियाँ के कवित्त
(गहागड करो गहागड करो, गहागड करो….)

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