भोजपूरी प्रदेश में यह व्रत ‘जिउतिया’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह व्रत पुत्र की प्राप्ति तथा उसके जीवन की रक्षा तथा आयुष्य के लिए किया जाता है। आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को इसका विधान बतलाया गया है। इस व्रत को प्राय वे ही स्त्रिया करती है जिन्हे पुत्र-रत्न की प्राप्ति हो चुकी है। इस दिन स्त्रियाँ प्रात काल गगा अथवा किसी अन्य नदी मे स्नान करती है तथा दिन भर निराहार तथा निजल व्रत करती है। बिना जल पीये दिन भर व्रत करना बडा कठिन काय माना जाता है। इस प्रकार व्रत रखने के प्रकार को ‘खर जिउतिया’ कहा जाता है।
सन्न्या के समय स्त्रिया सूत की बनी हुई ‘जिउतिया’ पहिन कर कथा सुनती है। घनी घर की महिलाये सोने की ‘जिउतिया’ गले में धारण करती है। हसुली के रूप मे चादी की ‘जिउतिया’ भी पहिनने की प्रथा है। इस व्रत को करने से पुत्र दीर्घाय होता है ओर वह आकस्मिक विपत्ति अथवा खतरे से बच जाता है। यदि किसी स्त्री का पुत्र भयकर आपत्ति अथवा किसी दुघटना से बच जाता है तब उसके विषय में कहा जाता है कि उसकी माँ ने ‘खर जिउतिया’ का व्रत किया था। इस दिन चील और सियारिन की कथा कही जाती है।
—डॉ० कृष्णदेव उपाध्याय जी के लिखल किताब भोजपुरी लोक-संस्कृति से
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