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गोधन

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गोधन

कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोधन व्रत मनाया जाता है। भोजपुरी प्रदेश में इस दिन गोबर से एक मनुष्य की प्रतिकृति बनाकर उसकी छाती पर ईंटें रखी जाती हैं और उसी को स्त्रियाँ मसल से कूटती हैं। इस प्रक्रिया को ‘गोधन कूटना’ कहते हैं। गोधन कूटने के पूर्व कहानियाँ कही जाती हैं और स्त्रियाँ भटकटैया, रेंगनी और चना लेकर घर भर के समस्त व्यक्तियों को शाप देती हैं जिसे ‘सरापना’ कहते हैं। वे घर के प्रत्येक व्यक्ति का नाम लेकर कहती हैं कि ‘अमुक को खाँव, अमुक को चबाँव’। घर के ही लोगों को नहीं बल्कि पास-पड़ोस के लोगों को भी वे इसी तरह ‘खाती और चबाती’ हैं। फिर अपनी जीभ को भटकटैया के काँटे से दागती हैं। इसके पश्चात् खील लावा और मिठाई आदि चीजें गोधन बाबा के स्थान पर भेजी जाती हैं। वहाँ ‘गोधन’ को कूटते समय स्त्रियाँ कहती हैं कि जिनको खाया चबाया है उन सबको ‘हनुमन्ते’ का बल हो। इस प्रकार ये सभी ‘मृत’ व्यक्तियों को जिलाती हैं। यह सब पूजन मध्याह्न के पूर्व ही हो जाता है। इसके बाद बहिन अपने भाई को मिठाई खिलाने के लिये जाती है। सर्वप्रथम वह उसे चना खिलाती है, पुनः विविध प्रकार के मिष्ठान्न देती है। भाई प्रसन्न चित्त होकर उसे रुपया अथवा गहने देता है। इस प्रकार यह व्रत समाप्त हो जाता है।

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‘गोधन’ शब्द ‘गोवर्धन’ का अपभ्रंश ज्ञात होता है। प्राचीन काल में गोवर्धन की पूजा का उल्लेख पाया जाता है। यही प्राचीन गोवर्धन पूजा इस विकृत ‘गोधन’ की पूजा के रूप में आज भी विद्यमान है। गोबर की बनी हुई मनुष्य की प्रतिमा वास्तव में इन्द्र की प्रतिकृति है। भगवान् कृष्ण ने इन्द्र के गर्व को चूर्ण किया था। अत: यह ‘गोधन कूटने’ की प्रथा इन्द्र के मद चूर्ण करने का प्रतीक है। परन्तु इस दिन स्त्रियाँ अपने प्रिय व्यक्तियों को मृत्यु का अभिशाप क्यों देती हैं। इसका रहस्य सुलझाना एक विषम पहेली है।

इस व्रत का प्रधान उद्देश्य भाई और बहिन में प्रेम भावना की वृद्धि है। इसी का वर्णन हम इन गीतों में भी पाते हैं। साथ ही गोधन के व्रत में जो विधि बरती जाती है जैसे प्रियजनों को अभिशाप देना, उसका भी उल्लेख पाया जाता है। भाई के लिए बहिन की यह शुभकामना कितनी सुन्दर है।

गोधन के गीत

प्रसंग: बहन की भाई के लिए शुभकामना। (गोधन गीत)

कवन भइया चलले अहेरिया,
कवन बहिनी देली असीस हो ना ॥१॥
जियसु रे मोर भइया;
मोरा भऊजी के बाढ़े सिर सेनुर हो ना ॥२॥
मोहन भइया चलले अहेरिया,
पार्वती बहिनी देली असीस हो ना ॥३॥
जियसु रे मोर भइया;
मोर भऊजी के बाढ़े सिर सेनुर हो ना ॥४॥

कौन भाई शिकार को गया है और कौन बहन उसे आशीर्वाद दे रही है। मेरा भाई जीता रहे और मेरी भावज के सिर का सिन्दूर बढ़े ॥१–२॥

मोहन भाई शिकार के लिए गया है, पार्वती बहन उसे आशीर्वाद देती है कि मेरा भाई जीता रहे और मेरी भावज सौभाग्यवती बनी रहे ॥३–४॥

प्रसंग: भाई-बहन का वार्तालाप।

नदिया के तीरवा कवन भइया खेले हो सिकार ।
कहि भेजवली कवन बहिना भइया हो हमार ॥१॥
कवन बिधि रहबों में भइया के ही मान ।।
कोठि बाड़े चउरा, पनबटवा बाड़े हो पान ॥२॥
भली बिधि रहिबों में भइया के रे मान ॥३॥

बहन कहती है कि नदी के किनारे मेरा भाई शिकार खेलता है । किसी बहन ने अपने भाई के पास कहलवा भिजवाया कि मैं किस प्रकार से रहूँगी ॥१॥

भाई ने उत्तर दिया–घर में, भण्डार में चावल रक्खा हुआ है तथा पनबट्टा में पान रक्खा हुआ है । उसे खाकर तुम अच्छी तरह से रहना ॥२॥
बहन ने कहा-हाँ, अब मैं अच्छी तरह से रहूँगी॥३॥

प्रसंग: गाँव के सब लोगों को मार डालने की किसी स्त्री की ईश्वर से प्रार्थना।

गाँव के गॅउवाँ हो कवन राम, उनह’ के दइव हर ले जाय ।
गांव के कयथा हो कवन राम, उनहू के दइव हर ले जाय ॥१॥
गाँव के सोनरा हो कवन राम, उनहू के दइव हर ले जाय ।
गाँव के बाभना हो कवन राम, उनहू के दइ व हर ले जाय ॥२॥

कोई स्त्री कहती है कि गाँव का मुखिया अमुक पुरुष है, वह मर जाय । गाँव का कायस्थ- लिखने का पेशा करनेवाला अमुक आदमी है, वह भी मर जाय ॥१–२॥

गाँव के सोनार को ब्रह्मा नष्ट कर दें तथा गाँव के ब्राह्मण को भी भगवान् मार डालें ॥३-४॥

गोधन के दिन स्त्रियाँ गाँव तथा घर के सब लोगों को मर जाने केलिए प्रार्थना करती हैं। उसी का इस गीत में वर्णन है।

प्रसंग: गोधन का जाना।

फालाना राम बहुरिया रूसल नइहर जासु ।
पाने फूले अझुरइले गोधन अकुताइल जासु ॥१॥
रामचन्द्र बहुरिया रूसल नइहर जासु ।
पाने फूले अझुरइले गोधन अकुताइल जासु ॥२॥

अमुक पुरुष की स्त्री रुष्ट होकर अपने मायके जा रही है। पान और फूल से असन्तुष्ट होकर गोधन भी शीघ्रता से चला जा रहा है ॥१॥

रामचन्द्र जी की स्त्री रुष्ट होकर चली जा रही है। पान और फूल से असन्तुष्ट होकर गोधन जल्दी से चला जा रहा है ॥२॥

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