गइलीं गाँव, गाँव से भगलीं | भगवती प्रसाद व्दिवेदी

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आजु उसे संसार विश्वग्राम बनि गइल बा । बाकिर एह विश्वग्राम में हमनीं के गाँव कहां बा? एक दशक पहिले गाँव के नांव लिहला पर नंदीग्राम अनसोहाते जबान प आ जात रहे, जहवां के किसानन के बेदखल क के उन्हनीं के उपजा जमीन औने- पौने दाम में व्यावसायिक इस्तेमाल खातिर सरकारी स्तर पर हड़पल जात रहे आ विरोध कइला प बेमउवत मुआवे के सिलसिला जारी रहे |सवाल उठत बा कि का देश में एके गो नंदीग्राम रहे ।आजु फेरु किसान चरचा में बाड़न कृषि विधेयक के लेके ।एमें पच्छ- विपच्छ के आपन आपन तरक बा, बाकिर एह में ना किसान के भागीदारी लउकत बा, ना गाँव के । का गाँव आपन भूमिका भुला गइल बा ?

कहल जात बा कि गाँव में केहू रहल नइखे चाहत । आखिर काहें? का सचहूं गाँव रहे लायक नइखे रहि गइल? पुन्नश्लोक कवि कैलाश गौतम हिन्दी में एगो कविता लिखले रहले–‘ गाँव गया था, गाँव से भागा ।’ का आजुओ पढुवा लोगन के गाँव से भगावे के साजिश नइखे कइल जात?

जब पढ़ल- लिखल नवही रोजी-रोटी के फिराक में गाँव छोड़िके नगर-महानगर . में छिछियाए खातिर अलचार हो जालन, तबहूं ओह लोग के दिल में गंवई इयाद के कीरा कुलबुलात रहेला, जवन बेर-बागर गांवें जाए खातिर मज़बूर क देला । बाकिर अब ओइसन गंवई मनई कहवां बाड़न, जवन जाते परदेसी बाबू के अंकवारी में बान्हिके नेह- छोह के सबूत पेश करसु!

लोग त शहर में जाए वाला के जइसे अपना बिरादरी से कुजात छांटि के अलगा कऽ देले होखे। खैर, जइसे तइसे नोकरी चाकरी में अपना जिनिगी के सोनहुला समय गंवा दिहला का बाद ओकरा के दूध के माछी नियर निकालिके बीगि दिहल जाला । उहो बेचारा सोचेला कि चलऽ हे मन ! अब गांवें चलिके बुढ़ारी के दिन चैन से काट !

बाकिर गांवें जात कहीं कि चैन नदारद ! अब उन्हुकर नांव धरा जाई– शहरी बाबू! अइसन कुचक्र रचल जाई कि उन्हुकर जीयल हराम हो जाउ । भाई- भउजाई, गोतिया-देयाद–सभ-के-सभ मुंह फुला ली । अच्छा! त आ गइले हिस्सा-बखरा लेबे ! केहू अपना घर के नाली उन्हुका दुआरिए पर बहावे लागी, त केहू मए कूड़ा-करकट उन्हुके अंगना भा दुआर पर फेंके लागी । खेत के डंड़ार तरिके उन्हुकर जमीन आस्ते- आस्ते दखलियावल जाए लागी। मुंह में अंगुरी डालिके बोलवावे के सरंजाम ! वन गीदड़ जइहें केने! अउर ना, त किछु ममिला- मोकदिमा में फंसा दिहल जाई । फेरु, यात थाना-पुलिस, कोट-कचहरी में चक्कर लगावत अझुराइल रहसु भा मए सम्पत्ति कड़ी के मोल बेंचि -बांचिके फेरु शहर का ओरि भागि जासु।

का भोला-भाला निश्छल गंवई लोग अतना बदलि गइल ? थोरहीं में निबाह करे वाला लोगन में रसरी के अंइठन नियर घुरचियाहपन आ पैंतराबाजी हवा से आ गइल?जब से गाँव न में मुखियागिरी भा परधानी खातिर गरदन कटउवल आउर सियासती दांवपेंच इस्तेमाल होखे लागल, सजगता के नांव पर ठगी, धूर्तई आ लफंगई बोलबाला हो गइल। नतीजतन, सोझ-साफ आ ईमानदार मनई के जीयल मोहाल हो गइल । का थाना, का ब्लाक, का कचहरी, का पंचाइत – हर जगहा दलालन के तूती बोले लागल आ सीधा-सच्चा लोगन के बोलती बंद होखे लागल। कतहीं जाति-धरम के जहर-माहुर, त कतहीं भाई-भतीजावाद आ बिरादरीवाद के बिखिधर । लुच्चा लफंगा आ सड़कछाप लोग कर्णधार बनिके लूट-खसोट में लिप्त हो गइल । ओने सरकारी महकमा के अफसर- बाबू-दलाल चानी काटे लगलन स । चकबंदी के नांव पर गरीब- गुरबा आ सांच-साफ लोगन के अपना खेत-बारी से बेदखल कइल जाए लागल।

गाँव, जवन कबो सरग मानल जात रहे, अब कई तरह के राजनीति कूटनीति- दुर्नीति में आकंठ डूबल रौ-रौ नरक के पर्याय बनल जा रहल बा । उहवां अब खाली अपना मतलब से मतलब रहि गइल बा । ना केहू के सुख-दुख से कवनो हमदर्दी, ना हितई-नतई, भर-भवद्दी, दोस्ती – इयारी के पहिले वाला प्रगाढ़ नेह-नाता। सवारथ सभकरा कपारे चढ़िके बोलि रहल बा आ सभ केहू धन आउर निसा के मद में डोलि रहल बा।

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गइलीं गाँव, गाँव से भगलीं | भगवती प्रसाद व्दिवेदी | भोजपुरी | जोगीरा

हालांकि देश के अधिकतर जोजना गांवें के विकास, शिक्षा, सेहत खातिर बाड़ी स, बाकिर ई अइसने लोगन के बानरबांट में ंट के मुंह में जीरा नियर टांय-टांय फिस्स होके रहि जात बाड़ी स। जब गांवों हुलास-उछाह, भाईचारा, प्रेमभाव के लोप हो जाई, त फेरु गाँव में रहिए का जाई! जहवां लूट-खसोट, रूढ़िवादिता, अंधविश्वास, आडंबर, सियासी छल- छद्म आ अभावग्रस्तता के वैतरणी बहत होखे, उहवां पंवरे ना जाने वाला आ पार ना पावेवाला अनजान मनई के त गाँव छोड़हीं के परी । फेरु त लवटिके बुद्धू जब वापिस शहर में अइहन, त उन्हुकरा कहहीं के परी – गइलीं गाँव गाँव से भगलीं ।”

जब बेटा के नइहर ह गाँव आ शहर-शहरात ह ससुरा, त आखिरकार नइहर से रोवत-बिलिखत ससुरा आवहीं के परी नू?

Note: इ रचना भगवती प्रसाद व्दिवेदी जी के लिखल किताब जइसे आमवाँ के मोजरा से रस चूवेला से लिहल गइल बा।

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