जिनगी के हर कोना के उकेरत भोजपुरी कविता संग्रह जिनगी रोटी ना हऽ

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आजु के जुग मे जहवाँ रिश्तन के जमीन खिसक रहल बा, अपनत्व के थाती बिला रहल बा, उहवें एकरा के जीयल, ऊहो जीवंतता के संगे, एगो मिशाल हऽ। जवने समय में मनई अपने माई भाषा के बोले मे शरम महसूस करत होखो, ओही समय मे अपना माई भाषा बोलल आउर ओहू से बढ़ि के ओह में साहित्य रचल एगो लमहर काम बाटे। अपना दूसरका भोजपुरी कृति ‘जिनगी रोटी ना हऽ‘ से कवि हृदय केशव मोहन पाण्डेय जी अपना के अपने माई भाषा खाति समर्पित कइले बानी। उनका समर्पण आ सेवा के परिणिती बा ई काव्य-संग्रह ‘जिनगी रोटी ना हऽ’।

भोजपुरी भाषा मे मिठास केहू से छिपल नइखे, एहू से बढ़के ई भाषा भोजपुरिया लोगिन के रग-रग में प्रवाहित होले। संस्कृति आउर संस्कारन से एकरा के बिलगाय के देखलों ना जा सकेला। ओही संस्कृति, संस्कार, राग-अनुराग, पे्रम, पीड़ा, आशा-अमरख के साथे केशव मोहन पाण्डेय जी के साथे भोजपुरी साहित्य के झोरी में एगो आउर रत्न के बढ़ोत्तरी के नांव ह ‘जिनगी रोटी ना हऽ’।

अपना एह कविता-संग्रह में केशव मोहन पाण्डेय जी आम मनई के जिनगी में घटे वाली कुल्हि बातन के जगह देले बानी। रोटी से ले के रार ले, राग से ले के राज-कुराज ले के सुन्नर चित्रण एह किताब में बा। भोजपुरिया क्षेत्र के सबसे लमहर पीड़ा “पलायन” से ले के रिश्ता-नाता, माई-बाबू, भाई-बहिन, प्रेम, पीड़ा, आस्था, गाँव-गिरांव, मजूर-किसान, आशा-निराशा, परिवार-समाज, कुल्हि पर आपन लेखनी चलवले बानी।
केशव मोहन जी खुदे एगो शिक्षक बानी, आज के समाज मे एगो शिक्षक के पीड़ा के उनुका से नीमन ढंग से दोसर ना बुझ सकेला । एकर एगो बानगी देखीं –

“लोग हमरा के
धरती पर बोझा कहेला
अब तऽ अति हो गइल भाई
अन्हें नाऽ
मुँहवे के सोंझा कहेला
तबो हम कहत बानी
मथमहोर ना हईं
हमरो आपन पहचान बा
कवनो चोर ना हईं।
हमार इतिहास बहुत पुरान बा
हमरे कारण अर्जुन, कर्ण, एकलव्य,
चन्द्रगुप्त, अशोक आदि के पहिचान बा।”

गाँव घर के छुटला के जवन दरद होला ओकरा के महसूस करत कवि मन दुखित होके कह रहल बा –

बाबुजी ना मारे ना छोड़ावेले भैया
सचहूँ बिसुकि गइल ललकी गैया
दुअरा के इनरा सूखल, सूखल बगइचा
बरम बाबा सूखलें, मिले नाहीं छैया।
टूटी गइल नेहिया के तार।।
छूटल, छुटि गइल घरवा दुआर।।

जहवाँ ए संग्रह मे आपन घर दुआर छूटे के पीड़ा बा, उहवें बिला रहल संस्कृति के दरदो बा। जहवाँ पानी के कमी क रोना सभे रो रहल बा, उहें आजु काल्हु के मनई आउर ओकरा सोच पर चोट करत “इनरा मरि गइल” मथेला कविता मे कवि कहले बानी –

लोग जागे लागल
आ इनरा भराए लागल
लइका-सेयान
सभे कुछ-कुछ रोज डाले
इनरा के सफाई के बात
सभे टाले,
अब इनरा के साँस अफनाए लागल
लोग ताली बजावे लागल
कि अब केहू बेमार ना होई।

भोजपुरी भाषा के बात होखो आउर लोकराग भा लोकधुन से कइसे अलग रहल जा सकेला।
कवि के लेखनी उहवों चलल बा आउर मजगुती से चलल बा –

“हमहूँ ते तहरे पर लुभा गइनी
बेली अस फुला गइनी
अपना के भुला गइनी हो
ए सँवरो
चाँन- सुरूज जइसन अँखिया से
हम भकुओ गइनी हो”।

जिनगी के छीजत संस्कारन पर कवि मन कइसे दुखी ना होई। अपने एही पीर के उकेरत कवि कह रहल बानी –

“अब केहू कवना मोनीया मे लुकवावे
रूप के एह गंठरी के
कुछु त नइखे कहल जा सकत
जमाना के नजरी के”।

कवि मन प्रेम से दूरी ना बना पवेला आउर ओके परिभाषित करे के लोभ से अपना के ना रोक पावेला –

“नेह से
रसगर होके
बज्जर रहिलो
अंखुवाये लागेला”

कवि मन आस्थावान होला ओकर धरम आउर मानवता से लगाव छुपल ना रह पावेला। गांवन के आस्था क प्रतीक बरम बाबा के कवि ना भुला सकल बा। उनुका बंदना करत कवि कह रहल बा –

खाली आस्था के छाँव ना हवें
जड़ के उदहारण
ना हवें खाल
जल के चढ़ावा के आसन,
हमरा गाँव के बरम बाबा
हवेंऽ
सबके चिंता करे वाला
प्रेम आ सेवा के
निष्ठा आ लोक-मंगल के
राजा के सिंहासन।

पारिवारिक रिश्तन खातिर कवि ढेर जागरूक बाड़ें। एही से एह कविता संग्रह मे माई के नेह के संगे दृसंगे बाबूजी के लाड़ प्यार आउर भाई बहिन के दुलारो बा –

हम ई सोच के सुख पाइले
कि उहें कारने
हमार नाव बा
हमरा बेर – बेर लागेला
कि हमरा मुड़ी पर
आजुवो बाबूजी के
असीस के छांव बा” ।

अपने माई भाषा भोजपुरी खाति कवि के प्रेम अगाध बा। एह संग्रह मे बेर बेर उ सोझा आइलो बा। ओहि मे से एगो उदाहरण देखल जाव –

“बीस करोड़ भोजपुरियन के
मन मे उमड़त आशा के जय ।
एक बेर जोर से बोलीं ना
भोजपुरी भाषा के जय।।

आजु के समाज मे नीमन से जिनगी चलाइब एगो लम्हर काम हे । हमरा त लागत बा कि समाज के हर एक मनई के पीड़ा कवि केशव मोहन पाण्डेय ढेर सिद्दत से महसूस कैले बाड़ें । हमरा हिसाब से एह काव्य संग्रह के नाँव “जिनगी रोटी ना हे” मथेला कविता से उ सभाके सोझा रखलहूँ बाड़ें । राउरो देखीं –

बनरी आ मोंथा के
जामहूँ ना देला जे
नेह के पानी सींच-सींच
गलावे सगरो ढेला जे
ऊहे मधु-मिसरी
रोटिया में पावेला
इस्सर-दलिद्दर के
सबके भावेला
ऊहे बुझेला असली
मन-से-मन के भाषा का,
ऊहे बुझेला असल में
जिनगी के परिभाषा का?

आजु जहां हर ओरई निराशा फइलल बा, उहें कवि आशा के दमगर जोत जला रहल बाड़ें । मनई के जिनगी मे बिसवास भर रहल बाड़ें ।

“जो जी जान से जुगुत करेब ते
सगरों बिपत धूरो हो जाई
तनि चाह के ते देखीं
राउर सगरो सपना
पूरा हो जाई ।“

कवनो रचना के कथ्य के ढ़ेर महातिम होला, पाण्डेय जी के भोजपुरी कविता संग्रह जिनगी रोटी ना हऽ कथ्य के दृष्टि से समृद्ध आउर प्राणवान बा। हर रचना एतना स्वाभाविक, भावपूर्ण आ समृद्ध हईं कि हम कवने के नीमन आउर कवने के बाउर कहीं, इ हमारा खाति संभव नईखे। एह संग्रह मे हर विधा मे रचना लिखाइल बाड़ी सन, कविता बा त गीतो बा आउर संगही संगे फ्रीवर्ष मे लिखाइल रचनों बाड़ी सन। सभके आपन आपन कथ्य बा, आपन महत्व बा आउर उ कूल्हि बात बा, जवन एगो काव्य संग्रह मे होखे के चाही।

भोजपुरी कविता संग्रह जिनगी रोटी ना हऽ कवि केशव मोहन पांडेय जी के भोजपुरी साहित्य जगत मे उचित स्थान दिवावे मे कवनों कोर कसर ना उठा के राखी। इहे हमरो शुभकामना बा आउर हम उनुके उज्जवल भविष्य के आग्रही बानी।

भोजपुरी कविता संग्रह “जिनगी रोटी ना हs” के समीक्षा के लेखक

जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
सलाहकार संपादक: ( भोजपुरी संगम )
सह संपादक : (गज केसरी युग – हिन्दी साप्ताहिक )
इंजीनियरिंग स्नातक;
व्यवसाय : कम्पुटर सर्विस सेवा
सी -39 , सेक्टर – 3;
चिरंजीव विहार, गाजियाबाद (उ. प्र.)
फोन : 9999614657

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