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छठ प लिखल अमरेन्द्र जी के एगो आलेख

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अमरेन्द्र जी

सुरुज चाहे सूर्य सिरिजन के देव चाहे भगवान। जिनिका अध्यात्म, संस्कृति, दरसन, विग्यान के बारे में ऋग्वेद से लेके रश्मि रथि तक कतने वैदिक अउर आधुनिक साहित्य के रचना कइल गइल बा।कलजुग में सुरुजदेव एगो असगरुआ देवता बानी, जवन रोज साक्षात दरसन दे रहल बानी। उ भी एक समान सभ के। काँट, कुस, करइली, कोहड़ा, कदम, कसाई, कमीना, कर्मठ, काजू, मइल, माँजल, मूरूख, मोख्तार, जीवा जनावर….चाहे केहू प।

छठ पूजा
छठ पूजा

जेकर बिस्तार समुचे ब्रह्माण्ड में बा। ओकरा बारे में जादा बिस्तार से लिखे के कूबत हमरा में नइखे। हमनी सब जानत बानी कि सुरुज आदिदेव हईं। हमनी के हजारन बरिस से भगवान भास्कर के पूजन अरचन छठ पूजा के रूप में करत आवत बानी। महाराज मनु से महाभारत काल आ आज तक इ ओही सारधा भाव से होत चल आवत बा। सुरज भगवान अन्न-धन, सुख, शांति, संपति आ सनमति देत बानी।

आजु हम परेआस करत बानी कि जानल जाव कि आदित देव में आस्था के भाव हमनी के भोजपुरी लोक साहित्य में कातना गहिड़ बा।

छठि मइया के पूजा में साफ सफाई आ सुधता के महत्व के बानगी एह पारंपरिक गीतन में देखल जाव:

काँपिय काँपिय बोलेली छठिय मईया,सुन ए सेवक लोगे।
मोरे घाटे दुबिआ जनम लेले, मकरी बिआइ गईले।
छमिय छमिय ए छठिय मईया, हम दुबिआ साफ करबो,
दूधवा से घटिआ धोआयब,चनन झिरिकाव करबो।

कातिक आवत आवत नाया केरा, मुरइ, अदरख, सुथनी सभ तरह के फल फूल भगवान आदित के परकास संसलेसन के किरीपा से फल फूल गइल बा।भगवान के चढ़ावे के बा। सभ चीझु अमनिया रहे के चाहीं।कवनो चिरईं चुरुंग किछु अपबितर मत करो। ए खातिर अगोरिया हो रहल बा। एगो भाव देखल जाव:

केरवा जे फरेला घवद से ओपर सुग्गा मड़राय
मरबो जे सुग्गवा धनुख से सुग्गा जहिहें मुरुछाय
सुगनी जे रोवेले बियोग से आदित होईं ना सहाय
आने कि सब के देव आदित देव।

दउरा में पूजा के समान, फल, फूल आ नैवेद्य ढ़कच के भरल बा। दउरा भार के मारे लचकत बा।एगो भाव देखल जाव:

कांच हि बांस के दउरवा,दउरा नइ नइ जाय।
केरवा जे भरले दउरवा दउरा नइ नइ जाय।

दउरा साथे गीति गावत परबइतिन घाट प चहुंप गइल बाड़ी। एगो भाव बा:

चारि चउखंड के पोखरवा ओमे घीव उतराय
पहिर ना अनजानो देई पियरीआ,भइले अरघ के बेर।
पहिरीं ना कवन बाबू पियरिआ,चलि अरघ दिआय।

सुरुज भगवान के अरघ देबे के बेर हो गइल बा।एगो भाव देखीं ओह घरी के:

उग उग उग ए सुरुजमल,अरघ दिआय
घाटे कोइरी के बेटिया मूरईया लेले ठाढ़।
आलता आ धागवा पनसारिन लेले ठाढ़।
मलनिया बिटिऊवा बाड़ी हार लेल ठाढ़।
धूपवा अछतवा ले ले ब्राह्मन पूत ठाढ़।
आरे हाली हाली उग ए सुरुजमल अरघ दिआय

बाकी अभी तक अरघ देबे के दूध नइखे आइल। अहीर के गाइ अभी दूहाइल नइखे। परबइतिन लोग धड़फड़ाइल बा। एगो भाव बा:

उग हो सुरुजमल उग हो सुरुमल
तोहरे किरीनिया बिनु गइया ना खाय,
भइले सुरुजमल अरघिया के बेरिया अहिरा बेटउवा नाहिं दूध दुहे जाय।

समुचा लोक साहित्य सुरज के पुत्रदाता मानेला, धिया-पुतर देबे वाला।
बहुरिआ नहा धोआ के सुरुज भगवान के जल देत बाड़ी।

ओह घरी के लोक भाव सोहर गीत में देखल जाव:

लहुरि बहुरिया नहाई,सुरुज पईयाँ पूजेली हे
ललना झिनी रे अँचरा फहराई,होरिल सुख मांगेली हो।

आदित से लगाइब हम अरजिआ करबि छठि परबिआ नु हे,
ललना कोपल फुटिहें गरभिया,करबि छठि परबिया नु हे।

होखते बिहाने पौ फटिहें, होरिलवा जनम लिहें हो।

बिआह के बहुत दिन बीत गईल बा। बाकि दुलहिन के आँचर अभी तक नइखे खुलल। सास उदास बाड़ी। ननद आ गोतिनी ताना मारत बाड़ी। मरद बहुते नाराज बाड़न।दुलहिन नईहर चल गइल बाड़ी।ओह घरी के भाव छठ गीत में देखल जाव:

असो के कतिकवा ए तिवई, कर आदित के पुजाय।
अगिला कतिकवा ए तिवई, होरिलवा सुख पाय।।

कातिक मासे लागे छठि पुजनिया, होखे बरत तेवहार।
तिवई मांगेली अन धन पूतरवा, करेली बरत तेवहार।

रूनुकी झुनुकी बेटी माँगिना, माँगि पंडितवा दमाद।

आ अन्त में:

सोने के महलिया आदितमल,चंदन लागल केवाड़।
मैया जगावे ए आदितमल,अब भइले भिनुसार
उठ उठ उठना आदितमल,बरती अरघिया ले ले ठाढ़।
अन्हरन के दीह अंखिआ,कोढ़िअन के काया।
मइया बाँझिन के बेटा दीह,निरधन के माया।
आदित के देई के अरघिया तिवई सुख सांति पाय।

अमरेन्द्र//आरा

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