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भोजपुरी संस्कार गीत

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भोजपुरी संस्कार गीत

परनाम ! स्वागत बा राउर जोगीरा डॉट कॉम प, आईं जानल जाव भोजपुरी संस्कार गीत के बारे में, इ आलेख किताब भोजपुरी काव्य चयनिका से लिहल गइल बा।

भारतीय हिन्दू जाति के जन-जीवन में परिवार का विशेष महत्त्व है। परिवार ही सामाजिक जीवन की प्रथम पाठशाला कही गयी है, जहाँ सामाजिक जीवन के विभिन्न संस्कारों का जन्म और संस्कार होता है। वैदिक ग्रन्थों में सोलह संस्कारों का वर्णन मिलता है, जिनका मुख्य उद्देश्य था-विभिन्न संस्कारों द्वारा मानव की प्रतिभा और योग्यता का पूर्ण विकास । भोजपुरी समाज में भी इन सोलह संस्कारों की मान्यता है किन्तु कछ प्रमुख संस्कार ही अब प्रचलन में हैं। वास्तव में हमारा पूरा हिन्दू समाज आदि से अन्त तक संस्कारों से ही बँधा हुआ है। इतना ही नहीं, जन्म से पूर्व भी गर्भाधान और पंसवन संस्कार कहीं-कहीं किये जाते हैं। ये संस्कार वैदिक काल से ही हिन्दू समाज में प्रचलित हैं।

भोजपुरी संस्कार गीत
भोजपुरी संस्कार गीत

आजकल भोजपुरी भाषा में जो लोकगीत मिलते हैं, उनमें संस्कार गीतों की संख्या सबसे अधिक है। धार्मिक भावनाओं से जुड़े होने के कारण संस्कार गीतों की संख्या की बहुलता का होना स्वाभाविक ही है। भोजपुरी संस्कार गीतों का प्रचलन प्रायः विभिन्न उत्सवों के अवसर पर अधिक देखने को मिलता है। धर्मशास्त्रों में जो सोलह, संस्कार गिनाये गये हैं, उनमें गर्भाधान और पुंसवन संस्कार भी सम्मिलित हैं, परन्तु आजकल ये संस्कार प्रचलन में नहीं रह गये। भोजपुरी संस्कार गीतों को भी कई उपखण्डों में विभाजित करके प्रस्तुत किया गया है

  1. पुत्र-जन्म संस्का
  2. मुण्डन संस्का
  3. जने संस्का
  4. विवाह संस्का
  5. अन्त्येष्टि संस्का

पुत्र-जन्म संस्कार

डॉ० कृष्णदेव उपाध्याय ने पुत्र-जन्म के समय होने वाले विधि-विधानों के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है”देहातों में न तो बच्चा जनने का कोई अस्पताल ही होता है और न शिशु-पालन की शिक्षा में दीक्षित धाय ही उपलब्ध होती है। ऐसे में देहाती का घर ही उसका अस्पताल है और गाँव की अनपढ़ एवं अशिक्षित चमाइन ही उसकी धाय है। जब स्त्री को प्रसवपीड़ा उत्पन्न होती है तो गाँव की बड़ी-बूढ़ी स्त्रियाँ बुलायी जाती हैं। वे समझ जाती हैं कि प्रसव-काल समीप आ गया है और वे स्त्री को धैर्य प्रदान करती हैं। जब बालक पैदा हो जाता है तो घर का कोई पुरुष गाँव की चमाइन (चमार की स्त्री) को जो धाय का काम परम्परा से करती आती है, बुलाने जाता है। वह तुरन्त आती है और बालक की नाल को काटने के लिए छरी माँगती है। धनी घरों में सुन्दर छुरी रखी जाती है। प्रत्येक माँ की यही कल्पना होती है कि उसके बच्चे की नाल सोने की छुरी से काटी जाय-
राम चइत अजोधा राम जनमलें हो रामा घरे घरे।
बाजेला अनघ बधइया हो रामा घरे घरे॥

रामा कथिके लकड़िये, पसंगी जोराइल हो रामा कथि छुरिये,
नरिया छिनइले हो रामा कथि छुरिये।
रामा चनन लकड़िये पसंगी जोरइले हो रामा,
सोने छुरिये, नरिया छिनइलें हो रामा, सोने छुरिये।

इन गीतों में सोने की छुरी माँगने का वर्णन होता है। जिस छुरी से धाय नाल काटती है वह उपहार-स्वरूप उसी को दे दी जाती है। इसीलिए वह चाँदी व सोने की छुरी लेने का विशेष आग्रह करती है।

सोहर

जिस दिन पुत्र पैदा होता है, उस दिन पृथ्वी भी आनन्दित हो उठती है। इसी अवसर पर जो गीत गाये जाते हैं, वे सोहर कहे जाते हैं। ‘सोहर’ की प्रथा बारह दिनों तक चलती है। सोहर-गीतों की विषय-वस्तु काफी व्यापक हैं। इसमें सरिया दोहद (साध), रोचना, पालना, कठुला, झुनझुना, खिलावन, बधाई लवारी और छठी आदि सभी प्रकार और सभी अवसरों के गीत गाये जाते हैं। सोहर गीत गाने से पहले स्त्रियाँ सदा देवी गीत गाती हैं।

डॉ० उदयनारायण तिवारी का कहना है कि-“सोहर के विकास की तीन अवस्थाएँ परिलक्षित होती हैं। सोहर की पहली अवस्था इसका प्राचीनतम मौलिक रूप है जिसमें यह मात्र लय पर आधारित पूर्णत: अतुकान्त गीत था, यथा-

मचिअहिं बइठल सास त बहुअर से पूछइहो
बहुअर काहें तोर मुँह पियरान त गोड़ थरथरावहिं हो।

सबसे पहले स्त्रियाँ शीतला माता के गीत गाती हैं, क्योंकि उन्हीं की कृपा से सबकुछ होता है।

निमिया की डाढ़ि मइया लावेली हिलोरवा कि झूली झूली ना।
मइया गावेली गीति कि झूली झूली ना॥

अन्नप्राशन के गीत

‘अन्नप्राशन’ की प्रथा भोजपुरी क्षेत्र में अब समाप्त प्राय है, लेकिन अवधी क्षेत्र में . कहीं-कहीं ये गीत मिलते हैं। बालक को सर्वप्रथम अन्न खिलाने को ही ‘अन्नप्राशन’ कहते हैं। मामा नये कटोरे में बच्चे को प्रथम बार अन्न खिलाता है। लोकगीतों में भाई के न आने की आशंका से चिन्तित कुलवधू का बड़ा हृदयग्राही चित्र मिलता है-

आजु मोरे लीपन पोतन औ अन्नप्राशन हो
सासु अरगन परगन, नैहर, सासुर औ अजियाउर और ननिआउर रे॥
अरगइन आइनि, परगन, ओ ननिआउर और अजिआउर हो।

सासु एक नहि आये बिरन भैया, कइसे जियरा बोधोरे
सासु भेटहिं आपन भइया, ननद आपन देवर हो।
सासु छतिया जे मोरी चेहरानि, मैं केहिं उठि भेटौरे ।
झमकि के चढल्यूँ अँटरिया, खिरिकियन झाँक्यो हो।
ननदी जनु भैया आवें पहुनैया, पगड़िया फहरावै रे।
दुवराइ घोड़ा हिंहियाने पथर घहराने हो।
बहुआ मिलिलेहु भैया वेदनैता, सोहर आव सुनो सगुन पर बैठो रे।

मुण्डन संस्कार के गीत

भारतीय संस्कृति में मुण्डन संस्कार एक आवश्यक अंग है। भोजपुरी संस्कृति में मुण्डन संस्कार का विशेष महत्त्व है। जन्म के बाद जब पुत्र कुछ बड़ा हो जाता है, तब प्रथम बार जब उसके केश काटे जाते हैं तो इस क्रिया को मुण्डन संस्कार कहा जाता है। यह बच्चे के प्रथम, तीसरे या पाँचवें वर्ष में सम्पन्न किया जाता है। गाँवों में तो घर में स्त्रियाँ बच्चे का श्रृंगार करके गंगाजी के तट पर ले जाती हैं, जहाँ सबसे पहले वे सब शीतला माता के गीत गाती हैं। उसी अवसर पर गाये जाने वाले गीत का चित्रण देखिये-

निमिया की डाढ़ि मइया लावेली हिलोरवा कि
झूलि झूलि ना।
मइया गावेली गीति की..
झूलि झूलि ना॥

इस गीत में स्त्रियाँ बच्चे की कुशलता के लिए गंगा मइया से प्रार्थना कर रही हैं। गंगा के किनारे नाई बच्चे के बाल काटता है, जिसे उसकी बुआ अपने आँचल में आटे की लोई पर लेती हैं। इसे भोजपुरी में लापड़ि ओड़ना’ कहते हैं। इसके लिए उसे (बुआ) को नेग भी मिलता है। इस अवसर पर एक गीत इस प्रकार है-

दादी के जनमल कवन फुआ, फुआ झालरि
परोछहु हो।
आज हमार मुंडन, नेग रउरा माँगहु हो॥

इसके साथ ही स्त्रियाँ नौका पर चढ़कर गंगाजी का ओहार करती हैं। इस समय भी गंगा का गीत व सोहर गाये जाते हैं-

सबकहु सुते गंगा कोठवा से कोठरिया, ए राउर सेवका
सुते बलुआ रेतवा, राउर सेवका।
सब केहु ओढ़े गंगा, सालवा-दोसालवा, ए राउर सेवका
ओढ़े महजलवा ए गंगा, राउर सेवका।

जनेऊ (उपनयन) संस्कार के गीत

‘जने’ शब्द यज्ञोपवीत का अपभ्रंश रूप है। इसे ही ‘उपनयन संस्कार’ भी कहते हैं। उपनयन शब्द का अर्थ है-‘वह संस्कार या विधि जिसमें विद्यार्थी को गुरु के समीप लाया जाता है’, ‘उपनीयते गुरुसमीपं प्राप्यते अनेनेत उपनयनम्।’ प्राचीन काल में इस संस्कार के बाद बालक को गुरु के पास आश्रम या गुरुकुल में विद्यार्जन के लिए भेज दिया जाता था।
इसलिए इस संस्कार को ‘उपनयन संस्कार’ कहते हैं। भारतीय समाज में  ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्गों के लोगों को जने या यज्ञोपवीत धारण करना अतयन्त आवश्यक है। परन्तु वर्तमान समय में ब्राह्मण समाज के अलावा इसे और दूसरा कोई वर्ग धारण नहीं करता। मनु ने लिखा है कि मनुष्य वैसे तो जन्म से शूद्र ही होता है परन्त इस उपनयन संस्कार के बाद ही द्विज कहलाता है।

जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते।

इस संस्कार में प्रयुक्त होने वाली सामग्रियाँ बड़ी कठिनता से प्राप्त हो पाती हैं जो इस प्रकार हैं-साही का काँटा, मृगछाला, पलाश का डण्डा, पूँज की रस्सी, खड़ाँ आदि। उपनयन संस्कार के लिए मण्डप छाने अपने सगे-सम्बन्धियों आदि को आमन्त्रित किया जाता है, जिसका उल्लेख इस गीत में स्पष्ट दिखायी देता है-

बाबा हो कवन बाबा, मड़उआ छाइ मोहिं देहू।
भींजेला मोरा राजा के कुँवर, चादर तानु ऐ॥
चाचा हो कवन चाचा, मड़उआ छाइ मोहिं देहु।
भींजेला मोरा राजा के कुँवर, चादर तानु रे॥
भइया हो कवन भइया, मड़उआ छाइ मोहिं देहू।
भींजेला मोरा राजा के कुँवर, चादर तानु रे॥
काँचहि बँसवा कटाइले, छातवा बिनाइले ए।
धेरे धेरे छतवा घुमाइले, सभे रे मिलि आवसु ए॥
कहेली कवन देइ ना जाइब, नउजी मड़वा सोभहु ए।
कहेली कवन देइ हम जाइब, भइया मोरे अकसरु ए॥

उपनयन संस्कार के विषय में ऐसी मान्यता है कि ब्राह्मण का यज्ञोपवीत (जने) संस्कार वसन्त ऋतु में, क्षत्रिय का ग्रीष्म ऋतु में और वैश्य का शरद ऋतु में होना चाहिये। इसलिए ब्राह्मणों के यहाँ जो यज्ञोपवीत या उपनयन संस्कार होता है वह फागुन या चैत्र मास में ही होता है।

विवाह संस्कार

भोजपुरी समाज में विवाह एक धार्मिक और दैवी संस्कार माना जाता है सामाजिक साझेदारी नहीं। इससे उच्च मूल्यों को पाने की कामना रहती है। अन्न-दान और सोना-दान से भी बढ़कर ‘कन्यादान’ है
अन्न दान के दान ना कहीं, सोना-दान जगदीस जी।
कन्यादान उतिम बड़ बाबा, जाहु मन राखउ ज्ञान जी॥

कन्यादान करने से आदमी सोरह सीढ़ी ऊपर चला जाता है। उसके सभी पाप कट जाते हैं। यह सब लोक का दृढ़ विश्वास है। लड़की का विवाह एक बार ही होता है और वह सम्बन्ध अटूट होता है। हमारे यहाँ अहीर आदि जातियों में यदि लड़की विधवा हो जाय तो दूसरा विवाह भी होता है, किन्तु वह केवल लाचारीवश।

इनरा त रहीतू बेटी फेनु से खेनइती।
समुन्दर खोनबलो ना जाइ॥
पुतवा न रही तू बेटी, फेनु से बिअहितो।
घियवा बिअहलो ना जाइ ।

आजकल कुछ कुत्सित बुद्धि के लोग विवाह के नाम पर बेटी को बेचते हैं। इसी सम्बन्ध में एक भोजपुरी लोककवि भिखारी ठाकुर ने ‘बेटी बेंचल’ नाटक की रचना की। उसे उन्होंने मंचित भी किया जिसमें लड़की जब रो-रोकर विलाप करने लगती है और अपने पिता से कहती है कि सौदा करने में आप ठगे गये हैं। मैंने कौन-सा कसूर किया है कि आपने ‘बुढ़’ से मेरा विवाह कर दिया-

कवन कसुर कइनी बुढ़उ से विवाह कइल।
सउदा करे में काहे ठगइल ए बाबू जी॥
साक से भरल मरी, छाड़ा होखे घरी घरी।
मुँहवा में दाँत नइखे, भतवो कुँचात नइखे।
डाँटा लेके रहिया पर चलेले हो बाबू जी।
अँखिया से लउके नाहीं, कनवों से सुने नाहीं।
गतर गतर के चाम झूलेला हो बाबू जी।
बाभना के पोथी जरी, नउवा के डाँड़ टूटी। अ
गुआ के मुओ जेट पुतवा ए बाबू जी।

वरक्षा

वर ढूँढने की प्रक्रिया के बाद शुभ दिन देखकर लड़की का पिता अपने ब्राह्मण और नाई के साथ वर के यहाँ वरक्षा करने जाता है। इसी संस्कार को भोजपुरी में छेका कहते हैं। अर्थात् वर को निश्चित किया। यथाशक्ति गौरी-गणेश की पूजा-अर्चना होती है। लड़की का पिता लड़के के हाथ में कुछ रुपये देकर इस संस्कार को सम्पन्न करता है, जिसका अर्थ है कि विवाह सुरक्षित हो गया।

विवाह सुरक्षित होने के उपरान्त अपने घर में पड़े सुगना से एक दिन लड़की की माँ कहती है कि ए सुगना, किसी समय तुम समधी के देस चले जाते और उनके रहन-सहन व चाल-व्यवहार को देख आते। लड़की की माँ की इस भावना को लोककवि ने बड़े ही मधुर ढंग से अभिव्यक्त किया है-

जइहे ए सुगवा समधी के देसवा देखी अइले चाल व्यवहार।
सभवा बइठल उनुकर ससुर देखलीं सोनवा जे जोखेला सुनार जी।
मचिया बइठल उनुकर सासू के देखलीं, दूनों काने ऐरन झुलाई जी।
राम रसोइया उनकर सोने के गेंहुअवा हो पनिया जे. भरेला कहार जी।
एतना ही चीज उनुकर ससुर घरे देखलीं देखी अइली चाल व्यवहार जी।
ँच ही खेते बेटी काकर बोवनी ना जननी तीत की मीठ जी।
ँच ही नाहीं बेटी तोहरा के बियहबो ना जानी दुख की सुख।
कुइयाँ जो रहती बेटी फिर से खनवती, समुद्र खनवलो ना जाए जी।
सोनवा त रहतू बेटी फिर से तोड़वती हो, हीरवा तोड़वलो ना जाए जी।
पूतवा त रहतू बेटी फिर से बियहती, धियवा बियहलो ना जाए।

तिलक

लड़की वाले अपने भाई-बन्धु, नाई और ब्राह्मण समेत लड़के वाले (वर-पक्ष) के यहाँ जाते हैं। तिलक की तैयारी भी बहुत जोर-शोर से होती है। अधिक तिलक लेने तथा अपने वैभव के प्रदर्शन के लिए यह होता है। लड़की का भाई लड़के का तिलक कर उसके हाथ में रुपया, जने, डाँडा, नारियल, फल, मेवे, मिठाई, पाँच पान सुपारी, कसैला, और सवा सेर हल्दी में रँगा हुआ पीला चावल आदि चढ़ाया जाता है। प्रायः तिलक के लिए आपस में (वर-पक्ष-कन्या-पक्ष) तकरार भी होती है।

तिलक जे गनेले, कवन बाबा झनक-पटक करे।
मोर बाबू पढ़ले पंडितवा, तिलक बाड़ा थोर भइले।
अमुक राम हवनी ठगहरिया, बाबू मोरा ठगि लीहले।

इस विधि को ‘तिलक चढ़ाना’ कहते हैं। आजकल इसी विधि को ‘तिलकोत्सव’ की संज्ञा दी जाती है। इस अवसर पर वर-पक्ष के लोग कन्या-पक्ष के लोगों और अपने नाते-रिश्तेदारों को यथासम्भव अच्छा भोजन कराने की व्यवस्था करते हैं। स्त्रियाँ वर के माथे को चूम-चूमकर आशीष देती हैं। इसी अवसर पर लोककवि ये गीत की पंक्तियाँ लिखते हैं-

माथवा चुमीय चूमी देली असीस हो।
जियाजु अमुक सुहवा लाख बरीस हो।
जियसु अमुक दुलहा लाख बरीस हो।

मटिकोड़ा, हरदी

जने की भाँति ही विवाह से दो-तीन दिन पूर्व शुभ समय पर मटिकोड़ा, हरिस गाड़ना तथा हल्दी की विधि सम्पन्न होती है। भाइयों को भोज दिया जाता है। रात में जा औरतें गीत गाने आती हैं, उन्हें तेल लगाया जाता है। माँग बहोरी जाती है। प्रति दिन औरते साँझा पराती मनाती हैं। उसी मटिकोड़ा और हरदी के अवसर पर गाये जाने वाला यह गीत है-

माटी खोने गइलो रे ओ ही मटिखोनवा,
देवरवा पापी, धइ लीहले मोरि बहिया रे देवरवा पापी ॥
छोडु-छोडु देवरा रे हमरो कलइया,
से फूटि रे जइहें ना, सहानी रंग के चूरिया,
से फूटि रे जइहैं ना॥

नहछू-नहावन, वस्त्र-धारण

जने के समान ही नहछू-नहावन की विधि सम्पन्न होती है। उसके बाद वर को उसके जीजा गुलाबी रंग में रंगा हुआ कुर्ता तथा पीले रंग की धोती आदि पहनाते हैं। उसी पर एक लोककवि द्वारा लिखा गया यह गीत देखिये-

धोती पेन्हो, धोती पेन्हो कवन दुलहा, आरे तोरी
धोतिया बोलाड़े गबड़।
कइसे में धोती पेन्हो आपन सासु हो, मोरे बाबा
लोगवा ओसे भीजे तमू भीतर ॥

वर को पगड़ी बाँधी जाती है, चन्दन लगाया जाता है, जिससे वह बहुत सुन्दर लगता है-

दुलहा के माथे पगिया भल सोभ,
पगिया में कलँगी छिपाये ए दुलहा।
दुलहा के लीलारे चनन भल सोभे,
चनन में रोरी छिपाये ए दुलहा॥

इमली घोंटाना

वस्त्र-धारण के बाद श्रीवर को उनकी माँ गोदी में लेकर बैठती, लडके का मामा पीले वस्त्र और रुपये अपनी बहन को देता है। लड़का आम की पत्ती की मेंटी काटकर माँ के हाथ में देता है। इसके साथ उसका मामा अपनी बहन को पानी पिलाता है। इसी विधि को ‘इमली घोंटाना’ कहते हैं। इसी अवसर पर गाये जाने वाले गीत की कुछ पंक्तियाँ देखिये-

सोने के खड़उवा कवन भइया, चटर-पटर करे हो।
काहाँ बाड़ी बहिना हमार, त इमिली घोंटसू हो॥
हाथे बाड़ी रुपया दुआरे धेनु गइया।
इमिली घोंटावले, अमुक देई के भइया॥
गिरि गइल रुपया, लजा गइलें भइया।
भागल जाले दुअरा अमुक देइ के भइया॥

परिछन (परछावन) एवं बारात का प्रस्थान

हाथी, घोड़ा सजाकर बहुत ही धूमधाम से बारात चलती है। खूब बाजे बजते हैं। इस विधि में घर से कुछ दूर जाने पर पाँच स्त्रियाँ वर को चन्दन का टीका पाँच बार लगाती है लोढ़ा से परिछन करती हैं। जिन स्त्रियों को यह विधि करने का अवसर मिलता है, वे अपने को भाग्यवान समझती हैं। इस अवसर पर गाये जाने वाला यह गीत इस प्रकार है-

रामचंद्र चलले बियाहन, रिमझिम बाजन हो।
आहे धाई कहे नउवा से बारी कहाँ दल उतरले हो
धन सुहुइया धन पीपर आले बाँसे छाजन हो।
आहे जहाँ बहे सीतल बयार, उहें दल उतरले हो।
सासू चलली परीछन सोने के आरती कवन वर सुंदर हो।
जिनिकर माथे मउर सोभे, लिलरा चंदन सोभे हो।
आहे उहे बर के आरती उतार, उहे बर सुन्दर हो।
भइले विवाह फटफाटे कोईलिया एक बोलेली हो॥
आहे खोलली सासू सोबरन त राम जइहें कोहबर हो।
आहे मोरो सीता लड़िका के बारी बोलहिं नाहीं जानस हो।
रउरो सीता लड़िका से बाटी, बोलहूँ नाहीं जानसु हो।
आहे हमहूँ कमलवा के फूल दूनों मिली बिहसब हो।

परिछन करहिं चले वर कामिनि, अरसी सिन्होरा हाथ जी।
पहिले में परिछों माथ के भउरि, तक वर तिलक लिलार जी॥
हाते मउरि भइया गिरि परलि, परिछे ले वर के लीलार जी।
परिछत परिछत हाथ खियइलें, देखत नयन जुड़ासु जी॥
केई लीहें अरिछन, केई लीहें परिछन, केई लीहें लोरहा हाथ जी।
भाई लीहें अरिछन, बहिनिया लीहें परिछन भउजी लीहें लोरहा हाथ जी॥

नहछू-नहावन व इमली घोंटावल

जब वर का नहछू-नहावन होता है, तभी वहाँ का नाई उसमें से पानी ले लेता है, वही पानी कन्या के लिए आता है। इस विधि को ‘सनेह का पानी’ कहते हैं, जिस मिलाकर नहछू-नहावन की क्रिया सम्पन्न होती है। लड़की का मामा अपनी बहन का ‘इमली घोटाता’ है। वर-कन्या एक होने जा रहे हैं, यह प्रथा इसी भावना को दर्शाती है। इसी समय कनियाई पीली साड़ी वर-पक्ष के यहाँ से आती है।

गुरहथी

वर का बड़ा भाई दुल्हन को गहने तथा साड़ी देता है। इस विधि को ‘गुरहथी’ कहते हैं। क्योंकि अपने से बड़े लोगों से उपहार मिल रहा है। वह दुल्हन उसकी भवह लगेगी। उससे भय करेगी। भोजपुरी में बड़ा भाई अपने छोटे भाई की पत्नी को छूता नहीं, वह उसके सामने नहीं आती। यह वर्जित है-

आजू की राति भसुर भवहि छूवत बाड़े, छुआवत बाड़े,
कानि आँखि मटकावत बाड़े, गरदनि हिलावत बाड़े।

मड़वा

विवाह के अगले दिन समधी मड़वा में आते हैं, दुल्हन को साड़ी देते हैं। नाड़व का बाँध खोला जाता है। इस विधि को मड़वा कहते हैं। समधी मड़वा का बाँध खोलने के लिए दहेज की माँग करते हैं। भोजपुरी में लड़की का पिता छोटा और लड़के का पिता बड़ा माना जाता है। इसी मानसिकता को एक लोककवि ने अपने गीत द्वारा कुछ इस तरह प्रस्तुत किया है-
रउरा त समधी जी बुद्धि के सागर हम काहाँ निपट गँवार
समधी जो चउका पर जूठ गिराई, अति बड़ भागी हमार।

कोहबर

अब दोनों को कोहबर में लाया जाता है, जहाँ पर देवी की पूजा होती गोदी में एक छोटी बच्ची को बिठाते हैं। यह इस बात का प्रतीक है कि इसी तरह इनकी गोद में बच्चा बैठे। यहाँ पर फिर वही बात दोहरायी जाती है कि लड़के को उसकी साली, सरहज और सास ने अपने वश में कर लिया है। और यह गीत गाती हैं-

असली जोगिनिया सासु मोरी, सुनु रे माईं।
अपना दामाद के भोरावे, सुनु रे माई॥
गदहा के बोली में बोलावे सुनु रे माई।
असली जोगिनिया सरहजिया मोर, सुनु रे माई॥
अपना ननदोइया के भोरावे सुनु रे माई॥
बिलरिया के बोली में बोलवाये, सुनु रे माई॥

उसके बाद किसी शुभ दिन को नदी के किनारे घर की स्त्रियाँ कंगन छुड़वाने वधू को लेकर जाती हैं। वर छाता, कजरावटा लेकर जाता है। वह गाँव के देवताओं के यहाँ कोकड़उरि बुदिया चढ़ाता है और उनसे आशीर्वाद माँगता है और स्त्रियाँ गीत गाती रहती हैं। एक लोककवि द्वारा प्रस्तुत एक गीत देखिये-

घूमत-घूमत में अइलो गंगा माई के आवास,
देई ना गंगा माई आपन आसीस॥
लेहु ना अमुक दुल्हा गमछी बिछाइ,
लेहु ना अमुक सुहवा आँचरा डसाइ।

उसके बाद वर-वधू को वापस लाया जाता है और फिर घर पर गौरी-गणपति की पूजा की जाती है। कन्या के कंकन को खोल लिया जाता है और उसे कंकन की माँ एक साल तक अपने गले में बाँधकर रखती है। और फिर इसके सगे-सम्बन्धियों को भोज दिया जाता है।

गवना

लड़की की विदाई का दूसरा रूप जो भोजपुरी क्षेत्र में प्रचलित है वह यह है कि लड़कियाँ विवाह में विदा न करके कुछ समय बाद विदा की जाती हैं, जिसे ‘गवना’ कहते हैं। गवना के सन्दर्भ में डॉ० उपाध्यायजी ने पर्याप्त विस्तार से प्रकाश डाला है. जिसे हम यहाँ अविकल उद्धृत कर रहे हैं।

‘गवना’ शब्द संस्कृत के ‘गमन’ का अपभ्रंश रूप है जिसका अर्थ जाना है। इस दिन लड़की पिता के घर से चली जाती है-विदा हो जाती है इसलिए इसे ‘गवना’ कहते हैं। कुछ लोग विवाह के दूसरे दिन ही बारात के साथ लड़की की विदाई कर देते हैं परन्तु जिनके यहाँ यह प्रथा नहीं है वे गवना करते हैं। गवना विवाह के पहले, तीसरे पाँचवें अथवा सातवें वर्ष अर्थात् विषम वर्षों में होना माना जाता है। पहले जब छोटे-छोटे लड़के-लड़कियों का विवाह होता था उस समय तीन, पाँच या सात वर्ष के बाद गवना कराना आवश्यक था, जिससे वर-कन्या वयस्क हो जायँ, परन्तु आजकल युवकयुवतियों का विवाह होने के कारण गवना एक वर्ष के भीतर ही हो जाता है।

गवना भी विवाह के समान धूमधाम से किया जाता है। गवना के समय वर का पिता वधू को लाने नहीं जाताअपनी पुत्रवधू का रोना सुनना उसके लिए निषिद्ध है। ऐसी दशा में वर, घर के अन्य लोग एवं कुटम्बी ही जाते हैं। गवना के समय गाजा-बाजा, पालकी-नालकी, हाथी-घोड़े सभी जाते हैं परन्तु इनकी संख्या थोड़ी होती है। निश्चित तिथि को वर पक्ष के लोग आते हैं और कन्या की विदाई करा कर ले जाते हैं।

पुत्री की विदाई के अवसर पर गाये जाने के कारण इन गीतों में वियोग की धारा अविच्छिन्न रूप से बहती है। विवाह के गीतों में जहाँ आनन्द, उल्लास एवं परिहास का वर्णन है वहाँ गवना के गीतों में विषाद का दृश्य दीख पड़ता है। कहीं भाई अपनी बहिन की पालकी के पीछे-पीछे रोता जाता हुआ दिखायी पड़ता है तो कहीं बहिन अपने भाई, माता एवं पिता के वियोग के दुःख से दुःखी होकर रोती-कलपती, बिलखती चली जाती है। कहीं पुत्री की माता अपने जमाता से प्राणप्यारी पुत्री को आदर के साथ रखने तथा उससे प्रेम करने का उपदेश देती है तो कहीं पुत्री के भावों, वियोगजन्य दुःख का अनुमान कर विलाप करती है। सारांश यह है कि इस अवसर पर जिन विषयों का वर्णन किया गया है वे सभी करुण रस से ओत-प्रोत हैं।

पुत्री की विदाई का यह दृश्य कितना मार्मिक है। इसमें माता-पिता, भाई-बहन सभी विह्वल होकर रोते दिखाये गये हैं। परन्तु भावज की आँखों में आँसू की एक बूंद भी नहीं है।

केकरा ही रोवले गंगा बढ़ि अइली,
केकरा के रोवले अनोर।
केकरा ही रोवले चरग धोती भीजे,
केकरा नयनवा ना लोर
बाबा के रोवले गंगा बढ़ि अइली,
आमा के रोवले अनोर।
भइया के रोवले चरन धोती भीजे,
भऊजी नयनवाँ ना लोर

इन पंक्तियों में पुत्री के प्रति पिता की कितनी ममता भरी पड़ी है। कालिदास ने शकुन्तला की विदाई के अवसर पर कण्व को भी रुलाया है।

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