भोजपुरी लोकगीतों में व्यक्त दुःख

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भोजपुरी लोकगीतों में ऐसे भी गीत गाये जाते है जो पाषाण से पाषाण हृदय की करुण भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति होती है विदाई, वियोग तथा मृत्यु के गीत दुःख से सम्बन्धित है। ये दुःख इतना असहनीय होते है कि ग्रामीण लोग इसे गीतों के रूप में गाकर एक दूसरे से अपने दुःखों को बाँटते है।

विदाई के गीत:-

विदाई के गीतों में वियोग, विषाद और विछोह के कारण करुणा की त्रिवेणी प्रवाहित होती हैं। अपनी प्राण प्यारी पुत्री की विदाई के अवसर पर माता-पिता के रोने का दृश्य बड़ा ही हृदय द्रावक होता है-

बाबा के रोवेले गंगा बढि अइली आमा के रोकले अनोर।
भइया के रोवले चरन धोती भीजे, भऊजी नयनवांना लोर।।

विवाह के पश्चात् वर अपनी पत्नी को पालकी में बैठा कर ले जाने के लिए आग्रह करता है परन्तु रोती हुई बहन का भाई पालकी को रोक लेता है और कहता है कि मैं अपनी बहिन को नहीं जाने दूंगा-

आठ ही काठ करे डडिया नेतवे लागेला ओहार।
कानावेले कवन राम डहिया, बहू चढ़ि चल रे हमार।
ढकेले कवन भइया इंडिया, बहिना जाये ना देबि।।

भोजपुरी लोकगीतों में व्यक्त दुःख
भोजपुरी लोकगीतों में व्यक्त दुःख

कन्या की विदाई के पश्चात् माता-पिता का करूण क्रन्दन पुनः प्रारम्भ हो जाता है पिता द्वार पर बैठकर तथा माता आँगन में बैठकर विलाप करती है-

“दुअरा भूलिए भूलि बाबा जे रोवेले,
कतहीं ना देखिले हो बेटी, नूपुरवा हो तोहार।।
अँगना भूलिए भूलि आमा, जे रोवेली,
कतहीं ना देखिला ए बेटी, रसोइया झाझाकाल।।

एक अन्य गीत देखिए जिसमें माता बेटी की विदाई कराकर मायके लाने के लिए सबसे कहती है-

आरे रोवेली माई अरू धिया, भीजेला रे पटुक
आरे चुप होखु चुप एबचवा, चुप होखु रे
आरे पाछे से पठइबो रे बचवा, सहोदर जेठमाई।।

ससुराल में अपनी पुत्री के भावी दुःख की आशंका से पीड़ित होकर कोई माता बहिन के पास जाने वाले अपने पुत्र से कहती है कि तुम लोग मेरी समधिन से जाकर मेरी प्रार्थना कह देना कि वे मेरी पुत्री की प्रातःकाल गाली न देगी और पैरो से न मारेगी-

सुन-सनु लोकनी, सुनहु जेठ माई।
कहिह समधीनि आगे अरज हमारी।।
लाते जनि मरिहे पाराते जनि मारी।
आरे काँच ही निनिये, जनि जगइहैं मोरी दुलारी।।

वियोग के गीत :-

वियोग के गीत हृदय-द्रावक एवं असहनीय होते हैं। किसी स्त्री का पति बाहर जा रहा है जिससे उसकी पत्नी दुःखी है। उसके हृदय की व्यथा देखिए-

अब के गइल कब अइबू हो धनि। रोई-रोई अँखियाँ
आधी उमिरिया कानो किचवा, आधी उमिरि लड़िकइयाँ हो।
धनि रोई रोई अँखियाँ ।।

पति के वियोग में केवल स्त्री ही नहीं रो रही है अपितु उसका वियोग पशु और पक्षियों को प्रभावित किये बिना नहीं रहता-

घरवा रोवे घरिनो ए लोमिया
बाहरवा राम हरिनिया।
दाहावा रोवे चकवा चकइया,
विछोहवा कइले निरमोहिया।।

जेवना ना जेवे राजा, गइले विदेसवा,
बिसराई, गइले ना, अपना नाजों के सुधिया।।
सूखि गइले ताल, सूखि गइले पोखरा झुराई गइले ना
हरि बिनु मोर करेजवा, झुराई गइले ना।।

एक अन्य गीत देखिए जिसमें प्रियतम के वियोग में व्याकुल स्त्री उसे खोजने के लिए घर से बाहर निकल पड़ती है परन्तु कहीं भी उसका पता नहीं चलता-

आजु के गइल भँवरा, कहिया ले लवटब,
कतेक दिनवाँ, हम जोहिब तोरी बटिया।।
कतेक दिनवाँ।
गनत गनत मोरी अंगुरी भइल खियानी,
चितवते दिनवाँ, नैना से दूरे लोरवा।।
चितवते दिनवाँ।
एक बने गइली दोसर बन गइली,
तीसरे बनवाँ, मिलता गोरू चरवहवा।।
तीसरे बनवाँ।
गोरू चरवहवा तुही मोर भइया,
कतहु देखल ना, मोर मँवरवा परदेशिया।।
कतहु देखल ना।

वियोग के गीतों में किसी बाँझ की अनाथता और हृदय द्रावक गाथा किस मनुष्य का हृदय नहीं पिघला देगी। समाज का तिरस्कार सहन करते-करते जब उसका सहन असह्य हो जाता है तो वह अपने दुःखों को गीतों में व्यक्त करती हैं-

सासु मोरी कहेली बझिनियाँ, ननद ब्रजवासिन रे,
ए ललना जिनकर बारी में बिआही, उहो घर से निकालेले हो।
घर से निकलली बझिनियाँ; निखुझ बने ठाढि भइली रे,
ए ललना, बन में से निकली बधिनियाँ, पूछ ले भेद लाई न ही।।

पुत्र न होने के कारण व्यंग्य बाणों से पीड़ित भावज अपने देवर से रो-रो कर कहती है-

ए बबुआ राउर भइया बोलेले कुबोलिया,
एक रे बालक बिनु ए राम।

अन्त में सभी के तीक्ष्ण वाक्बाणों से दुःखी होकर कोई बाँझिन स्त्री कहती है कि मै। विष खा लूँगी या अपने शरीर को अग्निदेव का अर्पित कर दूंगी जिससे मेरी बन्ध्यात्व रूपी कलंक की कालिमा मिट जायेगी-

अस मन करे मइया, जहरवा खाई मरितो हो,
एक मन करे मइया, अगिनिया में जरि हो जा

मृत्यु के गीत :-

मृत्यु मानव के जीवन का अन्तिम संस्कार है। मृत्युगीत या शोकगीत की यह परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। वैदिक साहित्य तथा संस्कृत के लौकिक साहित्य में भी इसके उदाहरण पाये जाते हैं।

किसी स्त्री के हृदय में अपने पति या पुत्र की मृत्यु के कारण जो दुःख उत्पन्न होता है उसे वह गीतो के रूप में प्रकट करती जाती है-

के मोरा नइया के पार लगइहें हो रामा।
अब कइसे दिनवा काटबि ए रामा।।
आतना सुखवा हमरा के दिहले।
अब कवन दुरदसवा होई ए रामा।।

कोई पुरूष जीविकोपार्जन के लिए परदेश गया है और वह वही मर जाता है तो उसकी स्त्री परदेश जाने के निषेध की चर्चा, रोती हुई इन शब्दों में करती है-

हम नाही जनली कि विदेशवा में मरिहें,
नाही त जाये ना दिहती ए राम।।
अब के हमार दिनवा पार लगाई ए राम,
कवन घाटवा अब लागवि ए रामा।।

पति के निधन के पश्चात् विधवा स्त्री का दुःख विलाप तथा उसकी आर्थिक दुर्दशा का चित्रण गीतों में उपलब्ध होता है-

आज तु गवनँवा भइलकाल्हू पिया मरी गइले
आहो मोरे राम, हरि के वियोगवा अबना पियबि हो राम
कटली में नरखर बन्हली बेवनवा आहो मोरे राम,
ताहि पर हरि जी के सुताइले हो राम।

मृत्यु के पश्चात् प्राणरूपी हंस उड़ जाता है केवल मिट्टी ही पड़ी रह जाती के है-

ना जानो ए राम कवनि होइहें गतिया
कटल में नरखर बन्हलों में टटिया,
उड़ि गइले हंसा, परल बाड़ी मटिया।।

इस प्रकार भोजपुरी लोकगीतों में करुणा की जैसी अभिव्यंजना हुई है वैसी हिन्दी साहित्य में उपलब्ध होना कठिन है।

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