भोजपुरी लोकगीतों में व्यक्त स्त्री जीवन

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भोजपुरी लोकगीतों में व्यक्त स्त्री जीवन  प्राचीन वैदिक काल, पौराणिक काल तथा महाभारत और रामायण के युग में स्त्री का स्थान अत्यन्त उच्च था। भोजपुरी लोकगीतों में भी स्त्रियों के विभिन्न रूपों का चित्रण किया गया है कहा भी गया है-

‘बिनु घरिनी घर भूत के डेरा’

अर्थात् स्त्री के बिना घर भूत के निवास से भी भयंकर हो जाता है। इन गीतों में कहीं स्त्री के सतीत्व की चर्चा की गई है, तो कहीं उसके कुलटापन की, कहीं पति-परायणता तो, कहीं वीरांगना के रूप में चित्रित किया गया है भोजपुरी लोकगीतों में स्त्रियों के चित्रण को हम निम्नलिखित श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं-

    1. माता के रूप में।
    2. पत्नी के रूप में।
    3. पुत्री के रूप में।
    4. आदर्श सती के रूप में।
    5. विधवा के रूप में।
    6. कुलटा के रूप में।

माता के रूप में :-

मातृत्व नारी का सबसे बड़ा गुण है। सभी स्त्रियों में माँ बनने की इच्छा रहती है। पुत्र के बिना स्त्री की गोद सूनी लगती है-

एक कोरा लिहलों में भइया, दूसरे कोरा भतीजवा हो,
आहो रामा तबहु ना गोदिया सोहावन, अपना बलक बिनु हो।

भोजपुरी लोकगीतों में व्यक्त स्त्री जीवन
भोजपुरी लोकगीतों में व्यक्त स्त्री जीवन

जिस स्त्री को सन्तान नहीं होती उसे किसी शुभ कार्य, यात्रा आदि के समय दिखना अपशकुन माना जाता है तथा सास, ननद, पति तथा परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है। उपेक्षित जीवन जीना उसकी विवशता है-

सासु कहेली बझिनिया, ननद ब्रजवासिनी हो।
ललना जिनकरि मैं बारी बिआहि, घर से निकाले हो।।

समाज का तिरस्कार सहन करते हुए किसी बांझिन स्त्री के हार्दिक व्यथा की अभिव्यक्ति कितनी मर्मस्पर्शी है-

लाल पियर ना पहिरली, चउक ना बइठली हो।
ललना गोदिया ना खेलवनी बलकवा, मोर जनम अकारथ हो।।

लोक नारी जीवन की सार्थकता संतान होने में मानता है-

तिरिया के जनमें कवन फल ए मोरे साहब
पुतवा जनम जब होई, तबे फल होई।।

वास्तव में मातृपद नारी जीवन की सार्थकता एवं पूर्णता है।

पत्नी के रूप में :-

भोजपुरी स्त्रियों का प्रधान गुण उनका पातिव्रत धर्म है। वे मन-वचन और कर्म से पति-परायणा होती है। भोजपुरी लोकगीतों में स्त्रियों की दशा अथवा दुर्दशा का हृदयस्पर्शी एवं मार्मिक उल्लेख मिलता है।

किसी स्त्री का पति उसका अनादर करता है, उसे कभी नहीं पूछता फिर भी वह स्त्री अपने को सौभाग्य शालिनी कहती है-

मोर पियवा बात ना पूछे, मोर सोहागिन नाव।

किसी स्त्री की हाथ की अंगूठी खो जाने को कारण सास और ननद तो उसे पीटती ही है उसका पति भी उसे बबूल के डण्डे से पीटता है-

सासु मोरा मारे, ननद मोरा मारे, सइयां मारे रे।
बबूर डंठा तानि तानि, सइयाँ मारे रे।।

सासु मारे छुटुका, ननद मारे पटुका।
सइयाँ मोर मुगरी से मारि हो।

कोई स्त्री कहती है ससुराल में लात, मूका (घूसा) खाने को मिलता है। अतः मैं वहाँ नहीं जाऊगी-

ससुरा में मिलेला लात अवरू मूका

विवाह के पश्चात कोई दुल्हन अपने माँ बाप को छोड़कर एक अपरिचित परिवार में पहुँचती है। जहाँ दुल्हा अपनी पत्नी से प्रेम करता है लेकिन सास और ननद बहू से जलने लगती है तथा झगड़ा करती है जिससे बहू को बहुत दुःख होता हैवह कहती है-

जहिया से अइली पिया तोहरी महलिया में
सुखवा सपन होई गइले रे पियवा।
घर के कर काम सूखले देही के चाम,
तबो नाहिं होवे कुछु नामवा रे पियवा।

भोजपुरी स्त्रियों को बड़ा ही अपमान, और कटुवचन सुनना पड़ता है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की यह उक्ति भोजपुरी समाज पर अक्षरशः चरितार्थ होती है कि-

“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में दूध और आँखों में पानी।।”

पुत्री के रूप में :-

भोजपुरी समाज में ऐसा कहा जाता है कि पुत्री के जन्म होने पर पृथ्वी तीन हाथ नीचे घुस जाती है और पुत्र होने पर तीन हाथ ँची उठ जाती है। ऐसी परिस्थिति में माता सोचती है कि उसे पुत्री न पैदा हो और यदि हो भी गई हो तो वह मर जाए, जिससे उसे पुत्री जन्म के सन्ताप से मुक्ति मिल जाती-

जउ हम जनिती धियवा कोखी रे जनमिहें,
पिहिती मैं मरिच झराई रे।
मरिचि के झाकु झुके, धियवा मरि रे जाइति,
छुटि जइते गरुवां संताप रहे ।।

इसके अतिरिक्त कुछ लोगों का यह भी मानना है कि बेटी होने पर कन्यादान का फल मिलता है-

जंघिया बखानेनी कवन राम के, जीनि बेटी जनमास।
लटे लटे मोतिया गुहाइ के, बेटी जाँघे बइठाए।।

वास्तव में लड़की के दहेज के विषय में पिता चिन्तित रहता है। इसलिए लड़की के प्रति उपेक्षा का भाव मिलता है-

भइले बिआह परेला सिर सेनुर, नव लाख दहेज थोर।
घर में के हाँडि भाड़ी आँगन देइ पटकबि, सत्रु के धिया जनि होइ।।

जब तक पुत्री का विवाह नही हो जाता तब तक उसके पिता को उससे मुक्ति नहीं होती इसलिए लड़की के विवाह की उपमा ग्रहण लगने’ से दी गई हैकोई पुत्री पिता से पूछती है कि कौन ग्रहण कहाँ लगता है? इस पर उसका पिता उत्तर देते हुए कहते है कि ए पुत्री! चन्द्रग्रहण सन्ध्या अर्थात रात्रि में और सूर्य ग्रहण दिन में लगता है। परन्तु पुत्री रुपी ग्रहण विवाह के मण्डप में लगता है। इससे कब मोक्ष होगा इसका पता नहीं है-

चान गरहनवा बेटी साँझ ही लागेला,
सुरुज गरहनवा भिनुसार ए।
धियवा गरहनवा बेटी मंडपनि लागेला,
कब दोनी उगरह होई ए।।

आदर्श सती के रूप में :-

भोजपुरी स्त्रियां अनेक दुःखों, कष्टों आदि को सहती हैं परन्तु अपने चरित्र पर आँच नहीं आने देती। वह दूसरे के सुख को सुख नहीं मानती, अपने पति का दिया हुआ सुख ही सुख मानती है-

पिया सुख नीमन पंच सुख ना।।

पति उनके साथ कितना भी बुरा व्यवहार करे, काट ही क्यों न डाले वो अपने पति की शरण में रहना चाहती है–

मारु चाहे काटु पिया तोरे ओरिया।।

कोई देवर प्रोषित्पतिका अपनी भावज से अनुचित प्रस्ताव करता है। इस पर पति प्रेमपरायण भावज उत्तर देती है-

देवर संचिले जोबनावाँ बलमुआ लागि ना।
अइसन बोलीं बोल देवरवा हो कटाइ रे देवों ना।
तोरी अलफी बहियाँ रे कटाई रे देबों ना।।

एक अन्य उदाहरण जिसमें कोई राजपूत युवा किसी स्त्री के सौन्दर्य पर मोहित हो जाता है और उससे प्रेम सम्बन्धी चिकनी-चुपड़ी बातें कर उसे अपने प्रेम जाल में फँसाना चाहता है इस पर रोष से उत्तेजित होकर वह सती सिंहनी की तरह गर्जती हुई उत्तर देती है-

अस रजपुतवा जो पाइत चाकर हम राखित हो।
अपने प्रभु जी के पांय के पनहियां, तो तोसे ढोवाइत हो।।

विधवा के रूप में :-

किसी स्त्री का पति जब तक जीवित रहता है तब तक स्त्री का घर में मान-जान होता है। परन्तु पति की मृत्यु के पश्चात् उसे उपेक्षित दृष्टि से देखा. जाता है। उसे दुःखों के विषय में इतना ही कहा जा सकता है-

दुःखवा अमित न कहि सकहि सहस, सारदा, सेस।

विधवा स्त्री को पति के बिना सारा संसार दुःख एवं शोक का समुदाय लगता है-

जहं लगि नाथ नेह अरु नाते।
पिय बिनु तियहिं तरनिहुँ ते ताते।।
वन, धन, धाम, धरनि पुर राजू।
पति विहीन सब शोक समाजू।।

भोजपुरी लोकगीतों में विधवा का चित्रण अत्यन्त दयनीय एवं हृदय-द्रावक है। कोई बाल विधवा अपने पिता से कहती है- मेरी माँग सिन्दूर के बिना तथा गोद बालक के बिना रो रही है-

बाबा सिर मोरा रोवेला सेनुर बिनु,
नयना कजरवा बिनु ए राम।
बाबा गोद मोरा रोवेला बालक बिनु,
सेजिया कन्हैया बिनु ए राम।।

भोजपुरी में जिस स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती है उसे ‘राँड़’ की संज्ञा दी जाती है ऐसी स्त्री घृणा की दृष्टि से देखी जाती है इसीलिए यह कहावत प्रचलित है-

राँड़ भइली कि साँड़ भइली।

अर्थात् यह स्त्री राँड़ क्या हुई सांड़ के समान आचरण करने वाली हो गयी है। विधवा स्त्री के लिए अपने अंगों का श्रृंगार करना निषिद्ध माना जाता है। उसके लिए माँग में सिन्दूर लगाना अत्यन्त निषिद्ध माना जाता है क्योंकि सिन्दूर सौभाग्य का प्रतीक समझा जाता है। विधवा की माँग में सिन्दूर के अभाव की कल्पना माँग के रोने से की गई हैकोई स्त्री कहती है-

माँग मोर रोवेला सेनुर बिनु,
गोदिया बालकवा बिनु ए राम।

इस प्रकार भोजपुरी विधवा आर्थिक साधनों से रहित, शारीरिक प्रसाधनों से अपहृत, दयनीयता की साक्षात् प्रतिमूर्ति है।

कुलटा से रूप में :-

समाज में कुछ ऐसी भी स्त्रियाँ होती है, जिनका आचरण उचित नहीं होताऐसी कुलटा स्त्रियाँ अपने पति को तो देखकर रोने लगती है। परन्तु दूसरे पुरुष को . देखकर प्रसन्नता प्रकट करती है-

आपन भतार देखि रोवे बपुरी,
आन कर भतार देखि हँसे बपुरी।

किसी स्त्री का पति कुछ काम नहीं करता, दिन भर इधर-उधर बैठा रहता है उसकी पत्नी कहती है- ऐसा बेकार पति मर भी नहीं जाता क्योंकि उसके साथ रहने में बहुत कष्ट होता है-

अकबर पियवा मारियो ना जाय।
सूते के बेरिया चित्त फरियाय।

इसी प्रकार –

माघ मास घिव खिचड़ि खाय
बुढ़वा छटकि-छटकि मरि जाय।।

एक अन्य उदाहरण जिसमें कोई कर्कशा स्त्री, जो कुलटा भी है अपने घर के दरवाजे पर बैठकर आँचल फैलाकर भगवान भास्कर से नित्य प्रार्थना करती है कि मुझे विधवा होने का वरदान कब मिलेगा-

धनि धनि रे परुख तो भागि,
करकसा नारी मिली।
डेहरी बैठे तेल लगावै, सेनुर भरावैं माँगि
आँचर पसारि के सुरुज मनावै कब होइबों मैं राँड़ि।
करकसा नारी मिली।

इस तरह भोजपुरी लोकगीतों में स्त्री-जीवन की विविध और बहुरंगी छवियाँ दिखाई पड़ती हैं। पुरुषों द्वारा गाये जाने वाले गीतों में भी स्त्रियाँ है और स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाले गीतों में तो वे हैं ही। इन दोनों तरह के गीतों में आई स्त्रियों के स्वरूप में स्पष्ट अन्तर लक्षित किए जा सकते हैंस्त्री गीतों में स्त्रियों की जो जीवन-स्थितियाँ व्यक्त की गई है वे बेशक अधिक प्रामाणिक अन्तर्वेदना सम्पन्न और यथार्थ है।

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