भोजपुरी के बढ़िया वीडियो देखे खातिर आ हमनी के चैनल सब्सक्राइब करे खातिर क्लिक करीं।
Home आलेख भोजपुरी लोक नाटक : डॉ बीनू यादव

भोजपुरी लोक नाटक : डॉ बीनू यादव

0
भोजपुरी लोक नाटक

सम्पूर्ण भारत में लोक नाटकों की परम्परा प्राचीन काल से अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। भोजपुरी क्षेत्र में बिदेसिया लोक नाटक की लोकप्रियता सर्वाधिक है। बिदेसिया नाटक का आरम्भ भिखारी ठाकुर ने किया था। भिखारी ठाकुर नाटककार के साथ-साथ एक सफल अभिनेता भी थे। उन्होंने अनेक नाटक लिखे और उनका सफलतापूर्वक मंचन भी किया। उनके इन नाटकों में गीतों की प्रधानता है और सामाजिक विकृतियों को अभिव्यक्त किया गया है।

इनके भोजपुरी नाटकों में उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और बिहार के पश्चिमांचन के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक स्थिति को विशेष रूप से चित्रित किया गया है। इनके नाटकों में बिदेसिया, भाई-विरोध, बेटी वियोग, विधवा-विलाप, कलियुग प्रेम, राधेश्याम बहार, गंगा-स्नान, पुत्रवध, गबरधिचोर, बिरहा बहार, नकल भाँड़ आ नेटुआ के, ननद-भउजाई का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त इन्होंने भजन-कीर्तन, गीत-कविता आदि की रचनाएँ भी की हैं।

भिखारी ठाकुर के नाटकों में अधिसंख्य नारियाँ भारतीय परम्परागत नारी–चरित्र के रूप में प्रस्तुत की गयी हैं। पति के परदेश चले जाने के बाद भी दीर्घकाल तक अपने परिश्रम के बल पर अपना भरण-पोषण करने वाली बिदेसिया लोक नाटक की नायिका प्यारी सुन्दरी अपने अस्तित्व को बनाए रखती है तथा पातिव्रत धर्म का पालन करती है। इसी प्रकार ‘कलियुग प्रेम’ में भी नशाखोर आवारा पति के साथ उसकी पत्नी सारे अत्याचार सहने के बाद भी उसे परमेश्वर मानती है।

बेटी-वियोग की नायिका अखजो एक वृद्ध बीमार और सम्पन्न किसान के हाथ बिक जाने के बाद भी अपने पति की सेवा निष्ठापूर्वक करती हुयी विधवा बन जाती है और विधवा-विलाप  में वही अखजो अपने वैधव्य की त्रासदी और अपने पट्टीदारों के अमानवीय अत्याचार को भोगती रहती है। भिखारी ठाकुर का हृदय माँ के प्रति श्रद्धा से भरा हुआ था। ‘माता-भक्ति में उन्होंने माता को देवी समझ कर उसकी पूजा और महत्ता को समझा है। ‘गंगा-स्नान’ में सास के प्रति पुत्रवधू के व्यवहार को उन्होंने बड़े घृणास्पद रूप में प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार ‘पुत्र-वध में माता की ममता का हृदयद्रावी चित्रण प्रस्तुत किया गया है।

भारतीय समाज में नारी का एक और रूप ‘कुटनी’ भी है। हमारे समाज में ऐसी भी औरतें हैं जो किसी का सुखी परिवार नहीं देख सकतीं; फलस्वरूप वे घरों में पैठ बना कर झगड़ा लगा देती हैं और संयुक्त परिवार के विघटन का कारण बनती हैं। भाई विरोध और ‘पुत्रबध में ‘कुटनी’ की भूमिका बहुत निन्दनीय है। इन घटनाओं को नाटक के माध्यम से प्रस्तुत कर भिखारी ठाकुर ने इस सामाजिक दुःचक्र से सावधान रहने की शिक्षा दी है।

भारतीय नारी कपड़े और गहने तथा अन्य सौन्दर्य प्रसाधनों के लिए सर्वदा लालायित रहती हैं। ‘पुत्र-बध में भिखारी ठाकुर ने बड़े सुनियोजित ढंग से नारी की इस मनोवृत्ति का चित्रण किया है। जेवर और वस्त्र के लोभ में कुछ नारियाँ दुश्चरित्रता और क्रूरता की सीमा भी पार कर जाती हैं। भिखारी ठाकुर ने समाज की ऐसी नारियों का बहिष्कार करने की कोशिश की है।

भिखारी ठाकुर ने गबरघिचोर नाटक में एक ऐसे चरित्र की सृष्टि की है जो अपनी नवविवाहिता युवती पत्नी को अकेली छोड़कर विदेश कमाने चला जाता है और 15 वर्षों तक उसकी खोज-खबर नहीं लेता। इसी दीर्घ अवधि में उसकी पत्नी का किसी अन्य से संबंध हो जाता है। उससे एक लड़का भी पैदा होता है। वह सामाजिक प्रताड़नाओं को सहकर भी उस बालक की सेवा करती है और उसे अपने सहारे के रूप में अपने पास सदा रखना चाहती है। परन्तु उसका पति जब वापस आता है तब उस लड़के को अपने साथ ले जाने के लिए इच्छा व्यक्त करता है, परन्तु पंचायत में उसकी इच्छा पूरी नहीं हो पाती।

हमारे समाज में ऐसी नारियाँ भी मौजूद हैं जो विवाह के बाद जब अपने पति के घर आती हैं, तब अपने पति का कान भर कर, उनको बहका-फुसला कर मजबूर कर देती हैं और संयुक्त परिवार में विघटन आरंभ हो जाता है। इस प्रकार संयुक्त परिवार विघटित हो कर अपनी एकता खोकर शक्तिविहीन हो जाता है। भिखारी ठाकुर ने इस प्रवृत्ति को अच्छा नहीं समझा है।

भारतीय समाज में वेश्यावृत्ति भी काफी प्रचलित है। वेश्यावृत्ति के कारण बहुत-से परिवार विनष्ट होते जा रहे हैं। इस प्रवृत्ति के दुःपरिणामों की तरफ भी भिखारी ठाकुर का ध्यान गया है। उन्होंने  बिदेसिया नाटक में इसको अभिव्यक्त किया है। इस प्रकार भिखारी ठाकुर के लोक नाटकों में नारी-विमर्श का स्वरूप भारतीय परम्परा का पक्षधर और आदर्शोन्मुख यथार्थवाद पर आधारित है। उन्होंने नारी–समाज को परिवार का केन्द्र बिन्दु माना है; फलस्वरूप उन्हें ममतामयी, सच्चरित्र, धार्मिक विचारवाली, महिमामयी और उदारता से परिपूर्ण दिखाया है। साथ ही उन्होंने कुलटा, कुटनी तथा सास-ससुर को अपमानित करने वाली औरतों को उपेक्षा की दृष्टि से देखा है।

भिखारी ठाकुर के नाटकों में दलित-विमर्श भी पर्याप्त मात्रा में मिलता है। भिखारी ठाकुर जाति के नाई थे। पेशे के कारण भिखारी ठाकुर ने तत्कालीन सामन्ती व्यवस्था को करीब से देखा था। उन्होंने अनुभव किया था कि श्रम के अनुपात में उन्हें या उस प्रकार के अन्य श्रमिकों को मजदूरी नहीं मिलती। इस शोषण के कारण पिछड़े और दलित वर्ग का आर्थिक-जीवन अत्यन्त कठिन हो गया था। गाँव के सामंतों और दबंगों के अत्याचार के कारण इन लोगों की आर्थिक स्थिति दलितों से अच्छी नहीं थी। दलितों और पिछड़ों के साथ जो अत्याचार होता था, उसको भिखारी ठाकुर ने स्वयं भोगा था, इसलिए अपने नाटकों में समाज के उस रूप को कहीं न कहीं अवश्य प्रस्तुत किया है।

अपने समाज के अशिक्षित, उपेक्षित और परिश्रमी व्यक्तियों, परिवारों और जातियों को उन्होंने अपने-अपने नाटकों में स्थान दिया है और उनके साथ घटने वाली आम घटनाओं को उजागर किया है। इन बातों को समाज के सामने रखकर उन्होंने दलितों और शोषितों में नवचेतना जागृत करने का प्रयास किया है। बाल-विवाह, अनमेल विवाह, धन के लिए बेटी बेचने की प्रथा, नशाखोरी, चोरी, जुआ आदि जैसी सामाजिक बुराइयाँ दलितों और शोषितों में व्याप्त थीं; फलस्वरूप उनका जीवन और अधिक कष्टमय होता चला जा रहा था।

भिखारी ठाकुर ने इन बुराइयों से छुटकारा पाने के लिए लोगों को सचेत किया; फलस्वरूप दलितों के साथ-साथ अन्य वर्गों में भी इस प्रकार की प्रथाओं के विरुद्ध मानसिकता विकसित हुयी। विधवा औरतों के पुनर्विवाह का आरंभ हुआ। बाल-विवाह को रोकने के लिए सरकार ने कानून बनाए।

भिखारी ठाकुर का विदेसिया लोक नाटक इतना लोकप्रिय हुआ कि उसके अनुकरण पर बहुत से लोगों ने विदेसिया नाटक लिखा और मंचित किया।

भोजपुरी लोक नाटक
भोजपुरी लोक नाटक

भोजपुरी के दूसरे प्रमुख नाटकार पंडित राहुल सांकृत्यायन हैं। उन्होंने कुल आठ भोजपुरी नाटकों की रचना की है। राहुल जी बचपन से ही भारतीय धार्मिक अंधविश्वासों आदि के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने धार्मिक आडम्बरों का स्वयं वहिष्कार किया था। जब वे रूस गए तो उन्होंने वहाँ की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थितियों का जायजा लिया और मार्क्सवादी विचारधारा के अनुयायी बन गए। जिस समय उन्होंने अपने आठो नाटक प्रकाशित करवाये उस समय विश्वयुद्ध का वातावरण था, देश की सामाजिक विपन्नता उनके सामने थी; फलस्वरूप उन्होंने अपने भोजपुरी नाटकों में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति का वर्णन किया है।

उनके नाटकों का मुख्य कथ्य नारी–समस्या है। भारत में लड़के-लड़कियों में अन्तर किया जाता है और लड़कियों के जन्म पर आनन्दोत्सव नहीं मनाया जाता। जबकि लड़के के जन्म पर सोहर गाया जाता है, आनन्दोत्सव मनाया जाता है। यह सब औरतें ही करती हैं। राहुल जी ने इस ‘सोहर’ की प्रथा को बन्द करने के लिए नारियों को ही उत्तरदायित्व सौंपा है।

मेहरारून के दुरदसा नामक नाटक में लछिमी इस प्रथा का विरोध करती है। भारत में ‘सतीप्रथा का प्रचलन था और विधवा हुयी औरतों को आग में झोंक कर मार डाला जाता था, इस प्रथा का विरोध भी लछिमी करती है। बेटियों को पैदा होते ही माँ गला दबा कर मार देती थीं या नमक चटा कर उसकी साँस बंद कर देती थीं। इस प्रकार के प्रचलन का इस नाटक में विरोध किया गया है। पर्दा प्रथा के कारण बहुएँ बदल जाती हैं, इस प्रथा का भी विरोध इस नाटक के माध्यम से किया गया है। विधवा हो जाने पर नारी का परिवार की सम्पत्ति में कोई हक नहीं होता था, इस समस्या पर भी इसमें विचार किया गया है। लछिमी कहती है कि

‘हमनी जे पहिले से जोर-जोर से कहले होइतीं, त हमनी के हक मानि लीहल गइल होइत । मुदा हमनी चुप लगा गइलीं, मरद लोग सरकार के समुझा देहलै, कि मेहरारू के धन के कोनो खाहिस नइखे।”

उनके नाटक ‘नइकी दुनिया में धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक आधार पर नाटक की रचना की गयी है। इसमें धार्मिक आडम्बरों पर प्रहार किया गया है। सामाजिक परिवर्तन की बात कही गयी है। अपने पोते के व्यवहार से तंग आकर जगरानी कहती है कि

साँचै बबुआ! हमरा आँखै के समने दुनिया कहाँ से कहाँ चलि गइल। हमरे नु हाड़-मांस ह इ हमार नाती, आ बरहे बरिस में देवता–पितर धरम-करम सबकै उपहास करत–आ।

इस नाटक में एक नयी सामाजिक व्यवस्था की संकल्पना की गयी है, जिसका वर्णन करते हुए बटुक कहता है कि

‘हाँ इयवा! मुदा हमरा सुराज में भुइली में एको घर गरीब ना रहे पाई, केहू के लइको भूखा-नंगा न रहे पइहैं। केहू मसलद पर बैठल-बैठल घिउ–मलीदा खा-खा के मोटा के मॅइसा ना होये पाई। आ न केहू काम करत-करत सिटुकि के लकड़ी बनै पाई।

राहुल जी ‘जोंक’ नाटक में जमींदारों, पूँजीपतियों, मिल मालिकों, सूदखोरों को जोंक की तरह जनता का खून चूसने वाला और ढोंगी साधुओं को धर्म का झाँसा देकर आम जनता को धोखा देने वाला कह कर उनके राज को खोला है। इसी प्रकार उनके अन्य नाटकों में भी सामाजिक, राजनैतिक विसंगतियों पर प्रकाश डाला गया है।

इसके अतिरिक्त भोजपुरी में पं0 रविदत्त शुक्ला का ‘देवाक्षर चरित’, गोरखनाथ चौबे का उल्टा जमाना जैसे नाटक भी प्रकाशित हैं। स्वर्गीय रामेश्वर सिंह कश्यप ने ‘लोहा सिंह’ रेडियो नाटक का प्रसारण लगातार करवाया था। इस नाटक का प्रभाव बाद के भोजपुरी नाटककारों स्व0 विमल कुमार सिंह, डॉo मुक्तेश्वर तिवारी बेसुध आदि के नाटकों पर पड़ा है।

भोजपुरी नाटकों के अतिरिक्त हिन्दी भाषी क्षेत्र में नौटंकी, रामलीला, रासलीला, भाँड़, आदि विधाओं के लोक नाटकों का प्रचलन बहुत अधिक है। इस क्षेत्र में विभिन्न जातियों से जुड़े हुए विभिन्न नृत्य-नाट्य प्रचलित हैं।

जैसे धोबिया नृत्य-नाटक, हँघिया, कँहरउवा, जोगीड़ा, डोमकच आदि। इन नृत्य-नाटकों की विशेषता यह है कि ये जाति-विशेष से जुड़े हुए हैं और विभिन्न अवसरों पर इनका आयोजन किया जाता है।

डॉ बीनू यादव जी के रिसर्च पेपर से सभार

रउवा खातिर:
भोजपुरी मुहावरा आउर कहाउत
देहाती गारी आ ओरहन
भोजपुरी शब्द के उल्टा अर्थ वाला शब्द
जानवर के नाम भोजपुरी में
भोजपुरी में चिरई चुरुंग के नाम

NO COMMENTS

आपन राय जरूर दींCancel reply

Exit mobile version