बाबू रघुवीर नारायण
बाबू रघुवीर नारायण का जन्म नयागांव छपरा (बिहार) में 30 अक्टूबर 1884 ई0 में हुआ था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा छपरा के जिला स्कूल में सम्पन्न हुई थीं। बाल्याअवस्था से ही काव्य रचना में दिलचस्पी लेने लगे थे। छात्र जीवन में ही रघुवीर नारायण का सम्पर्क अपने विद्यालय के अध्यापक और उस समय के महत्वपूर्ण साहित्यकार पं0 अम्बिका दास व्यास से हो गया था। व्यास जी के निरन्तर साहचर्य, प्रेरणा और प्रोत्साहन से कविता की रचना में आपकी दिलचस्पी बढ़ती चली गयी। विख्यात मनीषी और विद्वान पं0 राम अवतार शर्मा के सम्पर्क में रघुवीर नारायण अपने अध्ययन काल में ही आ गये थे, इसलिए इनके व्यक्तित्व निर्माण में उनके योगदान को भी स्वीकार किया जाता है। इनकी भोजपुरी कविताओं में देश और अपनी मिट्टी के प्रति अपूर्व लगाव व्यक्त हुआ है। प्रसिद्ध भोजपुरी गीत बटोहिया बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में दक्षिण अफ्रीका, मारीशस और ट्रिनिडाड में बसे प्रवासी भारतीयों में अत्यन्त लोकप्रिय हो गया था। ‘बटोहिया’ गीत को डा0 भगवत शरण उपाध्याय ने अपने पढ़े हुए समस्त साहित्य में सबसे अधिक प्रभावशाली और महत्वपूर्ण माना है। डा0 उपाध्याय ने लिखा है कि यदि मैं विदेशी होता और भोजपुरी समझ रहा होता तो अकेले ‘बटोहिया’ को पढ़कर मैं भारत भूमि को देखने के लिए अपना सब कुछ बेचकर निकल पड़ताडा0 उपाध्याय का यह कथन इस कविता की शक्ति और सामर्थ्य की ओर संकेत करने के लिए पर्याप्त है। इस कविता में अनेक ऐसी पंक्तियां और स्थल है जो हृदय को स्पर्श करने के साथ ही अपनी ध्वनियों से पूरे भाव को व्यक्त करने में समर्थ है।
बटोहिया
सुन्दर सुभूमि भैया भारत क देसवा से
मोरे प्रान बसे हिम खोह रे बटोहिया
एक द्वार घेरे राम हिम कोतवलवा से
तीन द्वार सिन्धु घहरावे रे बटोहिया
जाहु-जाहु भैया रे बटोही हिन्द देखि आउ
जहवां कुंहकि कोइलि बोले रे बटोहिया
पवन सुगन्ध मन्द अगर चननवां से
कामिनी विरह राग गावे रे बटोहिया
विपिन अगम धन सघन बगन बीच
चम्पक कुसुम रंग देवे रे बटोहिया
दुम बर पीपल कदम्ब निम्ब आमवृक्ष
केतकी गुलाब फूल फूले रे बटोहिया
तोता तूती बोले रामा बोले भंगरजवा से
पपिहा के पी-पी जिया साले रे बटोहिया
सुन्दर सुभूमि भैया भारत के देसवा से
मोरे प्रान बसे गंगा घाट रे बटोहिया
गंगा के जमुनवा के झग मग पनिया से
सरजू झमकि लहरावे रे बटोहिया
ब्रह्मपुत्र पंचनद घहरत निसि-दिन
सोनभद्र मीठे स्वर गावे रे बटोहिया
अपर अनेक नदी उमड़ि घुमड़ि नाचे
जुगन के जदुआ जगावे रे बटोहिया
आगरा प्रयाग काशी दिल्ली कलकतवा से
मोरे प्रान बसे सरजू तीर रे बटोहिया
जाउ-जाउ भैया रे बटोही हिन्द देखि आउ
जहां ऋषि चारों बेद गावे रे बटोहिया
सीता के विमल जस राम-जस कृष्ण जस
मोरे बाप-दादा के कहानी रे बटोहिया
नानक कबीर गौर संकर श्री रामकृष्ण
अलख के गतिया बहावे रे बटोहिया
विद्यापति कालिदास सूर जयदेव कवि
तुलसी के सरल कहानी रे बटोहिया
जाउ-जाउ भैया रे बटोही हिन्द देखि आउ
जहाँ सुख झूले धान खेत रे बटोहिया
बुद्धदेव पृथु विक्रमार्जुन सिवाजी के
फिरि-फिरि हिय सुधि आवे रे बटोहिया
अपर प्रदेश देस सुभग सुघर बेस
मोरे हिन्द जगके निचोड़ रे बटोहिया
सुन्दर सुभूमि भैया भारत के भूमि जेहि
जन ‘रघुवीर’ सिर नावे रे बटोहिया ।।
हीरा डोम
हीरा डोम पटना (बिहार) के रहने वाले थे, उनकी एकमात्र प्रकाशित कविता ‘अछूत की शिकायत’ है। इस कविता को पढ़कर सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि हीरा के मन में सामाजिक विषमता और जाति व्यवस्था को लेकर गहरी पीड़ा थीं। अपनी इसी पीड़ा को व्यक्त करते हुए उन्होंने यह कविता लिखी थी। प्रतिभा और अभ्यास के साथ ही अपने समुदाय और परिवेश के प्रति एक गहरी दिलचस्पी के कारण ही सन् 1914 में उन्होंने ऐसी दृष्टि सम्पन्न कविता की रचना की। इस कविता का महत्व इस बात से प्रमाणित है कि इस कविता को हिन्दी की शीर्षस्थ साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बिना किसी संशोधन के प्रकाशित किया था। यह उल्लेख भी आवश्यक है कि द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ को खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने वाली पत्रिका के रूप में स्थापित किया था और उन्होंने मैथिलीशरण गुप्त जैसे बड़े कवि की ब्रजभाषा में लिखी गयी कविता को इस टिप्पणी के साथ वापस कर दिया था कि बोलचाल की खड़ी बोली में लिखी गई कविताएं ही सरस्वती में छपती है। भाषा के प्रति इतने कठोर आग्रह के बावजूद द्विवेदी ने हीरा डोम की इस भोजपुरी कविता को प्रकाशित किया तो इसीलिए कि इस कविता का कथ्य उन्हें भाषा के आग्रह की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण लगा होगा और इसलिए भी कि यह कविता एक ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखी गई है जो दलित और वंचित वर्ग का है, इसलिए इस कविता का ऐतिहासिक महत्व है-
अछूत के शिकायत
हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी
हमनी के साहेब से मिनती सुनाइबि
हमनी के दुख भगवनओ न देखऽता जे
हमनी के कवले कलेसवा उठाइब
पदरी सहेब के कचहरी में जाइब जा
बेधरम होके रंगरेज बानि जाइबि
हाय राम! धरम न छोड़त बनत बा जे
बेधरम होके कइसे मुँहवा देखाइबि ।
खंभवः के फार पहलाद के वचवले जे
ग्राह के मुँह से गजराज के बचवले
धोती जुरजोधन के भइया छोरत रहे
परगट होके तहां कपड़ा बढ़वले ।
मरले रवनवा के पलले भभिखना के
कानी अंगुरी पे धके पथरा उठवले
कहवा सुतल बाटे सुनत न बाटे अब
डोम जानि हमनी के छुए से डेरइले ।
हमनी के राति दिन मेहनत करीलेजा
दुई गो रूपइया दरमहा में पाइब
ठकुरे से सुख से त घर में सुतल बानी
हमनी के जोति जोति खेतिया कमाइबि ।
हाकिम के लसकरि उतरल बानी जे
त उंहगो बेगरिया में पकरल जाइवि
मुंह बान्हि ऐसन नोकरिया करत बानी
ई कुल खबरि सरकार के सुनाइबि ।
बभने के लेखे हम मिखिया न माँगन जा
ठकुरे के लेखे नाहीं नाहीं लउरी चलाइबि
सहुआ के लेखे नाहीं डांड़ी हम मारब जा
अहिरा के लेखे नाहीं गइया चोराइब
भंटऊ के लेखे न कवित हम जोरव जा
पगड़ी न बान्हि के कचकरी में जाइबि
अपना पसिनवा के पइसा कमाइबि जा
घर भर मिली जुली बांटि-चोटि खाइबि ।
हड़वा मसुइया क देहिया ह हमनी के
ओकरे के देहिया बभनवो के बानी
ओकरा के घरे-घरे पुजवा होखत बा जो
सारे इलकवा भइले जजमानी ।।
हमनी के इनरा के निगिचे न जाइलें जा
बांके में से भरि-भरि पिअतानी पानी
हमनी के एतनी काहे के हलकानी।।
महेन्दर मिसिर
महेन्दर मिसिर मिश्रवलिया (नैनी, छपरा) के रहने वाले थे। मिसिर जी की शिक्षा दीक्षा तो बहुत नहीं हुई थी परन्तु निरन्तर लोकचित्त और भोजपुरी भाषा से जुड़े होने के कारण उनकी रचनाओं में मार्मिकता बहुत थी। मिसिर जी रसिक स्वभाव के कला प्रेमी थे। लोक-नृत्य एवं लोकगीत में इनकी गहरी दिलचस्पी थी। इनके गीत बहुत सरस, सुन्दर और प्रेममय होते थे, इसलिए लोक में बहुत जल्दी प्रचलित भी हो जाते थे। इनके मधुर और मार्मिक गीतों का प्रचार छपरा और आरा की वेश्याओं द्वारा भोजपुरी क्षेत्र में खुब किया गया। गहरी राग चेतना से सम्पन्न होने के कारण ये गीत सुनने वाले को बहुत प्रभावित करते थे। सन् 1920 के लगभग इनकी कविताएं शाहाबाद, छपरा, मोतीहारी, देवरिया आदि जिलों में प्रेम से गाई और चाव से सुनी जाती थीं। इन्होंने अनेक तर्जा के गीतों की रचना की है। इनकी रचनाओं में ‘मेघनाद बध’ ‘महेन्द्र मंजरी, ‘कजरी संग्रह’ जैसी कृतियों के अतिरिक्त रामायण का भोजपुरी अनुवाद भी सम्मिलित है –
एके गो मटिया
एके गो मटिया के दुइगो खेलवना
मोर सँवलिया रे, गढ़े वाला एके गो कोहार
कवनो खेलवना के रंग बाटे गोरे-गोरे
मोर संवलिया रे, कवनो खेलवना लहरदार
कवनो खेलवना के अटपट गढ़निया
मोर संवलिया रे, कवनो खेलवना जिउवामार
माटी के खेलवना एक दिन माटी मिलि जइहें
मोर सँवलिया रे, आखिर माटी होइहें बेकार,
कहत महेन्दर मिसिर, अबहू से चेतऽ
मोर सँवलिया रे, मानुष तन मिले ना बार-बार ।
राग कीन्हों रंग कीन्हों, चातुरी अनेक कीन्हों
संग आ कुसंग कीन्हों लागे हाथ झोली में
सास्तर आ पुरान पढ़े भाषा सब देसन के
विजय पत्र लिहलों जाइ देस-देस बोली में
महल आ अटारी तइयारी सब भांति कीन्हों
अइसे ही बितायों निसिबासर ठिठोली में
द्विज महेन्दर घोड़ा रथ हाथी क पीठ चढ़ि
अन्त में चढ़ेंगे आठ काठ की खटोली में ।
हमनी के छोड़ि स्याम गइले मधुवनवाँ से, देइ के गइले ना
एगो सुगना खेलवना, राम देइ के गइले ना
हम विरहिनियाँ के जियते जरवले से, देइ के गइले ना
दिल में विरहा के अगिया, राम देइ के गइले ना
उनहीं कारन हम लोकलाज छोड़नी से, होइए गइले ना
स्याम गुलरी के फुलवा, राम होइए गइले ना
बंसियाँ बजाके स्याम पगली बनवले से, फसिए गइले ना
ओहि कुबरी का सँगवा, राम फसिए गइले ना
बालपन के नेहिया भुलवले कन्हइया से, तेजिए गइले ना
स्याम भइले निर्मोहिया, राम तेजिए गइले ना
कहत महेन्दर स्याम भइले निरमोहिया, से भुलिए गइले ना
मोरा नान्हें के पिरीतीया स्याम भुलिए गइले ना !
मनोरंजन प्रसाद सिन्हा
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में अंग्रेजी के प्रोफेसर और बाद में राजेन्द्र कालेज छपरा के प्रिंसिपल रहे श्री मनोरंजन प्रसाद सिन्हा का जन्म 10 अक्टूबर सन् 1900 ई० को सूर्यपूरा (शाहाबाद) में हुआ था। श्री सिन्हा का परिवार एक सुशिक्षत और संस्कारशील परिवार था, इनके पिता श्री राजेश्वर प्रसाद जी न्यायिक सेवा में थे। इन्होंने हिन्दी में भी अनेक कृतियों की रचना की है, परन्तु इनको अधिक ख्याति ‘फिरंगिया’ नामक भोजपुरी गीत से ही प्राप्त हुई। इस रचना में कवि ने भारत भूमि के गौरवपूर्ण अतीत का स्मरण दिलाकर पराधीनता में विदेशी साम्राज्यवादी शोषण के कारण निरन्तर बढ़ रही गरीबी और अभाव का वर्णन किया है। कवि ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति, देसी उद्योग धन्धे, धन धान्य से परिपूर्ण गाँवों पर विदेशी शासन के दौरान हुए हमलों की बहुत संवदेनशील ढंग से चर्चा की है। अंग्रेजों द्वारा बनाये गए सब नियम कानून भारतीय जनता की स्वाधीन चेतना को बाधित करने के लिए ही थे, इस कविता में इस तथ्य को बहुत प्रभावपूर्ण ढंग से व्यक्त किया गया है। अंग्रेजों के प्रभाव के कारण भारतीय समाज के विघटन का धार्मिक दस्तावेज है। यह कविता तैतीस करोड़ भारतीय जनता के दुःखमरे आंसू अंग्रेजी साम्राज्यवाद की नौवें हिला देंगे- इस विश्वास के साथ पूरी होती कविता । इनकी कविता में मातृभाषा और राष्ट्रभाषा का उदाहरण देख सकते हैं ।
मातृभाषा आ राष्ट्रभाषा
दोहा
जय भारत जय भारती, जय हिन्दी, जय हिन्द ।
जय हमार भाषा विमल, जय गुरू, जयगोविन्द ।।
चौपाई
इ हमार है आपन बोली । सुनि केहू जनि करे ठठोली ।
जे जे भाव हृदय के भावे । ऊहे उतरि कलम पर आवे ।।
कबो संसकृत, कबहूं हिन्दी । भोजपुरी माथा के विंदी ।।
भोजपुरी हमार ह भाषा जइसे हो जीवन के स्वांसा ।।
जब हम ए दुनिया में अइली। जब हम ई मानुस तन पइली।।
तबसे जमल रहल जे टोली । से बोले भी भोजपुरिया बोली ।।
हमहू ओही में तोतरइलीं। रोअली हंसली बात बनइली।।
खेले लगली घुधुआमाना । उपजल धाना पवली खाना ।।
चंदा मामा आरे अइले । चंदा मामा पारे अइले ।।
ले ले अइले सोम कटोरी । दूध भात ओकरा में घोरी ।।
पढुआ लिखुआ करिहें माफ । हम त बात कही लें साफ ।।
हमरा ना केहू से बैर ना । खींचंब केहू के पैर ।।
हम त सब कर करब भलाई । जेतना हमरा से बन पाई ।।
हिन्दी ह भारत के भाषा । ऊहे एक राष्ट्र के आसा ।।
हम ओकरो भंडार बढ़ाइब ओहू में बोलव आ गाइब ।।
तबो न छोड़ब आपन बोली । चाहे केहू मारे गोली ।।
जे मगहीं तिरहुतिया भाई । उनहू से हम कहब बुझाई ।।
ऊहो बोलसु आपन बोली । भरे निरंतर उनकी झोली ।।
दोहा
हम चाहीं सबके भला, जन-जन के कल्याण ।
जन में बसे जनारदन, जगवा में भगवान ।।
कवि को अपने मातृभूमि के प्रति चिन्ता सता रही है उसी को इस कविता के माध्यम से उन्होंने व्यक्त किया है –
फिरंगिया
सुन्दर सुघर भूमि भारते के रहे रामा आज उहे भइल मसान रे फिरंगिया
अन्न-धन जन-बल बुद्धि सब नास भइल कौनो के ना रहल निसान रे फिरंगिया
जहँवा थोड़े ही दिन पहिले ही होत रहे लाखो मन गल्ला और धान रे फिरंगिया
उन्हें आज हाय रामा, मथवा पर हाथ धरि विलखि के रोएला किसान रे फिरंगिया
हाय दैव! हाय ! हाय !! कौना पापे भइल बाटे हमनी के आज अइसन हाल रे फिरंगिया
सात सौ लाख लो दू-दू साँझ भूखे रहे हरदम पड़ेला अकाल रे फिरंगिया
जेहु कुछ बँचेला त ओकरो के लादि-लादि ले जाला समुन्दर के पार रे फिरंगिया
घरे लोग भूखे मरे, गेहुआँ विदेस जाय कइसन बाटे जग के व्यवहार रे फिरंगिया
जहवा के लोग सब खात ना अघात रहे रूपया से रहे मालामाल रे फिरंगिया
उहे आज जेने-जेने अंखिया घुमाके देखु तेने-तेने देखबे कंगाल रे फिरंगिया
बनिज बेयार सब एकड़ रहल नाहीं सब कर होइ गइल नास रे फिरंगिया
तनि-तनि बात लगि हमनी का हाय रामा जोहीले विदेसिया के आस रे फिरंगिया
कपड़ो जो आवेला विदेश से त हमनी का पेन्ह के रखीजा निज लाज रे फिरंगिया
आज जो विदेसदा से आवे ना कपड़वा त लंगटे करब जा निवास रे फिरंगिया
हमनी से ससता में रूई लेके ओकरे से कपड़ा बना-बना के बेचे रे फिरंगिया
अइसहीं – अइसहीं दीन भारत के धनवाँ के लूटि-लूटि ले जाला विदेस रे फिरंगिया
रूपया चालिस कोट भारत के साले-साल चल जाला दूसरा के पास रे फिरंगिया
अइसन जो हाल आउर कुछ दिन रही रामा होई जाइ भारत के नास रे फिरंगिया
स्वाभिमान लोगन में नामों के रहल नाहीं ठकुर सुहाती बोले बात रे फिरंगिया
दिन रात करे ले खुशामद सहेबबा के चाटेले विदेसिया के लात रे फिरंगिया
जहँवा भइल रहे राज परताप सिंह और सुरतान अइसन वीर रे फिरंगिया
जिनकर टेक रहे जान चाहे चलि जाय तबहूँ नवाइब ना सिर रे फिरंगिया
उहवे के लोग आज अइसन अधम भइले चाटेले बिदेसिया के लात रहे फिरंगिया
सहेबा के खुशी लागी करेलन सबिहन अपनो भइअवा के घात रे फिरंगिया
उन्हें आज झुण्ड-झुण्ड कायर के बास बाटे, साहस वीरत्व मइल दूर रे फिरंगिया
केकरा करनिया कारन हाय रे भइल बाटे हमनी के अइसन हवाल रहे फिरंगिया
धन गइल, बल गइल, बुद्धि गइल, विद्या गइल हो गइलीं जा निपटे कंगाल रे फिरंगिया
सब विधि भइल कंगाल देस तेहू पर टीकस के भार ते बढ़ौलें रे फिरंगिया
नून पर टिकसवा, कूली पर टिकसवा सब पर टिकसवा लगावे रे फिरंगिया
स्वाधीनता हमनी के नामो के रहल नाहीं अइसन कानून के बरे जाल रे फिरंगिया
प्रेस एक्ट, आर्स ऐक्ट, इंडिया डिफेंस एक्ट सब मिलि कइलस इ हाल रे फिरंगिया
प्रेस एक्ट लिखे के स्वाधीनता के छीनलस आर्स ऐक्ट लेलस हथियार रे फिरंगिया
इंडिया डिफेंस ऐक्ट रच्छक के नाम लेके भच्छक के भइल अवतार रे फिरंगिया
हाय : हाय ! केतना जुवक भइले भारत के ए जाल में फाँसी नजरबंद रे फिरंगिया
केतना सपूत पूत एकरे करनवा से पड़ले पुलिसवा के फंद रे फिरंगिया ।
पंडित धरीक्षण मिश्र
श्री धरीक्षण मिश्र भोजपुरी के लोकप्रिय और सम्मानित कवि रहे हैं। इनका जन्म चैत रामनवमी सम्बत् 1962, विक्रमी को पूर्वी उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गोरखपुर जनपद के वरियारूपुर गाँव में हुआ था। खड़ी बोली तथा विशेष रूप से अपनी मार्टी की बोली भोजपुरी में सामाजिक एवं राजनीतिक विषयों पर व्यग्यपूर्ण रचनाओं में अच्छी ख्याति दिलाई’शिवजी के खेती’ और ‘कागज के मदारी’ इनके बहुचर्चित काव्य-संकलन है। मिश्र जी को काव्य शास्त्र की बारीकियों की गहरी समझ थी और उनकी कविताओं में अलंकारों की गहरी छटा सर्वत्र विद्यमान है। मात्रिक तथा वर्णिक दोनों प्रकार के छन्दों का सिद्ध प्रयोग काव्य-शास्त्र की साधना का उदहारण है। जीवन के हर क्षेत्र में अनुशासन की प्रेरणा मी यदि संस्कृत व्याकरण के प्रति श्रद्धा से ही निःसृत हो, तो आश्चर्य नहीं। अपने समय की राजनीति और सामाजिक विकृतियों को कवि ने अत्यन्त ईमानदारी से अपनी रचनाओं में व्यक्त किया है। हर सामाजिक राजनीतिक पेंच को मानवीय संवेदना की कसौटी पर परखना कवि का अभीष्ट है। अपनी रचनाओं के माध्यम से मिश्र जी ने आदमी के भीतर दी हुई मनुष्यता को जगाने की कोशिश की है। लोक जीवन के जागरूक रचनाकार के रूप में धरीक्षण मिश्र याद किये जाते रहेंगे। ‘कौना दुखे डोलि में रोवति जाली कनियां’ भोजपुरी का एक सफल काव्य है, जिसमें स्त्री की सामाजिक स्थिति पर बहुत मार्मिक ढंग से प्रकाश डाला गया है। कवि मन करूणा से ओत-प्रोत है और पाठक को मी भीतर तक प्रभावित करने वाली शक्ति इस कविता में है। दहेज प्रथा के साथ ही कन्या पक्ष को हीनतर स्थिति में समझने वाली मानसिकता के विरूद्ध इस कविता की पंक्तियाँ पाठक-मन को जिस तरह विचलित और उत्तेजित करती है वह महत्वपूर्ण है। भोजपुरी की यह कविता किसी भी भाषा की कविता के सामने चुनौती की तरह रखी जा सकती है।
गाँव के साँप के स्वभाव वाले लोगों की भर्त्सना करने वाली कविता “साँप के सुभाव’ भी बहुचर्चित है। श्लेष प्रधान कविता साँप एवं अवसरवादी, स्वार्थी नेता-दोनों पर समान रूप से व्यंग्य करती है।
मिश्रजी को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का नामित पुरस्कार अखिल भारतीय भोजपुरी परिषद का ‘भोजपुरी रतन अलंकर, साहित्य अकादमी नयी दिल्ली फेलोसिप, विश्व भोजपुरी सम्मेलन के ‘सेतु-सम्मान’ के अतिरिक्त अनेक महत्वपूर्ण सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए है। मिश्रजी कुछ जिसमें भारतीय कुरूतियों पर कारगर व्यंग्य किया हैं। मिश्रजी की कुछ महत्वपूर्ण गीत है – जिसमें भारतीय समाज की कुरीतियों पर करारा व्यंग्य किया गया है-
कौना दुखे डोली में रोवति जाति कनियाँ
भारत स्वतन्त्र भैल साढ़े तीन प्लान गैल
बहुत सुधार भेल जानि गैल दुनियाँ
वोट के मिलल अधिकार मेहरारून का
किन्तु कम भैल ना दहेज के चलनियाँ
एही रे दहेज खाती बेटिहा पेरात बाटे
तेली मानों गारि-गारि पेरत बा धनियाँ
बेटी के जनम बा बवाल मैल भारत में
ऐही दुखे डोली में रोवति जाति कनियाँ।
दिल्ली के गद्दी पर बैइठल मेहरारू बा
ओही के बाटे उहाँ चलत परधनियाँ
जल थल आ नभ तीनूं सेना के सेनापति
दागें सलामी ओ के साथ ले पलटनियाँ
यू0पी0 में तिरिया राज बाटै सुतारन भैल
गुप्ता आ त्रिपाठी जी में होत वा बजनियाँ
एहू तिरिया राजो में सुख ना बेटिन का
ऐही दुखे डोली में रोवित जाति कनियाँ।
एके दू कौर खा के रातो दिन रहे के परी
देहि के जरावे लागि भूखि अगिनियाँ
खैला कै पहिले आ पाछे थाती जाँच करे
अइले बला के कुछ माई आ बहिनियाँ
ढेर खइला से सबे लागी बदनाम करे
एसने बा एकरा खन्दान के रहनियाँ
एही तरे केतने महीना ले रहे के परी
ऐही दुखे डोली में रोवित जाति कनियाँ।
जाँचे के हमार मन सासु धरि दीहें कबें
हमरा बिछौना तर लड्डू और बुनियाँ
कुक्कुर बिलारि मूस आ के खाई जाई तब
उल्टे घुमाई लोक हमरे पर घनियाँ
हँसि-हँसि के बानी कबे बिगिहें जेठानी आ
सासु कहि दहि ई त बड़ी बा चटनियाँ
हमरा सफाई के रही ना सुनवाई कहीं
एही दुखे डोली में रोवति जाति कनियाँ।
ओठर सासु दीहें कि एकरा नैहरवा से
आइल कबै ना तनि ढंग से करिनयाँ
एकर खान्दान जरिए क भिखमंगा हवे
करनी ना कवनो बस खाली बा कथनियाँ
एकरा महतारी के फुआ बिआहलि रहे
हमरा मौसी का घरे पांडे का जमुनियाँ
जानि गैनी एकरा से घर ना चली हमार
एही दुखे डोली में रोवित जाति कनियाँ।
आजु जात बानी बन्द होखे एक जेल बीच
जेलर जहाँ के सासु नन्दी जेठनियाँ
हमके दिन रात डेरवइहें धमकइहें ऊ
लंका में जानकी के जइसे रकसिनियाँ
दुइ चार साल के न बाटे जेल के इ सजा
जेले में बीती अब सउँसी जिन्दगियाँ
कवनो अदालत सुनी एकर अपील नाहीं
एही दुखे डोली में रोवति जाति कनियाँ ।
चोरी चुगलाई हम आजु ले न कइनी कहीं
तुरनी का कवनो सरकार के कनुनियाँ
कौन बटे कौन दफा लागू बा हमरा पर
एकर ना पौनी हम आजु ले समनियाँ
एकहू गवाही ना गुजरल विपक्ष में बा
केहु से ना बाटै हमरा से दुसमनियाँ
बेकसूर हमके दियात जेल बाटे आजु
ऐही दुखे डोली में रोवति जाति कनियाँ ।
काल कोठरी समान होइ जेलखाना उहाँ
जहाँ पैसि पाई ना प्रकाश के किरिनियाँ
डेढ़ पोरसा पर कही जंगला जो होई एक
सासु उहीं साजि दीहैं झाँपी अरू मोनियाँ
जेठो बासखवा न सीड़ सूखत होई जहाँ
धूआँ से भरल घर होई कहीं कोन्हियाँ
चउकठ के भीतरे रहे के परी आठो घरी
एही दुखे डोली में रोवति जाति कनियाँ ।
लेवे के साँस ना बतास ताजा पाइबि हम
ओढ़े के परिहें कई पर्त के ओढ़नियाँ
कहियो त गोड़ बड़ा जोर झिन्झिनाए लगी
कहियो दुखाए अगियाएं लगी चनियाँ
डाक्टर कहीं की कमी भइल बा विटामिन बी
नइहर के भूत कहीं ओझा औरू गुनियाँ
केकर जवाब कौन कइसे दे पाइबि हम
एही दुखे डोली में रोवति जाति कनियाँ ।
हमके सौपिं देले बा भाई-बाप जेकरा के
जेकर रहे के बाटे बन के परनियाँ
उनहूँ से बोलत में देखि लीहें सासु कहीं
खीसिन बनी जइहें उ बन के बधिनियाँ
कहिहें कि कइसन कुरहनी ई आइलि बा
एकरा नजर में बा तनिको ना पनियाँ
केहूँ कहीं अब्बे से आपन ई चीन्हें लगलि
एही दुखे डोली में रोवति जाति कनियाँ।
छूट जात बाटे आजु हमरा से भाई-बाप,
छूटि जात बाटे आजु भाई आ बहिनियाँ
काका औरू काकी के न आँखी देखि पाइबि हो
छूटि जात नइहर के नाँव जगरनियाँ
बारी फुलवारी सखियारी सब छूटि जात
सपना समान भइल नइहर क दुनियाँ
माई औरू बाप के रोवाई बा न बन्द होत
ऐही दुखे डोलि में रोवति जाति कनियाँ।
बखरा हमार पिता देले जे दहेज मानि
किन्तु बाटे एइसन समाज के चलनियाँ
कवने मशक्कत से रूपया इ जुटावल बा
ई ना लोग बुझेला समझेला मँगनियाँ
केहू का विदाई मिले केहू का पुजाई मिले
केहू नेग खाति बा चढ़ि जात छन्हियाँ
लूटे आ लूटावे हमरे धन बाटे इहे
एही दुखे डोली में रोवति जाति कनियाँ ।
बाप और दादा जवन सम्पत्ति कमाई गइले
अउरी से छोड़ि गइले जहू के पुनियाँ
सगरी दियाइल ह तब्बो ना ओराइल ह
तिलक दहेज वाला किश्त सोरहनियाँ
बेटहो का घर में ना हाय ! रहि पावल ऊ
लूटेले ओहू के नचनियाँ आ बजनियाँ
रोके के ई लूट अधिकार ना हमार बाटे
ऐही दुखे डोलि में रोवति जाति कनियाँ ।
चौदहे बरिस घर राम छोड़ि दिहले
त पोथी के पोथी लोग लिखले बा कहनियाँ
जन्मभूमि छोड़ि देत बानी आजीवन हम
माथ पर चढ़ाके माई बाप के बचनियाँ
हमरी बेर बाकी त दुकाहे दो सुखि गइल
बाल्मीकी व्यास कालिदास के कलमियाँ
हमरा ए त्याग पै लिखाइल ना ग्रन्थ एको
एही दुखे डोलि में रोवति जाति कनियाँ ।।
मोती बी0 ए0
मोतीलाल उपाध्याय, जो साहित्य की दुनिया में “मोती बी0 ए0” नाम से विख्यात है, भोजपुरी के सशक्त और आधुनिकता से सम्पन्न एक महत्वपूर्ण रचनाकार है। भोजपुरी को प्रतिष्ठित करने और उसे संचार माध्यमों में भी लोकप्रिय बनाने में मोती जी का महत्वपूर्ण योगदान है। कविता के इस मोती का जन्म देवरिया जिले के बरेजी गांव (बरहज बाजार के समीप) 1 अगस्त 1919 को हुआ। उनके पिता श्री राधाकृष्ण उपाध्याय धार्मिक विश्वासों के संस्कारवान व्यक्ति थेमोती जी का जीवन सक्रीयता एवं संघर्षों से भरा हुआ है। प्रसिद्ध समाचार पत्रों “आज”, “संसार और आर्यावर्त” के सम्पादकीय विभागों से जुड़े रहने के साथ ही उन्होंने स्वाधीनता संघर्ष में हिस्सा लिया जिसके कारण दो वर्षों तक जेल की यातना भी भुगतनी पड़ी। जेल से छूटने के बाद मोती जी फिल्मों के लिए गीत लिखने में व्यस्त हो गए। “साजन” और “नदिया के पार’ जैसी फिल्मों को लोकप्रिय बनाने में उनके गीतों की भी भूमिका रही है । घोर व्यावसायिकता और यान्त्रिक दबाव को अधिक दिन तक सहन नहीं कर सकने के कारण 1952 में मोती जी ने घर का रास्ता पकड़ा और एक स्थानीय इण्टर कालेज में अध्यापन करते हुए अपनी रचना-यात्रा को अबाध गति प्रदान की। मंचों पर अपनी कविताओं के रस के साथ अपने सरस स्वर के कारण भी अत्यन्त लोकप्रिय मोती जी ने हिन्दी एवं भोजपुरी में महत्वपूर्ण रचनाएँ की।
फिल्मी दुनिया के मोह जाल से वापस अपने गाँव-घर की दुनिया में आने के बाद मोती जी ने भोजपुरी को अपनी रचनाधर्मिता अर्पित की। उनकी अनेक विशिष्ट रचनाओं ने साहित्य-समाज को अपने लोकरस और लोकरंग से प्रभावित किया। ‘महुआबारी’ तथा ‘तनि अउरी दउरऽहिरना पा जइबऽकिनारा’ जैसी रचनाओं ने भोजपुरी शब्दावली में निहित काव्यात्मकता और रूप-रस-गन्धमयता का परिचय दिया और शीघ्र ही ये कविताएँ लोक-कण्ठ ओर लोकमन में पहुंच गयी। उनकी पुस्तक ‘सेमर के फूल’ 1972 में प्रकाशित हुई, जिससे हिन्दी और भोजपुरी के पाठकों में उनकी काव्य-प्रतिभा के प्रति सम्मान का भाव स्थिर हुआ। इसके बाद “भोजपुरी मेघदूत’ आदि रचनाओं ने न सिर्फ मोती जी का, बल्कि भोजपुरी का भी गौरव बढ़ाया। इनकी कविता में महुआ की वैशिष्टता को कवि ने बड़े ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है –
महुआबारी में बहार
असों आइल महुआवरी में बहार सजनी,
कोंचवा मातल भुइया छुए
महुआँ रसे-रसे चूए
जबसे बहे भिनुसारे के बेयारि सजनी।
पहिले हरका पछुआ बहलि झारि गिरवलसि पतवा
गहना बीखो छोरि के मुंडववलसि सगरे मथवा
महुआ कुछु नाहीं कहलें जइसन परल ओइसन सहलें
तबले झारे लागलि पुरूवा दुआरि सजनी ।
एइसन नसा झोंकलसि कि गदाए लागलि पुलुई
पोरे-पोरे मधू से भराए लागलि कुरूई
महुआ एइसन ले रेगरइलें, जरी पुलुई ले कोंचइलें
लागल डाढ़ी डाढ़ी डोलियाँ कहार सजनी ।
गड़ी लागल रब्बी के लदाइल खरिहनवा
दवरी खातिर ढ़हले बाड़े डॅठवा किसनवा
रस के मातल महुआ डोले, फुलवा खिरकी से मुँह खोले,
घरवा छोड़े के हो गइल बा तइयार सजनी ।
होत मुन्हारे डलिया दउरी लेके गइली सखिया
लोढ़े लगली फुलवा जुड़ावे लगली अँखियां,
महुआ टप-टप फूल चुआवे, लइका सेल्हा ले ले धावें
अब लागि गइल दुसरे बाजार सजनी ।
कोंचवा के दुधवा से गोदना गोदावेली
केहू जानी महुआ के लपसी बनावेली
केहू भेजि दिहल देसाउर, केहू घरे सरावे चाउर
लागल चढ़े उतरे नसा आ खुमार सजनी ।
सँइया खातिर बारी धनिया महुअर पकावेली
केहू बनिहारे खातिर तावा पर तलावेली
महुआं बैल प्रेम से खावें, गाड़ी खींचे, जोत बनावें
ई गरिबवन के किसमिस अनार सजनी ।
ओखरी में मूडी डरलें, मूसर से कुटइलें,
लाटा बनिके बाहर आइलें, हाथे-हाथे भइले,
केतना कइलें कुरबानी, केतना कही ई कहानी,
बहे अँखियां से असुआ के धार सजनी ।।
अपना जनमला के बाति जे विचारी,
कोइना ओकर नाव राखी बाप महतारी,
कोइना सेंकले बेवाई; पकना खा लइके अधाई
उहाँ जरे जहाँ देखले अन्हार सजनी ।
दुनिया खातिर त्यागी भइले जोगी रूप बनवलें
आपन सम्पत्ति दूनू हाथे सबके लुटवलें
जेतना होला वोतना देलें, बदला कुछु नाही लेलें
करिके कलऊ में अइसन उपकार सजनी ।।
नरम-नरम, हरियर-हरियर ओढ़ले चदरिया
फेल से महुआ दुलहा भइलें बन्हले पगरिया
जइसे दिहले, ओइसे पवलें, कवि जी कविता में ई गइलें
ऐ संसार में ना चलेला उधार सजनी ।।
जवने हाथे देवऽ पंचे ओही हाथे पइबs
जवन जिनिस बोवबऽ तू ओही के ओसइबऽ
केहू काहे पछताला, केहू काहे घबराला
एइसन जिनिगी में मिली ना सुतार सजनी ।।
कोंचवा मातल भइया छूए, महुआ रसे-रसे चुए
जबसे बहे भिनुसारे के बेयारि सजनी
असो आइल महुआबारी के बहार सजनी ।।
रामजियावन दास “बावला”
“बावला” जी का जन्म 1922 में 1 जून को वाराणसी जिले में चकिया के पास भीषमपुर गाँव में हुआ था। उनके पिता राजदेव विश्वकर्मा शुद्ध खेतिहर थे। रामजियावन दास ने गाँव गोरू के सम्पर्क में ही अपनी काव्य सम्वेदना का विस्तार किया। उनकी रचनाशीलता, संवेदना और कला, किताबों और ज्ञान के दूसरे माध्यमों से विकसित नहीं हुई, बल्कि सीधे जीवन की निकटता और टकराहट में से निकली है। सीधे हृदय से निकलने वाली कविताएँ हैं। रामजियावन दास ‘बाबला’ की इसीलिए सीधे हृदय तक पहुंचती है। लेखकों में छपास और यश की, रोतों-रात महत्वपूर्ण हो जाने, यशस्वी हो जाने तथा पद प्राप्त करने की जो हड़बड़ी आम तौर पर दिखाई देती है, वह बावला जी में नहीं है। उनकी कविता सीधे जिन्दगी के रूई सूत से बनने वाली कविता है। रामकथा के मार्मिक स्थलों को अपनी रचना का विषय बनाते हुए भी बावला जी कबीरदास की परम्परा से जुड़ते हैं। तिलमिला देने वाले सवाल निकलते है, उनकी कविताओं और गीतों से। गाँव के भोले-भाले सहज लोगों को सरकारी और गैरसरकारी अमले के कितने तरह के शोषण का शिकार होना पड़ता है – इसका पूरा दस्तावेज है बावला जी का रचना संसार। आँकड़े बाज नेताओं, मन्त्रियों और अधिकारियों से, व्यवस्था के लागातार बढ़ते जा रहे जनविरोधी स्वरूप पर उन्होंने जो प्रश्न पूछे है अपनी कविताओं के माध्यम से, वे तिलमिला देने वाले हैं। एक उदाहरण देखिये –
हमके बतावउ कि चिरइन की जान बदे भारत के पास बन्दूक कुल केतना हौ? इनकी कविता में गाँव में रहने वाले लोगों की विचारधारा को प्रस्तुत किया गया है।
गाँव क बात
गीत जतसरिया क होत भोरहरिया में, तेतरी मुरहिया क राग मन मोहई ।
राम के रटिनियाँ सुगनवा के पिजरा में, ओरिया में टॅगल अंगनवा में सोहइ।
भाँव-भाँव करैला बछरूआ मड़इया में, गइयवा होंकारि के मड़इया में जोहइ ।
चतुरी क चिलम चढ़ल गुड़गुड़िया प, बतिया प बात घुरफेकना सरोहइ ।
पियरी पहिरि के सिवान मुसुकात बाय, रहि रहि मधुरी बयार विष धोलइ ।
तितिली रंगाय भांति-भांति क चुनर चलै, रसिया भवर फुलवरिया में डोलइ ।
आँख मारइ उँखिया लगाइ के कजरवा कि, मसकि-2 रहि जाय नहिं बोलइ ।
चाहे केहू कतनो दुखाइ ले दबाइ लेउ, चाहे आजमाई केहू मारि लेउ पेटा ।
दउ रूठ जाय चाहे रजवा कोहाइ जाउ, ससुरी समइया अइठि जाउ घंटा ।
दुनिया के जाल जंजाल के समेटले बा, कसले बा कसके कमरिया क फेंटा ।
साहसी सपूत अनुकूल बल बहियाँ में, कबो ना निरास हो किसनवा क बेटा ।।
गाँव के देहात वाली बात भोजपुरिया के, पूरिया के लोटि के हँसैले लरिकाई।
आसन बसन में घसन बाटै मटिया क, टटिया मड़इया में बिछैले चटाई ।
ललुआ क लोरकी नन्हकुआ क विरहा, कि निबिया के छहिया जमकलैं रे भाई।
दुनिया क लेखा-जोखा अंगुरी के पोर-2, ओर-छोर धरती के जात बा कमाई।।
कबो के अकाल कबों कबों बढ़ियरिया में, सगरी कियरिया चभोर जाला पनिया।
कबों कबों लागल फसिलिया सुखाई जाले, बिजुरी गिराई मारै अल्हरै जवनिया।
कबहूँ के पाला कबों पथरा बरनि जाला, धंसि जाले टूटि के पुरनकी पलनिया ।
कठिन करेज गिरहतिया सम्हरले बा, धन रे किसान तोहरी किसनिया ।।
गोरख पाण्डेय
‘भोजपुरी के नौ गीत’ द्वारा भोजपुरी क्षेत्र में और ‘जागते रहो सोने वालों’ नामक हिन्दी काव्य संकलन द्वारा देश भर में अपनी क्रान्तिकारी छवि निर्मित करने वाले गोरख पाण्डेय का जन्म सन् 1945 में देवरिया जिले के एक गाँव ‘पण्डित के मुण्डेरवा’ में हुआ था। बचपन से ही सामन्ती परिवेश को बहुत भीतर से देखने के कारण उसके प्रति हिकारत का भाव बनता रहा, जिसने गोरख पाण्डेय की कविताओं के लिए जमीन और विचार के लिए पूरी संवदेना के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। दर्शनशास्त्र में एम0 ए0 करने के बाद किसान आन्दोलनों की गहरी पड़ताल करते हुए गोरख पाण्डेय को भोजपुरी में कविता लिखकर अपनी बात गाँव-गाँव घर-घर तक पहुंचाने की जरूरत महसूस हुई। गोरख पाण्डेय ने कविता को, जीवन और समाज में बदलाव के महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में स्वीकार किया। इसलिए उनकी कविता में राजनीति का गहरा सरोकार मिलता है। गोरख पाण्डेय को जनता की संगठित शक्ति पर पूरा भरोसा था, इसलिए कविता लिखने के साथ हो वे जन संगठनों में भी सक्रिय रहे और समाज के सांस्कृतिक बदलाव के लिए जन संस्कृति मंच जैसे संगठनों की स्थापना में सक्रिय रहे। समस्त समुदाय के प्रति अपने उत्तरदायित्व का गहरा बोध गोरख पाण्डेय को बराबर बेचैन करता रहा, इसलिए उनकी कविता संघर्ष के लिए सक्रिय करने वाली कविताएं है। वे समतामूलक समाज की स्थापना के लिए जुझने वाले रचनाकार थे और शोषण पर आधारित पूरी समाज व्यवस्था के पेंच को बड़ी बारीकी से समझते थे इसलिए उन्होंने ‘समाजवाद’ जैसे खूबसूरत सपने के साथ भी खिलवाड़ करने वाली मनुष्यता विरोधी ताकतों को बेनकाब किया और उनसे जाने की प्रेरणा दी। सही अर्थो में उनकी कोशिश अपने शोषण से बेखबर लोगों को वास्तविकता बताने तथा उन्हें जगाने की थी, इसलिए उन्हें जन जागरण के कवि के रूप में याद किया जाता है। उदाहरण के लिए इनकी कविता “सपना’ को देख सकते हैं –
सपना
सूतल रहली सपन एक देखली
सपन मनभावन हो सखिया
फटलि किरिनिया पुरूब असमनवा
उजर घर आँगन हो सखिया ।
अँखियाँ क नीरवा भइल खेत सोनवा
त खेत भइलें आपन हो सखिया
गोसँया के लठिया मुरइया अस तूरली
भगवली महाजन हो सखिया ।
केहू नाहीं ऊँचा-नीचा केहू के ना भय
नाहीं केहू बा भयावन हो सखिया
मेहनति माटी चारों ओर चमकवली
ढहल इनरासन हो सखिया
बहरी पइसवा के रजवा मेटवली
मिलल मोर साजन हो सखिया ।
मैना
एक दिन राजा मरलें आसमान में उड़त मैना
बान्हि के घेर ले अइलें मैना ना
एकरे पिछले जनम के करम
कइली हम सिकार के धरम
राजा कहे कुँवर से अब तू लेके खेलऽ मैना
देखऽ कतना सुन्दर मैना ना
खेलें लगलें राजकुमार
उनके मन में बसल सिकार
पहिलें पारिख कतरी के कहलें अब तू उड़ि जा मैना
मेहनत कै के उड़ि जा मैना
पॉखि बिना के उड़े पाय
कुँवर के मन में गुस्सा छाय
तब फिर टाँग तोड़ी के कहलें अब तू नाचऽ मैंना
ठुमकि-ठुमकि के नाचऽ मैना ना
पाँव बिना के नाचे पाय
कुँवर गइले अब बउराय त
ब फिर गला दबा के कहल अब गावऽ मैना
प्रेम से मीठा गावs मैंना
मरके कइसे गावे पाय
कुँवर राजा के बुलवाय
कहले बड़ा दुष्ट बा एको बाति ना माने मैना
सारा खेल बिगाड़े मैना ना
जबले खून पिअल ना जाय
तबले कवनो काम न आय
राजा कहें कि सीखऽ कइसे चूसल जाई मैना
कइसे स्वाद बढ़ाई मैना ना।।
जागरण
बीतऽता अन्हरिया के जमनवा हो संघतिया
सबके जगाऽ द
गँऊवा जगा द आ सहरवा जगा द
छतिया में भरल अंगरवा जगा द
जइसे जरे पाप क खनवा हो संघतिया
सबके जगा द
तनवा जगा द आपन मनवा जगा द
अपने अँगरवा के धनवा जगा द
ठग देखि मागे जगरनवा हो संघतिया
सबके जगा द
नेहिया के बन्हल परनवा जगा द
असुँआ में डुबल सपना जगा द
मुकुती के मिलल बा बयनवा हो संघतिया
सबके जगा द
हथवा जगा द हथियारवा जगा द
करम जगा द आ विचरवा जगा द
रोसनी से रचऽ जहनवा हो संघतिया
सबके जगा द
बीतऽता अन्हरिया के जमनवा हो संघतिया
सबके जगा द ।।
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