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हँसि हँसि पनवा खियवले बेइमनवा

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हँसि हँसि पनवा खियवले बेइमनवा
हँसि हँसि पनवा खियवले बेइमनवा

ओ ऽ ऽ ऽ ऽ
हँसि हँसि पनवा खियवले बेइमनवा
हँसि हँसि पनवा खियवले बेइमनवा

कि अपना बसे रे परदेस
कोरी रे चुनरिया में दगिया लगाइ गइले
मारी रे करेजवा में तीर
हे ऽ ऽ ऽ ऽ दोहाई हऽ दोहाई हऽ
कजरी नजरिया से खेलइ रे बदरिया
कजरी नजरिया से खेलइ रे बदरिया
कि बरसइ रकतवा के नीर
दरदी के मारे छाइ जरदी चनरमा पे
गरदी मिली रे तकदीर
तकदीर दोहाई हऽ दोहाई हऽ
चढ़ते फगुनवा सगुनवा मनावइ गोरी
चइता करे रे उपवास
गरमी बेसरमी ना बेनिया डोलाये माने
डारे सँइया गरवा में फाँस
हो हँसि हँसि पनवा खियवले बेइमनवा
कि अपना बसे रे परदेस
कोरी रे चुनरिया में दगिया लगाइ गइले
मारी रे करेजवा में तीर

ये गीत बिहार रत्न से सम्मानित स्वर्गीय भिखारी ठाकुर जी का लिखा हुआ है, जिसे मन्ना डे ने गाया है और इसे भोजपुरी फिल्म “विदेशिया” में लिया गया था। ये विरह का अमर गीत आजतक लोकप्रिय है। भिखारी ठाकुर का जन्म १८ दिसम्बर, १८८७ को बिहार के सारन जिले के कुतुबपुर (दियारा) गाँव में एक नाई परिवार में हुआ था और १० जुलाई, सन १९७१ को चौरासी वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ था। भिखारी ठाकुर के बारे में जब जानने के लिए मैंने अध्ययन करना शुरू किया तो मुझे पता चला कि वो स्कूल में नहीं पढ़े थे। घर पर ही नाई का अपना पारिवारिक कार्य करते हुए उन्होंने पढ़ना लिखना सीखा था। जनमानस को जागरूक करने वाली उनकी अमर कृतियाँ कैसे रचीं गईं, ये जानकर आप भी उस महान कलाकार के सामने श्रद्धा से अपना सिर झुका देंगे। भिखारी ठाकुर मिटटी के बने मकान में रहते थे। मकान के आगे बनी मड़ई में वो लोगों का बाल काटने और दाढ़ी बनाने का काम करते थे। मड़ई के छप्पर में वो कैंची, कंघी और उस्तरा रखते थे और उसी छप्पर में एक कॉपी और पेन्सिल रखते थे। जब कोई ग्राहक आ जाता था तो बाल दाढ़ी बनाते थे और जब कोई ग्राहक नहीं होता था तो अपनी कालजयी और समाज सुधारक कृत्यों की रचना करने में लग जाते थे। धन्य थे वो, उन्हें नमन करते हुए ये ब्लॉग उनके सम्मान में समर्पित है। इस महान लोक कलाकार को ‘भोजपुरी का शेक्शपीयर’ भी कहा जाता है।

उन्होंने मनोरंजन के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का अथक प्रयास किया। वो भोजपुरी गीतों, भजन कीर्तन एवं नाटकों की रचना करने एवं अपने सामाजिक सुधार कार्यों के लिये प्रसिद्ध हुए। उनकी प्रसिद्द व अमर कुछ रचनाएँ हैं- बिदेशिया, गबर घिचोर, गंगा स्नान, बिधवा-बिलाप और बेटी बेचवा। उन्होंने अपने गांव में एक नृत्य मण्डली बनाई थी, जो नृत्य करके, गीत गाकर. नाटक और रामलीला करके न सिर्फ लोगों का मनोरंजन करती थी, बल्कि उस समय की सामाजिक बुराईयों जैसे- नशा करने की लत. बाल विवाह प्रथा, दहेज़ प्रथा, विधवा विवाह न करने की प्रथा और सबसे दुखद थी- बेटी बेचने की प्रथा। बिहार में उन दिनों अक्सर माता पिता अपनी नाबालिग लड़कियों की शादी मोटी रकम लेकर किसी अधेड़ या बूढ़े व्यक्ति से कर देते थे। अपने लोक नाटक “बेटी बेचवा” में उन्होंने उन लड़कियों का दुःख बयान किया है, जिनके पिता पैसा लेकर बूढ़े से शादी कर दिए थे। भिखारी ठाकुर का लिखा ये अमर गीत जब मंच पर गाया जाता था तो ये दर्दभरा गीत सुनकर लड़कियों और ओरतों की रुलाई बंद नहीं होती थी। पूरा माहौल गमगीन हो जाता था। बहुत से माता पिता इस गीत को सुनकर जागरूक हुए और बेटी बेचने की शर्मनाक प्रथा कुछ कम हुई। उनका लिखा हुआ “बेटी बेचवा” लोक नाटक का ये बहुत दर्दभरा गीत देखिये-

रुपया गिनाई लिहला,पगहा धराई दिहला,
चिरिया के छेरिया बनवलअ हो बाबूजी
साफ क के अंगना गली,छिपा लोटा जूठी थाली,
बनके रहलीं माई के टहलनी हो बाबूजी,
वर खोजे चली गइला,माला ले के घरे अईला,
दादा लेखा खोजला दुलहवा हो बाबूजी
रुपया गिनाई लिहला,पगहा धराई दिहला,
चिरिया के छेरिया बनवलअ हो बाबूजी
अगुआ अभागा रहे,बड़ा रे मुंहलागा रहे.
पूड़ी खा के छुरिया चलवलस हो बाबूजी,
अइसन देखवलस दुःख,सपना भइल सुख
सोनवा में डललस सुहगवा हो बाबूजी

रुपया गिनाई लिहला,पगहा धराई दिहला,
चिरिया के छेरिया बनवलअ हो बाबूजी
मुंहवां में दांत नइखे,हलुआ घोटात नइखे.
बाबा नियर लागेला दुलहवा हो बाबूजी,
रुपया गिनाई लिहला,पगहा धराई दिहला,
चिरिया के छेरिया बनवलअ हो बाबूजी
ख़ुशी से होता विदाई,पत्थर छाती कइलस माई,
दुधवा पियाईल विसरईलीं हो बाबूजी
कहता भिखारी नाई,घर,कूत्तु पूरा गाई
फेर मत करिहअ एइसन काम मोरे बाबूजी
रुपया गिनाई लिहला,पगहा धराई दिहला,
चिरिया के छेरिया बनवलअ हो बाबूजी

– आलेख और प्रस्तुति: श्री राजेंद्र ऋषि जी

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