बिहार और उत्तर प्रदेश के भोजपुरी भाषी क्षेत्र में दीवाली के पहले या बाद में घर से दलिदर भगाने की प्राचीन परंपरा है। गांव की स्त्रियां टोली बनाकर ब्रह्म बेला में हाथ में सूप और कलछुल या छड़ी लेकर घरों से निकलती हैं और सूप ढबढबाते हुए दलिदर को दूसरे गांव की सीमा तक खदेड़ आती हैं।
दलिदर भगाने की यह लोक परंपरा कब और कैसे शुरू हुई इसका कोई प्रमाण तो नहीं है, लेकिन हमारे शास्त्रों और पुराणों में इसके सूत्र मौजूद हैं। पुराणों में समुद्र मंथन में कई रत्नों के साथ सुख, समृद्धि और वैभव की देवी लक्ष्मी के मिलने की कथा है। लक्ष्मी के पहले समुद्र से लक्ष्मी की बड़ी बहन अलक्ष्मी अवतरित हुई थी।
वृद्धा और कुरूप अलक्ष्मी को देवताओं ने दरिद्रता, दुख और दुर्भाग्य की देवी मानते हुए उसे वरदान दिया- ‘जाओ जिस घर में कलह हो, तुम वहीँ रहो।’ पद्मपुराण के अनुसार विष्णु से लक्ष्मी का विवाह होने के पूर्व ज्येष्ठा अलक्ष्मी का विवाह उद्दालक ऋषि से करना पड़ा था। लिंगपुराण की कथा के अनुसार अलक्षमी का विवाह ब्राह्मण दु:सह से हुआ जिसके पाताल चले जाने के बाद वह अकेली एक पीपल के वृक्ष के नीचे रहने लगीं। वहीं हर शनिवार को लक्ष्मी उससे मिलने आती हैं। अत: शनिवार को पीपल का स्पर्श लक्ष्मीप्रद तथा अन्य दिनों में दरिद्रता देनेवाला माना जाता है।
वैष्णव साहित्य में हलाहल को दरिद्रता की देवी अलक्ष्मी से जोड़ कर देखा गया है। लक्ष्मी का संबंध मिष्ठान्न से है, जबकि अलक्ष्मी का संबंध खट्टी और कड़वी चीजों से है। यही वजह है कि मिठाई घर के भीतर रखी जाती है और नीबू तथा तीखी मिर्ची घर के बाहर। लक्ष्मी मिठाई खाने घर के अंदर तक आती हैं। अलक्ष्मी नींबू और मिर्ची खाकर घर के दरवाज़े से ही संतुष्ट लौट जाती हैं।
भोजपुरी लोक संस्कृति में दरिद्रता की इसी देवी अलक्ष्मी को दलिदर कहकर वहिष्कृत किया जाता है। गांव की औरतें भोरे-भोर सूप बजाती हुई उसे दूसरे गांव के सिवान तक खदेड़ आती है। अगले गांव की औरतें भी यही करती हैं। इस तरह इलाके के तमाम गांवों की औरतों में दलिदर को बगल वाले गांव की सीमा तक छोड़ने की ऐसी प्रतिस्पर्द्धा चलती है कि अलक्ष्मी उर्फ़ दलिदर को इलाके से निकलने का कोई रास्ता ही नहीं मिलता। शायद यही वज़ह है कि सदियों तक खदेड़े जाने के बावजूद देश में दलिदर आज भी जस का तस बना हुआ है।
लेखक: ध्रुव गुप्त जी
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