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बाबू कुंवर सिंह

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बाबू कुंवर सिंह

भोजपुरी लोकजीवन में बाबू कुंवर सिंह का चरित्र परिव्याप्त है। बिहार राज्य में बाबू कुंवरसिंह को नाम बालक, युवक, बृद्ध सभी जानते हैं। स्वातंत्रय-प्रेम का, पराक्रम एवं त्याग का अभूतपूर्व आदर्श बाबू कुंवर सिंह ने सबके सम्मुख रखा है। १८५७ के भारतीय विद्रोह के प्रधान अधिनायकों में उनको नाम आता है। बिहार के तो वे बिना मुकुट के राजा थे। उनकी वीरता महारानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे तथा नाना साहब इत्यादि वीरों से किसी भी प्रकार कम न थी। अस्सी वर्ष की वृद्धावस्था में उन्होंने जो पराक्रम दिखलाया उसकी प्रशंसा अंग्रेजों ने भी की है। भोजपुरी लोकगाथाओं में यही एक मात्र अर्वाचीन लोकगाथा है। वीरकथात्मक लोकगाथा के साथ-साथ यह एक ऐतिहासिक गाथा भी है।

बाबू कुंवर सिंह
बाबू कुंवर सिंह

बाबू कुवर सिंह का संबंध उस कुलीन राजपूत वंश से था जिसके कारण आज बिहार राज्य की पश्चिमी बोली को भोजपुरी नाम से अभिहित किया जाता है। बिहार के शाहाबाद जिले के अन्तर्गत भोजपुर नामक गांव है। यह उज्जैन राजपूतों का गांव है । श्री राहुल सांकृत्यायन का मत है कि चौदहवीं शताब्दी में महाराज भोज के वंश के श्री शान्तनुशाह, धार की राज़ धानी मुसलमानों के हाथ में पड़ जाने के कारण पूरब की ओर बढ़े और बिहार के इस भाग में पहुँचे । यहाँ के पुराने शासकों को पराजित करके महाराज शान्तनुशाह ने पहले दांवा (बिहिआ स्टेशन) को अपनी राजधानी बनाई। उनके वंशजों ने जगदीशपुर, मठिला, और अन्त में डुमरांव में अपनी राजधानी स्थापित की ।

इसी जगदीशपुर से बाबू कुंवर सिंह का संबंध है। उज्जैन राजपूतों की वंश परंपरा आज भी यहाँ पर है । बाबू दुर्गा शंकर प्रसाद सिंह ने अपनी पुस्तक में पितामहों द्वारा प्राप्त एक अलग वंशावली दी है । वंशका प्रारंभ राजा भोज से ही है। उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि चौदहवीं शताब्दी में इस वंश का बिहार में आगमन हुआ। इनका कथन है कि कालान्तर में चलकर राजपूतों का राज्य कई टुकड़ों में बँट गया। जगदीशपुर भी उन्हीं टुकड़ों में से एक था। पहले तो यह एक साधारण ज़मीदारी के रूप में था, परन्तु शाहजहां के दरबार से जगदीशपुर रियासत के मालिक को राजा की उपाधि मिली। उसी समय वहाँ के मालिक राजा के नाम से पुकारे जाने लगे। इस समय से लेकर १८५७ ई० तक जगदीशपुर के राजाओं का बिहार के अधिकांश भाग पर एकाधिपत्य था। मुग़लंकाल में इसे भोजपुर सरकार कहा जाता था।

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बाबू कुंवर सिंह के पिता का नाम बाबू शाहज़ादा सिह था। मृत्यु के पूर्व शाहजादा सिंह उन्हें अपनी जमींदारी के तीन चौथाई भाग का मालिक बना गये थे। शेष एक चौथाई भाग में उनके तीन भाई दयालसिंह, राजपतिसिंह तथा अमरसिंह सम्मिलित थे । उज्जैन वंशी राजपूतों में बाबू कुंवरसिंह बड़े प्रतापी शासक हुये । उनका मान-सम्मान उन्हीं के वंश के डुमरांव के समकालीन महाराजा से बढ़-चढ़कर था। वे बहुत ही लोकप्रिय थे और युवावस्था में ही समस्त बिहार में राजपूतों के अग्रगण्य बन गये थे।

बाबू कुंवर सिंह का चरित्र

भारतीय पुनर्जागरण के इतिहास में बाबू कुंवर सिह का नाम अमर है। अपने जीवन के संध्याकाल में इस महापुरुष ने जो वीरता दिखलाई उससे उसके कुल का, प्रदेश का तथा समस्त देश का अन्धकारमय विगत इतिहास प्रदीप्त हो उठा। सर्वत्र स्वातन्त्र्य भावना की लहर दौड़ गई। विदेशियों के चंगुल से छुटकारा पाने के लिये यह महादेश जाग पड़ा और प्रायः अर्द्धशताब्दी तक विदेशियों से जूझते हुये अपने ध्येय का साक्षात्कार किया।

संग्राम में भाग लेने के पूर्व बाबू कुँवरसिंह को जीवन अत्यन्त साक्गी का था। वे सादा वस्त्र पहनते थे और सादा जीवन व्यतीत करते थे । पराक्रम उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ था। बाल्यकाल से ही उन्हें वीरता के कार्यों में अधिक रुचि थी । अध्ययन में उनकी रुचि कम थी। सदा हथियार चलाने, घुड़सवारी करने और शिकार खेलने में ही मस्त रहते थे। अपनी बलिष्ठ भुजाओं के कारण वे यौवनकाल ही में बिहार के राजपूतों के अग्रगण्य हो गये थे । सब लोग उनका आदर करते थे। कोई उनके विरुद्ध एक बात भी बोलने का साहस नही करता था। शाहाबाद जिले के तो वे राजा ही थे । इस प्रदेश में उनका ऐसा प्रताप व्याप्त था कि वे जिस रास्ते निकल जाते थे, उधर के लोग रास्ते के दोनों किनारे हाथ जोड़कर खड़े हो रहते थे। कोई उनके सामने ँचे स्वर से बात नहीं करता था, कोई तम्बाकू नहीं पीता था, कोई छाता नहीं लगाता था। उनका ऐश्वर्य सम्राट की भाँति था।

उनकी यह धाक बलपूर्वक नहीं जमी थी। वस्तुतः वह एक लोकप्रिय व्यक्ति थे। दुःखी जन की सेवा ही उनका व्रत था । परोपकार में उन्होंने अपना खजाना खाली कर दिया। उनके ऊपर बीस लाख रुपये का कर्ज चढ़ गया; परन्तु लोक सेवा का व्रत नहीं टूटा। शरणागत्वत्सलता उनमें कूट-कूट कर भरी थी। उनके यहाँ से कोई खाली हाथ नहीं लौटता था। एक बार नेपाल के रणदलन सिंह खून करके उनकी शरण में आये । बाबू साहब ने अपने यहाँ शरण दिया। संग्राम में चलकर रणदलनसिंह उनका प्रमुख सेनापति बनी।

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बाबू कुँवर सिंह ने अपने जीवन में किसी से झगड़ा नहीं मोल लिया। सभी उनके मित्र थे । यहाँ तक कि अंग्रेज भी उनके मित्र थे । औरों का कलक्टर तथा पटने को कमिश्नर टेलर भी उनके घनिष्ट मित्रों में से थे । इतिहासकार होम्स भी इस मित्रता का समर्थन करता है । परन्तु सन्देह की कोई दवा नहीं। अंग्रेजों ने बाबू साहब पर अविश्वास प्रकट किया। वह भारतीय वीर भला इस अविश्वास को कैसे सहन कर सकता था। उसने म्यान से तलवार बाहर निकाल ली और समरांगण में कूद पड़ा। अंग्रेजों को भी भारत के वृद्ध बाह का प्रताप देखना था। उन्होंने खुली आँखों से देखा । कुँवर सिंह का नाम उनके लिये भयावह हो गया।

वीरता के साथ साथ बाबू कुँवर सिंह में नीतिमत्ता भी थी। संग्राम में भाग लेने के पूर्व उनकी नीतिकुशलता का उदाहरण पुनः प्रस्तुत करना अनुपयुक्त न होगा। पटना से टेलर ने एक डिप्टी कलक्टर को कुँवरसिंह को बुलाने के लिये भेजा । कुँवरसिंह तोड़ गये । डिप्टी कलक्टर ने कहा, ‘आपके न जाने से टेलर साहब को आप पर जरूर शक होगा।’ इस पर बाबू साहब ने गम्भीर भाव से उत्तर दिया, ‘आप मेरे पुराने दोस्त हैं, उसी दोस्ती की याद दिलाते हुए मैं आप से पूछता हूँ कि क्या आप ईमान से कह सकते हैं कि पटने जाने पर मेरी कोई बुराई न होगी ?’ डिप्टी साहब इसका कुछ उत्तर न दे सके और चुपचाप चलते ( १२४ ) बने । यह घटना इतिहास के उस चिरस्मरणीय घटना को स्मरण कराती हैजब अफजल खाँ ने एक ब्राह्मण द्वारा शिवा जी को निमन्त्रित किया था।

उनकी व्यक्तिगत वीरती अप्रतिम थी । अस्सी वर्ष की वृद्धावस्था में घोड़े पर सवार होकर युद्ध करना वास्तव में एक अद्भुत कार्य था। कुँवरसिंह तलवार लेकर स्वयं पिल पड़ते थे। अपनी वीरता का ‘नजराना’ उन्होंने गंगा को कैसे दिया इसका कितना सुन्दर वर्णन लोकगाथा में है।

रामा गोली आई लागल दहिना हथवा रेना
मिा हाथ होइ गइल बेकरवा रेना
रामा जानिकर हाथ बेकरवा रेना
रामा काटि दिहले लेके तरवरवा रेना
रामा कहेले जे लेहु गंगा हथवा रेना
रामा कहिकर उतना बचनवा रेना
रामा डाल दिहले गंगा जी में हथवा रेना
रामा वीर भगत के ईहे निशानवाँ रेना
रामा गंगा जी के रहल नजरानवाँ रेना”

यही श्री बाबू कुँवर सिंह के चरित्र की संक्षिप्त झांकी है। उनके अमर जीवन की यह गाथा भोजपुरी प्रदेश में अत्यधिक प्रचलित है। वीरता एवं परोपकार के लिये उन्हीं से तुलना की जाती है । देशभक्ति के तो वे स्फूर्तिमय देवता बन गये हैं। भोजपुरी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनका जीवन व्याप्त है।

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