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अब ना करे मोर मनवा करे के मजूरी

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जनकवि दुर्गेन्द्र अकारी

जनकवि दुर्गेन्द्र अकारी
जनकवि दुर्गेन्द्र अकारी
जनकवि दुर्गेन्द्र अकारी के एगो कविता

अब ना करे मोर मनवा करे के मजूरी
भोरे जमींदरवा दरवा पियादा पेठावे
कान्ह्वा प हरवा कुदारी चढ़ावे
कतनो खटीला, ‘बन’ दू सेर ना पूरी

जोति-रोपी खेतवा में मोतिया उगाए
देखि जमींदरवा मन मुसुकाए,
बतिया करेला जइसे पथरल छुरी।

काटी-बाँही धानवां ले अइली खरिहनवा
बदले नजरिया गुदात बनवां
बन पनिपीउवा दिहत मन तुरी।

दवनीं, ओसवनीं, चन्हुपवनी मकनवा
भरी -भरी कोठिया-डेहरिया अंगनवा,
तवना प देला ‘बन’ खंखडी आ धुरी

सुन भइया मजदुर- गरीब बनिहरवा
तोहारा के ठगत बा जालिम जमींदरवा
तोहरे कमइया आपण भरे भूरी।

दुनिया के मजदूर गरीब सब एक हो
बहुत भूलइलअ तू अब से सरेख हो
कहेलें आकरी बाटे एकता जरुरी
अब ना करे मोरे मनवा करे के मजूरी।

(साभार : परास, अंक – अक्तूबर -दिसंबर, 2013)

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