पिड़िया का व्रत

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अन्य व्रत एक या दो दिन में समाप्त हो जाते हैं परन्तु पिड़िया के ही व्रत की यह विशेषता है कि यह पूरे एक मास तक चलता रहता है। कार्तिक मास के शुक्ल प्रतिपदा से यह व्रत प्रारम्भ होता है और अगहन शुक्ल प्रतिपदा को समाप्त होता है। इस प्रकार यह पूर्ण एक मास तक रहता है। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन गोधन की जो गोबर की मूर्ति बनाकर उनकी पूजा की जाती है उसी गोबर में से थोड़ा सा अंश लेकर कुंवारी लड़कियाँ पिडिया लगाती हैं। गोबर के छोटे छोटे पिण्ड को ही पिंडिया कहा जाता है।

पिडिया का व्रत
पिडिया का व्रत

घर की भीतरी दीवाल पर गोबर की छोटी-छोटी सैकड़ों पिड़िया मनुष्य की आकृति की बनायी जाती हैं। इसके साथ ही उनकी दीवालों पर आटे के द्वारा चित्र कर्म भी किया जाता है। इन छोटी-छोटी पिण्डियों को दीवाल पर चिपका दिया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया को पिड़िया लगाना कहते हैं। पिड़िया शब्द पिंड का ही अपभ्रंश रूप है जिसमें लघु अर्थ में ‘इया’ प्रत्यय लगाकर ‘पिड़िया’ की निष्पत्ति की गयी है। दीवालों पर गोबर की जो आकृति, बनायी जाती है वह पिण्ड के समान गोली-गोली होती है। इसी कारण इस व्रत का नाम कदाचित् ‘पिंडिया’ पड़ गया है।

यह व्रत बहिनों के द्वारा अपने भाई की मंगल कामना के लिए किया जाता है। इसे केवल कुँवारी कन्यायें ही सम्पादित करती हैं। वे प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर, स्नानादि करके घर की किसी बूढ़ी स्त्री से पिडिया की कथा सुनती हैं। वे बिना कथा सुनें अन्न ग्रहण नहीं कर सकतीं। यदि किसी दिन किसी लड़की ने गलती से भोजन कर लिया तो दूसरे दिन उसे इसका प्रायश्चित्त करना पड़ता है। रात्रि को भी वे पिड़िया की कथा सुन करके ही भोजन करती हैं। यही क्रम पूरे एक मास तक चलता रहता है। अगहन शुक्ल प्रतिपदा को पिंडिया की समाप्ति होती है। इस दिन लड़कियाँ नये चावल और नये गुड़ से बनी हुई खीर खाती हैं जिसे गाँवों में ‘रसियाव’ कहा जाता है। इस समय वे अपने कानों में रूई ठूस लेती हैं जिससे भोजन करते समय कोई शब्द सुनायी न पड़े। भोजन के समय यदि कोई शब्द सुनायी पड़ गया तो वे भोजन करना छोड़ देती हैं। दूसरे दिन दीवाल पर चिपकायी गयी उन पिंड़ियों को वे नष्ट कर देती हैं और उन्हें किसी नदी में बहा देती हैं। इस प्रकार यह मासिक व्रत समाप्त हो जाता है।

पिडिया का व्रत बहिनों के द्वारा अपने भाई के प्रति अटूट प्रेम का प्रतीक है। पिड़िया व्रत से सम्बन्धित अनेक लोक-गीत पाये जाते हैं जिनमें भाई के प्रति प्रेम तथा उसकी मंगल कामना का वर्णन उपलब्ध होता है।

इन गीतों में भाई-बहिन का अटूट प्रेम वर्णित है। एक गीत में बहिन अपने भाई से कहती है कि मैं लडडू और चिउड़ा से पिड़िया को पूजॅगी। ऐ भाई! यह पिड़िया का व्रत  तुम्हारे ही उपलक्ष में कर रही हूँ।

लडुआ चिउरवा से हम पूजबि पिड़ियवा हो
तोहरी बधइया भइया पिडिया बरतिया हो।

पिड़िया के गीतों में कहीं-कहीं स्त्री-पुरुषों के प्रेम का भी वर्णन पाया जाता है परन्तु इन गीतों में प्रधान पुट भाई और बहिन के स्वाभाविक प्रेम का ही है। इन गीतों में कहीं-कहीं पिड़िया के व्रत में किये जाने वाले अनेक विधि विधानों का भी उल्लेख पाया जाता है।

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