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पूरनमासी के रात। अजोधिया के राजा दशरथ के सबसे प्रिय आ सुन्नर रानी केकई छत पर काठ की पुतरी जइसन उदास बइठल पुरनकी बातन के इयादि करतारी। आँखिन से लोर के पवनार लागल बा। लोर पोंछत अँचरा एकदमे भींजि गइल बा।
एगो दासी आइलि आ हाथ जोरिके कहलसि- ‘महारानी! कई दिन से पानी के एगो बूँन ले पेट में नइखे गइल। बहुत रात बीति गइल बा, चलीं कुछ खा लीं। देखीं, हई चाँनो केतना नीमन लागतारें, जइसे कहत होखसु कि ए केकई! जिए के बा त देह के धरम पूरा करहीं के परी। जा कुछ खा- पिअ।’
केकई पलटिके बहुत धेयान से दासी के देखली आ कहली- ‘ए दासी! हमरी खातिर कइसन पूरनमासी आ कइसन चाँन? अब त पूरा जिनगी अमावसा के अन्हरिए बा।’
दासी के मन कइल कि बुका फारि के रो दे। लेकिन, उदास रानी अउर उदास ना होखसु, ए से आपन रोवाई दबावत आ रोकत कहलसि- ‘देखी़ ना, राउर केश केतना लटिआइल बा, एक में एक अझुराइल? बिहने राउर केस झार देब।’
केकई चुप लगा गइली। जइसे, मनहीं- मन कहत होखसु- ‘हमार त पूरा जिनिगिए अझुराइल आ लटिआइल बा, तें केतना ले सझुरइबे? दासी से पूछली- ‘अच्छा, ई बताउ कि बाबू भरत के देखले ह? राम, लछुमन आ सतरूहन त रोज आ के मिलि लेला लो। भरत कबो ना आवेलें।’
दासी कहलसि कि हँ, देखनीं हँ। दरबार में सभे जात रहल ह, ओही बेरा।
केकई धधा के पूछली- ‘त ई बताउ कि कइसन लागत रहलें हँ? दुबराइल त नइखन? चेहरा पर उदासी त ना रहल ह, हँसत रहले हँ नू?’ मने, एके साथ सवालन के झड़ी लगा दिहली।
दासी कहलसि कि ना दुबराइल बानीं, ना उदास बानी। लेकिन, चेहरा पर हँसिओ ना रहल ह, बड़ा गम्हिर लागत रहल ह, जइसे बहुत गहिर बात सोचत होखीं। हम त बहुत दिन से अइसहीं देखत बानीं।
केकई के मन के सगरे बान्ह टूटि गइल आ फफकि- फफकि के रोवत दासी के नियरा बोला के अँकवारी में भरि लिहली। सोझा बइठा के कहली- ‘दासी! जबसे अवध में बाउर- बाउर घटना भइल, हमरा लागता कि इहाँ हमार केहू नइखे रहि गइल। एगो तेहीं बाड़े जेकरा से आपन दरद कहि सकिले। आजु हमार बात धेयान से सुनि ले।
हम जानतानीं कि अवध के लोग हमरा के गरिआई त गरिआवो। हमरा के दुनियाँ के सगरी घिनौना उपमा परोसी त परोसो। लेकिन, हम एगो महतारी के बेटा खातिर जवन फर्ज होखे ऊ पूरा कइले बानीं। दुनियाँ के कवन माई होई, जवन अपनी संतान खातिर कुछऊ करे के तेयार ना होई? जदि, नइखे करति त माई ना। हम कवन गलती कइले बानीं? अपना बेटा के सब माई सबसे ऊँच जगह पर देखल चाहेली।
हम देखनीं त कवन गलती कइनीं? राजा जी हमरा के दूगो वरदान देबे के कहले रहनीं। हम अपना बेटा खातिर मंगनीं त कवन बाउर कइनीं? हमरा ए बात पर एकदम संतोष बा कि हम अपना बेटा की गरहाजिरी में ओकरा अधिकार खातिर हर तरह से संघर्ष कइनीं। अगर, ना करतीं त इहे अवध के लोग कहित कि कवन माई रहे कि अपनी आँखि का सोझा अपना बेटा के राजपाट सेतिहे चलि जाए दिहलसि? हँ, एगो चूक जरूर भइल कि भरत से पूछनीं ना त ऊ रहबो कहाँ कइलें आ अइला पर पूछाइत त सब काम हो गइल रहित।
हमरा भरत के राम के राजपाट दे देहला के तनिको मलाल नइखे। राम हमरो बेटा हउअन ऊ अवध के सबसे नीमन राजा होइहें। लेकिन, भरत का गरहाजिरी में उनुका अधिकार के रक्षा कइल हमार करतब रहे, जवन हम एगो मेहरारू जवना तरीका से करि सके, कइनीं। हँ, हम कुछ जिआदे जिद ध लेहनीं।
राजा साहेब के दिहला विकल्प पर विचार ना कइनीं। ना त, राजा जी सरगे ना गइल रहितीं। एकर मलाल जिनगी भर ना जाई। ए बात पर अवध हमके गरिआवे, हम दोसिहा बानीं आ सबसे बड़ दोसिहा बानीं। लेकिन, अवध कहियो ना कहियो क्षमा क दी, एसे कि केतनो बानीं त मेहरारूए नू। भरतो महतारी की जगह पर हो के सोचिहें त माफ क दिहें आ एकबेर जरूर हमरी गोदी में बइठिहें।
रानी दासी के एकबेर अउरी अँकवारी में बान्हि के जार- जार रोवे लगली, संगे- संग पूरनमासी के चाँनो के उहे हाल रहे।
नोट- ई कहानी एकदमे बनउआ ह। हम ए बिसय पर आपन सोच, अपनी बुद्धि भर कहल चाहत रहनीं हँ। ए से कहानी माध्यम बनवनीं हँ। निरनय पढ़वइया सब करी।
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