माटी के दीया भोजपुरी के सशक्त उभरत स्वर श्री अनिल ओझा ‘नीरद’ के पचीस गो गीतन आ ६ गो मुक्तकन के पहिला संग्रह हवे, जवना मे उनका किशोर भावुक मन के उड़ान भरल ओगार त वटले बा, साथे साथे संजोग आ विगोय का झुलुवा पर झूलत जिनिगी का उतार-चढ़ाव के एगो भोगल असलियत के उरेहे के सटीक आ सजीव कोसिसो बा। एक ओरि कवि जहवाँ ‘गोरिया हँसेलू त भोर हो जाला’ कहिके, अपना सौन्दर्यानूभूति के प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करत बा त दोसरी ओरि पिया मिलन के सुफियानी कठोरता आँकत भौतिक सौंदर्यचेतना के निर्रथक मान के पछतातो बा –
“जदि हम जनितीं कि पिया नाही अइहें त करिती ना सोरहो सिंगार”
कवि का एह जीवन-दर्शन के साथे साथे ओकरा स्वर में भाजपुरी माटी का सोन्ह सुगन्ध में सउनल स्न्हे छलकत बा। ऊ बगइचा में जाये खातिर
हहरत बा –
“चल देखि आई बगिया बहार मितवा !
बगिया के बिचवा जे छोटकी पोखरिया,
झिलमिल पनियाँ से खेलेला चनरमा,
जब झुरझुर बहेला बयार, मितवा।।”
हम ‘नीरद जी’ के एह रचना के सफलता खातिर बधाई देत बानी आ आगे इनसे एहू सरस आ सशक्त रचना के उमेद करत बानी।
– मुक्तेशवर तिवारी ‘बेसुध’
माटी के दीया रउवा सभ के हाथ में सउपि रहल बानी। नइखी जानत कि ‘भोजपुरी-भासा-साहित्य’ का आँगन में ई कतना
अंजोर क पाई, बाकी त, अतना भरोसा जरूर बा कि जब दीये ह त कुछु ना कुछु अंजोर करबे करी।
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