केंवार बंद करके
सब केहु राखेला
ना केहु आओ, ना अपने जाएके
कबो कुछ भईल
त खाली मोका में
मुड़ी निकाल झाकेला
जईसे एगो पीसाच बा बईठल
हाँथे लेहले भाला
हल केंवारी के पार
जेकर भोजन अनजाने में
भीतरे से जाला
सभे संतुष्ट बा इ जतावे ला
ताला के चाभी
अपने लुकवावे ला
बाहर से केहु कतनो आवाज दे
उ कान के परदा से
भीतरी ना आवेला
बाकि जे कबो वीर भईल
ओकरा साथे तकदीर गईल
बस जरूरत बा ओकरा
भरोसा अपना पे
ख़तरा उठावे के हिम्मत
आ देखल सपना पे
केंवारी के ओ पार
कुछ अउर केंवारी
सब खुलत जाला
पारा पारी
खाली हिम्मत करके
बढ़त रहे के बा
मंजिल मिलला ले
चलत रे के बा
भटक खुल जाई
पहिलके केंवारी से
एने से नीमन नज़ारा
ओने हो भी सकेला आ ना भी
बाकि इंसान का, जे बईठल रहे
ताला लगा के मन कोठरी में
जानबूझ के जीनगी काटो
गांठ बांधत आपन मोटरी में
-अनिमेष कुमार वर्मा (आखर के फेसबुक पेज से)
अनिमेष जी एगो औरी बहुते बढिया रचना।
बाहर से केहु कतनो आवाज दे
उ कान के परदा से
भीतरी ना आवेला
बाकि जे कबो वीर भईल
ओकरा साथे तकदीर गईल
बहुते बधिया लागली सऽ ई पांच हो लाइन।