उ काठ के करेजा बरबस छलक पड़ल,
टूटल रहे सिन्होरा ,मिटल रहे भरम ।
पपनी के लोर में रहे ,उलझल जे मन के नाव,
पतवार के उमंग भी हो गईल बेशरम ।
उ छनछनात पायल आ छटपटात घायल,
बीचे नदी के धार में बेसुध रहे पड़ल ।
निज सादगी के सोना ,बचावल अन्हार में,
मुश्किल बहुत बा ,बा आसान पी गईल गरल ।
हम जात बानी कहवाँ अबहूँ विचार लीं
काहें घिसल लकीर पर बानी अभी अड़ल ।
हम हार के कपार पर ठोकब फतह के कील,
चारु तरफ निज मान के मस्ती बाटे भरल ।
– संजय सिंह (आखर के फेसबुक पेज से)