विवेक सिंह के लिखल भोजपुरी कहानी जुआरी

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आषाढ़ चढ़ते जब बदरी घुरिया-घुरिया के आवे तs दिन के शोभा देखे जोग होखेला। कहईं घाम लउकी तs कहईं छाँह। इहे घाम-छाह के खेल में कबो-कबो पनबदरा आपन बड़की-बड़की बूंदन से खेत में डरारी देत भा मकई-रहर के सोहनी करत किसान से एक लहर मजा जरूर ली। ओकर इहे मसखरी तs किसान के तरे से गुदगुदा जाला।

अइसने आषाढ़ के महीना में बरिसों बाद जब परती खेत में ट्रेक्टर के हर लागल तs खेत के माटी आ माई के चेहरा एकदम से चमक गइल। अइसन चमक आ खुशी आज तक अपना माई के मुखड़ा पर हम ना देखले रहीं। माई काहे मुस्कियात रही आ खेत के माटी हमार देह के अपना धुर से काहे भरत रहे, ई हमरा सोच से बहुत दूर के बात रहे। तबे केहू पीछे से बोलल।

“का हो रामरतन बो, आखिर नाहिये मनलू, ना ! असों के आषाढे अपना लइका के देहे पाँक लगइबे करबू।” ई आवाज़ धनेश्वर बाबा के रहे। अपना खेत के डरारी कसत कहले।

माई माथ पर आपन आँचर के ठीक करत कहलस-” हs चाचाजी अब ना करी त कहिया करी। सगरो खेत त बरसों परती रहल अब ई सयान हो गइल बा। एकरा आपन अच्छा-बुरा सब बूझे के पड़ी।”

धनेश्वर बाबा चलावत कुदारी रोक के कहले- “लेकिन देखिहs कहि इहो रामरतम नियन ई खेल के बीच दाव में आपन भाव ना बिगाड़ देव।”

धनेश्वर बाबा के बात सुनिके माई के आँखि के कोर भींज गइल तबो माई हम्मत कइके बोललि- “चाचाजी हमार लइका कहईं एह खेल के धुरंधर खेलाड़ी निकलल तs ओह दिन आप का कहब? ”

धनेश्वर बाबा कुदारी से डरारी के छेव काटत कहले- “हँ, रामरतन बो, ई खेल अइसन हs कि पूरा जिनगी ख़तम हो जाई बाकी खेल न ओराई।”

कइसन खेल, कवन दाव , कइसन भाव, का ख़तम होई, कहिया ख़तम होई, हमरा ई सब बात एकदम ना बुझात रहें। आखिर माई का बोलत बिया? धनेश्वर बाबा का कहत बारे? इन लोगन के बात हमरा के एकदमे बेचैन क दिहलस। खास क के बाबूजी के बात कि उहाँ का कइसन खेल खेलले रहीं, कवन दाव बीच में ही छोड़ देले रहीं, ई कुल्हि बात अपना मन में लेके हम माई के साथे घरे आ गइनी।

रात भइल तs हम खाना खाए बइठनी। माई हमरा आगू जेवना परोस के बेना हाँके लागलि। ई रोज के रहें जब हम खाए बइठीं तs माई बेना जरूर हाँके। हमार मन तs भोरे से उहें बात में हेराइल रहे। हमसे रहल ना गइल त पहिला कौर डालत पूछि दिहनी-

“ए माई , धनेश्वर बाबा खेतवा में का बोलत रहलें? हमरा पल्ले तs कुछो ना पड़ल।”

माई बेना डोलावत बोलली- “तू खाना खो चुपचाप, अभी बहुत टाइम बा तोहरे लगे धनेश्वर चाचा जइसन लोगन के बात सुने आ समझे के। ओइसन लोगल के लगे कवनो काम ना रहे आपन अनखइहे आ दोसरा के निहरिए।”

आज तक हम माई से जिद्द ना कइले रही बाकी आज मन अपने-आप पर अड़ गइल रहे। हम फेरु उहें बात कहनी- “माई तू खिझियात काहे बारु, का हम नइखी जान सकत कि बाबूजी का कइले रहले ? गाँव के लोग काहे उनका के हारल खेलाड़ी कहेला ? आख़िर कवन खेल रहे जवन ना खेल पइले माई ? बता ना माई, बता ना। हमरा सब जाने के बा। बता ना माई ! बता ना।”

हमार ज़िद्द से जडल सवाल सुनके माई के बेना डोलावत हाथ रुक गइल आ साथे-साथे उनका आँखि के कोर से दु टुप लोर उनका आँचर पर चू गइल। हम खाएक छोड़ के माई के लगे चल गइनी आ अपना हाथ से लोर पोछत कहनी- ” माई ई का ! तू रोअत बारू? हमार बात तहरा हेतना बाउर लाग गइल? हमरा के माफ़ क दs माई, हमरा के माफ़ क दs। आज से हम अइसन कवनो बात ना पूछम जवना से तहरा करेज के ठेस पहुँचे।”

माई अपना गोदी में हमार माथ रख लिहली आ हमार लिलार के चुमत कहली- “ना हमार करेज ! तू काहे माफ़ी माँगत बारऽ। तोहर बात हमरा तनको ना बाउर लागल। तs हम आपन भाग के लिखन्त पर रोअत रहीं। आज तहर बाबूजी जिअत रहिते तs तहरो के दोसरा के लइकन नियन कहीं बड़ शहर में राख के पढ़वते-लिखवते। आज तू ई गृहस्थी में ना लगतs।”

फिर माई कुछ देर चुप रहलि। खाली हमरा माथा के सुगरावत रहलि। खुदे तनी देर बाद बोलल- “अब बखत आ गइल बा जे तू ई कुल्हि बात जानिजा। हम ढेर दिन ले ई दाग अपना करेजा में दबा के नइखी राख सकत श्याम, नइखी राख सकत।”

ई आवाज सुन के हम आपन आँख खोलनी। माई के ममता आ दुलार भरल हाथ जब माथ पर पड़ल रहे तs हमार आँख अपने-आप कुछ देर खातिर लाग गइल रहे। हम उठि के बइठ गइनी आ माई के आँखिन में झाँकत ओकर बात के साथे सोरह बरिस पाछे चल गइनीं।

फागुन के महीना में तहार जन्म भइल रहे। खेत में सब फसल अपना जवानी पर रहली सन। फागुन फिजा में आपन मातल चाल बहे वाली बेयार भर देले रहे आ बेयार जेकरा के छूवे उहो फगुआ के रंग में मतुआ जाय। खेत के फसल आ तहरा के देख के तोहर बाबूजी के मन खुशी के पाग में सना गइल रहें। उनका हाथ में अगर ई धरती के पूरा सम्पति रहित तs सब कुछो न्योछावर कर देते।

गांव के लोग उनका से ऐके गो बात कहबे करे- ” का हो रामरतन तहार लइका तs बहुते भाग्यशाली बा। अपना जन्म के साथे-साथे तहार कर्मो के लेखा बदल दिहलस। अबकी तs छपनो कोट अन्नदेवी तहरे किहाँ बिराजत बाड़ी।”

तहरा जन्म के साल बहुते निक जैजात खेतन में लागल रहे। खेत से घर तक खुशी के माहौल रहें। ई खुशी एक दिन के ना रहे, हर साल के रहे। सत्तर बीघा के जोतनिहार रहले तहर बाप-दादा। गाँव तs गाँव जवारो में बहुते इज्ज़त रहे तहरा बाबूजी के बाकिर कहल जाला नु कि खुशी जादे दिन केहू के अधीन ना रहे से, उहे भइल

बबुआ एगो गृहस्थ खातिर ओकर खेती-गृहस्थी सब कुछ होला। भले गृहस्थ दु जून तंगी में रही, फाटल पहिनी, रुखर खाई, काहे ना सालो भर करज में ओकर रोआ-रोआ डूबल रहे बाकिर खेती के बकत अपना खेत के परती नइखे छोड़ सकत। गृहस्थ के सिंगार ओकरा खेत में लहरात फसल हs आ एगो खेतिहर के खेती से ई माटी पर रहे वाला बहुते जीव के पालन-पोषण होला।

जब चइत में खेत से पाकल फसल काटिके खलिहान में राखल गइल तs खलिहान कवनो सुकोमल नवजात बच्चा के माई लागत रहे। जइसे कवनो माई अपना लइका के गोदी में भर के आपन आँचर ओढ़इले होखे।

लेकिन एगो रात अइसन आइल जे सब कुछो बदल दिहलस। पता ना केकर नज़र लाग गइल सबके भाग्य के। जब सब केहू गहिर रात में आपन-आपन सुख के सपना में खोवल रहें तबे बहुत जोड़ से हल्ला-गुल्ला होखे लागल।सब कोई घबरा के आपन-आपन लाठी आ टार्च लेके ओह आवाज के ओर दौड़ल। आवाज खलिहान से आवत रहें। खलिहान में एकदम भयंकर तरीका से आग लागल रहे। जवना के लपट ओह बकत केहू के अपना में लपेटे खातिर एकदम बेचैन रहें।

सब कर्मवीर के सामने उनकर आपन करम जरत रहें। आ लोग कुछ ना कर पावत रहे। अइसन तमासा रहे जवना में हाथ से कुछ ना देवे के रहे बाकिर अपना-आप के लुटात देखे के रहें।

आग अभी ठंडा ना भइल रहे कि गाँव के कुछ गृहस्थ आत्महत्या करे लगले। पता ना कइसन कारी नजर ई गाँव के लागल रहे। सबके अपना-अपना घर के लोगन के चिंता रहें। केहू-केहू के अकेल ना छोड़े। तहरा बाबूजी के हम बहुते समझाई बाकिर उनकर चुप्पी हमरा के डरावत रहे। एक रात जब हम तहरा के सुतावत रही तs तहर बाबू जी हमरा पास आके कहले-“बसुधा, का हम कवनो अइसन गलती करीं जवन माफ़ करे जोग ना रहे तबो तू हमरा के माफ़ करबू? ”

हमार मन एकदम से सन हो गइल। हम उहाँ के हाथ पकड़ के कहनी- “रउवा अनेरे चिंता-फिकिर करिले। अरे जहिया से आगलगी के कांड भइल बा आप बहुते हरान-परेसान रहत बानी। आप एकदम खुश रही। अपना बबुआ के देखी ई आपके पास जाए खातिर केतना बेचैन रहेला बाकी आप झूठो के सब लेके हरान बानी।”

फिरो तहरा माथ पे हाथ फेरत कहले- ” हमरा दिमाग से आगलगी कबे के निकल गइल बा बाकिर जीतन भाई, दरोगा भाई, देवनन चाचा जइसन अउर लोग के खुदखुशी हम नइखी भुला सकत। जइसे कबो-कबो लागे ला, लोग हमरा के अपना पास बोलावत बा।”

उहाँ के बात सुनके हमार छाती बहुते जोर-जोर से धड़के लागल। हम उहाँ के अपना लगे से कतो ना जाये देवे के चाहत रही। हम बहुते समझइनी उहाँ के आ जब सब केहू खाना खा के सुत गइल तs हम देर रात तक जागल रही एगो पहरू लेखा। लेकिन होनी बहुत बलवान होले। ठीक अपना नियत समय पर होके माने ले। पता ना कइसे हमार आँख झप गइल आ जब आँख खुलल तs भोर होइल रहे। दुआर पर बहुत लोग बटोराइल रहले। सब केहु गोलाई बना के आपसे में कानाफुसी करे। जब हम गोलाई के घेरा में गइनी तs तहर बबुजी भुइया भींजल देह सुतल रहले। उनकर मुँह आ पेट फूल गइल रहें। तबे छोटन आके हमरा से कहले- “ए भउजी, भइया तs भिड़ा वाला पोखरवा में डूबी के अपना-आप के मिटा दिहले हो, मिटा दिहले।” एतने कहि के छोटन पुका फार के रोये लगले। हम बिना प्राण के देह बनके उनका माथ के अपना गोदी में भर लिहनी लेकिन आँख से एगो लोर ना चुअल।

बाकी बिधि कइसे भइल केगा भइल हमरा कुछो ना होस रहे। जब हम रात के तहरा गोदी में सुतावत उनका के इयाद करत रहीं तs हमार हाथ सिरहान राखल एगो डायरी पर पड़ल। हम उ डायरी पहिचान गइनी। डायरी तहरा बाबू जी के रहें। हम पड़नी बाकिर ओके पढ़े के अधिकार तोहरा बा काहे की ओमें ऊपर ही लिखल बा ई डायरी हम अपना बेटा खातिर छोड़त बानी।

जब हम अपना वर्तमान में लौटनी तs डायरी हमरा हाथ में माई थमा देले रहे। हम डायरी लेके अपना कोठरी में आ गइनी। हमार उमिर का होई? महज अभी सोलह भा सत्रह बरिस लेकिन उमिर से होनी के का मेल? जवने बिधाता रचिहें ठीके होई। डायरी के पन्ना पलटत हमार हाथ काँपत रहे। फिरो हम हिम्मत कर पन्ना पलट दिहनी आ ओमें लिखल बाबू जी के शब्द पढ़े लगनी।

विवेक सिंह के लिखल भोजपुरी कहानी जुआरी
विवेक सिंह के लिखल भोजपुरी कहानी जुआरी

हम जानत बानी तहरा मन में बहुत कुछो चलत होई। जब तहरा हाथ में ई डायरी आई तू तनी पौढ़ हो गइल होखबs। अपना माई पर खिझिअइहs जनि। हमी मना कइले रही कि जब तक सोचे-बिचारे जुकुर ना होखो तू ई डायरी ओके ना दिहअ। बेटा हम कायर नइखी। हम आत्महत्या बहुत बिकट परिस्थिति में करे के निर्णय लिहनी। लाखो के लोन आ लाखो के देनदारी के बोझ रहे हमरा माथे। हम जानत रही आत्महत्या कवनो निदान नइखे। तबो एकरा छोड़ दोसर राह ना रहे। हम आपन जिअत जिनगी अपना माटी के ना बेच सकतीं काहे कि दादाजी आ बाबूजी के दिहल वचन हमरा के ई करे से रोकत रहें अउर एह बरिस के ई आगलगी में जडल लाखो के फसल हमरा नीयन बहुतन के उम्मीद के जरत दिया बुझा देले बा। एक-एक कर हमार साथ के साथी लोग अपना-आप के मिटा दिहले।

हम बसुधा के ई कह के जातानी तू माटी के मोह ना करिहs आ कइसहु बेच के सब कर्जा-गोआम भर दिहअ। जवना से आवे वाला समय में श्याम पर केहु अँगुरी ना उठावे कि तोर बाप कर्जा खोर रहे। हमार एगो अउर बिचार बा कि श्याम के गाँव से ही डिग्री तक पढ़ई करा के ओके किसानी करे के सब दाव सीखा दिहऽ जे से हमार बेटा एगो अच्छा गृहस्थ बन सके। जीवन के सबसे अनमोल ई खेल के पौढ़ खेलाड़ी बन सके ताकि लोग ई ना कहे कि इहो अपना बाबु जी जइसन ई खेल के कच्चा खेलाड़ी बा। हमार इहें इच्छा बा बेटा कि तू एगो बड़हन आ नामी किसान बनऽ। किसानी एगो जुआ हs आ ई जुआ जे सम होके खेली उहे ई खेल के पौढ़ खेलाड़ी बन पाई। नफा भा नुकसान केतनो होखे ऐसे बिचलित ना होके जे ई खेल में लागल रही उहें एगो रगड़ल खेलाड़ी कहाई। बस एकरा आगे हम कुछ ना कहब काहे की बाकी के तजुरबा तs तोहर जिंदगी तहरा संघर्ष के तराजू पर तउल के दी। अपना बाबू जी पर लागल आत्महत्या के कलंक मिटका दीहs बेटा ! मिटका दी हs।”

तहार बाबू जी…!

डायरी के पढ़त बेरी ना चाह के हम अपना आँखिन के लोर ना रोक पइनी। डायरी बन्द करत बकत हमरा मन में बाबूजी के एक-एक बात दोहराए लागल। हम चुप-चाप अपना बिछावन पर जाके लेट गइनी आ सोचे लगनी।” का एगो मैट्रिक में पढ़त लइका ई कुल कर पाई? का हम बाबूजी के सपना पूरा कर पाएम? कि कही बाबू जी नियन ! ना, ना ई का हम सोचत बानी।” सोचत-सोचत आँख लाग गइल।

हमार खेती में पहिला साल रहें। हम आपन पूरा जोर लगा दिहनि असों आषाढ़ के खेती में। हमार मेहनत गाँव के अच्छा-अच्छा किसान के दाँत कोट कर दिहलस। फसल अपना जवानी में आ गइल आ हमार मनोबल आसमान छुवत रहे। ई सबके एकदम कड़क जबाब रहें जे हमके हमरा बाबु जी पर ताना कसे।

अभी तs ई खेल के हम नया-नया सीखत रही। हमरा मज़ा तs बहुत आवत रहें बाकिर मज़ा कब सजा आ सबक में बदल जाला केहु जानत नइखे। एगो किसान खातिर प्रकृत कब ओकर साथ देवे पर मेहरबान हो जाई आ कब आपन कुरुरता देखा के ओकर सब छीन ली, ई केहु नइखे जान सकत, ना रोक सकत बा।

हमार मन उमंग के उड़ान भरत रहें। हम माई से जब भी बोली- “कि माई असों के फसल बहुत जबर लागल बा आ अबकी ऐके बेंचके तहार बंधक राखल झुमका साहूकार के लगे से छुड़ा लाएम।” तs माई हमार बात प हँसके ऐके बात बोले- “बबुआ जब तक खेत से फसल खरिहान आ खरिहान से अन घरे ना आवे तs किसान के फसल किसान के ना होला प्रकृति माई के होला काहे कि सब जीव आ जीव के आधार उहे बारी। ओपे तहार अधिकार नइखे। तू तs बस उनका ई खेल के एगो खेलाड़ी बारऽ। जवन कि तू खाली ई खेल खेलबऽ। चाल भी उनकर रही, दाव भी उनकर रही, जीत भी उनकर रही, हार भी उनकर रही। तू तs खाली खेल खेले वाला मोहरा होखबऽ काहे कि ई धरती ओहि के मोहरा चुने ले जे ओकर छाती फारे के हिम्मत राखत होखे।” हम माई के बात सुनके खाली सोचीं , हँसीं आ चुपचाप उठके बाहर चल जाईं।

रात के पड़त हलुक ओस आ दिन के जरावत देह के चाप अब कुँवार के चढ़े के चिन्ह बतावत रहें। एक दिन हम निश्चिन्त अपना कोठरी में बइठल कुछ पढ़त रही। बदरियाह दिन रहे हलुक-हलुक पिअराह बदरी रहे आसमान में। एका-एक बदरी आपस में जुटे लागल। देखते-देखत दिने में घोर अन्हरिया हो गइल आ पीअर बदरी करिया। अब जोर से पानी पड़े लागल लेकिन ई का पानी के साथे बड़के-बड़के ओला काहे पड़त रहे। हम कुछ ना समझ पइनी। आखिर ई बरखा के ऋतु तs हs ना फिरो ई का। तकरीबन अधाघन्टा तक ई ओला आ पानी पड़ल अपना पूरा जोर में। देखे में बहुत सुनर लागत रहें ई ओला। लागे कि हम जमीन के सरग कश्मीर में बानी लेकिन जब बदरी फाटल आ सब बन्द भइल तs सब केहु अपना-अपना खेतन के ओर भागल लोग। हम सबके बात सुनके अपना खेत के ओर चल दिहनी। जब खेते पहुँचनी तs हमरा ठकुआ लाग गइल। खेत के डरारहम थम से बइठ गइनी। आँखिन के सोझा जवन लउकत रहें हमरा सोच से परे रहे। मुँह प रेंड़ा लेत धान के फसल जमीनी में सुत गइल रहे। अधाघन्टा में महीनन के मेहनत माटी में मिल गइल रहें। फसल के देख के लागे केहु जबर एगो जवानी के उंमग में मातल नवही के नीन के गोली खिया के सुता देले होखे ताकि फिर कवनो हुंडई ना करे। सबके आँखिन में एगो दर्द दिखत रहे या ऐके गो सवाल अपना करम लिखइता से पूछत होखे।” का इहे तहार इंसाफ हs जे आपन खून दोसरा ला जरावे ओकरा साथे इहें होखे के चाही।”

हम उदास मन घरे आ गइनी। जब हम माई के देखिनी तs सब फिकिर से अलग हमरा के देख के मुस्कियात रहे। हम ओकरा से पूछ दिहनी- “ई का माई ! सब बर्बाद हो गइल आ तू खुश होत तारु।”

हमरा माथ पर हाथ फेरत माई हमरा के समझवलस- “अभी एतने में तू अगुता गइलऽ बबुआ। अभी त पूरा जिनगी बाकी बा। हम तहरा से का कहले रही। ई प्रकृति कब केकरा के का दी आ का ली केहु नइखे जानत, ओकरा छोड़। अब चलऽ हम तहरा खातिर कुछो खाएके बनवले बानी। चलके खा लs।”

धीरे-धीरे समय बीतत गइल। दिन, सप्ताह, महीना, साल। देखत-देखत पाँच बरिस बीत गइल। हम अपना मेहनत आ लगन से एगो पौढ़ गृहस्थ बन गइलीं। खेती के साथे-साथे आपन डिग्री तक के पढ़ाई पुरा भइल। एग्रीकल्चर के नियमानुसार अपना खेती में नया-नया तरीका से किसानी के दाव खेलल जाय। कबो सफलता मिले कबो असफलता बाकिर हिम्मत ना टूटे। जबो मन कवनो नुकसान से बिचलित होखे तs अपना बाबुजी के डायरी लेके पढ़ लेईं आ माई से राय-मसबिरा होखे। माई के बतावल रास्ता फिरसे नया ऊर्जा भर देवे।

एक रोज खेत में बिया डाले बदे खेत के झोड़त रहलीं तs माई खेते में खाएक लेके आ गइली। हम माई से कहलीं- ” माई तू झूठे नु हरान भइलू। तनीसा अउर काम रहे हम घरे आके ना खा लेती?”

तबे दोसर खेत में काम करत धनेश्वर बाबा टोकले।” रामरतन बो अब ई गृहस्थ के गृहस्थी के खुटा से बांध दs। अब ई मोला नइखे जेकर देख-भाल बदे काट-कुस से घेर-बान्ह करबू। ई अब फल देवे जुकुर गाछ हो गइल बा गाछ आ हँ एगो अउर बात ई पकिया जुआरी बा पकिया जुआरी अच्छा-अच्छा खेलाड़ी एकरा आगे फेल बारे।”

एतने कह धनेश्वर बाबा जोर से हँसे लगले। माइयो आपन माथ पर आँचर रखत मुस्कियात रहलि आ हम खेत के डरारी पर बइठ के माठा में सानल रोटी खात रहीं।


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