एक सप्ताह पहले एक अभिनेता का कॉल आया, और अपना कुछ दुःख इंडस्ट्री के कारण बताया। अभिनेता दिनेश लाल यादव,खेसारी लाल यादव, पवन सिंह, मनोज तिवारी और अन्य लोगों के पास जब कोई निर्माता किसी फ़िल्म का प्रोजेक्ट को लेकर जाता है तो अभिनेता लोग पहले इतना बढ़ा मुँह फाड़ते है की पहले ही निर्माता सर पकड़ लेता है। बाकि की कसर उनकी उलूल-जुलूल डिमांड पूरा कर देता है, ये लोग निर्माता से बोलते है की हिरोइन मेरे पसंद की होनी चाहिए, म्यूजिक डायरेक्टर हमारा होगा, कैमरा हमारा होगा, लाइट हमारा होगा, निर्देशक मेरा होगा, विलेन मेरा होगा (इसमे इन लोगों का कमीशन बंधा रहता है) और फ़िल्म का सेटेलाइट राईट मेरा होगा, कोई कहता यूपी दिल्ली दे दीजिये ! चलो निर्माता मान भी जाता है तो किसी अभिनेता को अपने पर इतना भरोसा नही है की बोल दे या लिख के दे फ़िल्म की रिकवरी ? अगर आप लोगों के वजह से फिल्मे चलती है तो रिकवरी लिख के क्यों नही दे देते या पाटनरशिप फ़िल्म ही क्यों नही कर लेते ? अपने मार्किट वैलू का पाटनर बना जाओ ? या तो निर्माता से पैसा लेकर खुद ही फ़िल्म बना कर 10-20 लाख अधिक दे दो. एक दो सेट पर लेट जाते है और जाते ही इन लोगों का इतना भाव बढ़ जाता है की निर्देशक को निर्देशन सीखने लगते है खुद एक्टिंग आती है यह नही देखते ? मनोज तिवारी निर्देशक से बोलते है हम फुल फ्रेम मे दिख रहे है की नही तब जाकर काम करते है हद है यार…
सांभर: मधुप श्रीवास्तव (भोजपुरी फ़िल्म इंडस्ट्री की आवाज के फेसबुक वॉल से)