लाल बाज़ार के बड़का कूड़ाघर के लगे मेहरारुन के भीड़ लागल रहे, कूड़ा में फेंकल एगो जियत बच्चा के देखे ला. जवन रोअत रहे. इ खबर आग लेखा आसपास के मोहल्ला में पसर गईल रहे. मेहरारू सन झुमेटा के झुमेटा बन्हले उहाँ ओ बचवा के देखे पहुंचत रहली सन. नवका टोला बगले में रहे उहो से मोहल्ला के सबसे बुढ बाचो काकी के संगे अउरो मेहरारु अइली सन. कूड़ा में पडल बच्चा के देखे ला, बचवा के देखते बाचो काकी खिसिया के चिल्लाइल अंदाज में कहे लागली – “केतना सुन्नर लइका बा, हई देखबे रे गोपाल बो! हई गोर कपिल, करिया कुच कुच बा मुड़ी में, हई भटकोंवा लेखा आँख! ना जानी कवन जुहनढहना, मारकीलगौना, पदना के बेटा कठकरेज रहे जवन हई जनमुआ लइका के बहरना पर फेंक दिहलस, ओकरा हिरदया में तनिको दया माया ना रहे, आ उ कइसन महतारी बिया रे! उ मुंहझौसी जवन अइसन फुल नियर बच्चा के फेंकवा दिहलस,”
बाचो काकी के संगे गोपाल बो, चन्द्रिका बो, मनोहर बो, अउर भर मोहल्ला के मेहरारु आईल रहली सन. चन्द्रिका बो झप से बचवा के गोदी में उठा लेली आ आपन अंचरा से तोप के चल पडली अपना घर खातिर. बाचो काकी कहली – रे चाद्रिका बो ! जाए दे, तू बड़ा निक काम कइले ह . चल भगवान तोहर गोदी भर देलें . चन्द्रिका बो बड़ा खुश आ निहाल, जइसे दुनिया के सभ ख़ुशी मिल गईल होखे!
चन्द्रिका सुगौली बाज़ार के एगो लमहर गल्ला के महाजन रहलें. दू गो बेटी के बाप चन्द्रिका दान पुन, पूजा अष्टजाम, बोलबम जाए आ कन्या विवाह में भा अउर जग परोजन में देह से , नेह से, पइसा से, भाव से लागल रहत रहस बाकिर उनका मेहरारू के एक बेटा के लालसा लागल रहत रहे. चन्द्रिका आ उनकर मेहरारू आपन बेटियन के खूब ध्यान राखस संगही आपन एह नया मेहमान के जेकर नाम रखायिल ‘ विजय’. चन्द्रिका के कुछ बिमारी रहे ओहसे उ हमेशा अस्वस्थ रहत रहले आखिर एक दिन उनका फालिस मार देलस जेकरा चलते उनकर दोकानदारी कमजोर पड़े लागल. मालिकाव चन्द्रिका बो के हाथ में आ गईल.
समय के चक्कर चलत रहेला, देखत देखत चन्द्रिका बो आपन बेटियन के शादी बिआह पैसावला लमहर घर खानदान खोज के कर दिहली. विजय के बचपन में खूब लाड दुलार मिलल, चन्द्रिका के देह गिरला के बाद जानी काहे चन्द्रिका बो के मन विजय के ओर से उचट गईल. चन्द्रिका के बेमारी के बहाना बना के विजय के घर के लगे के स्कूल में नाव लिखा दिआइल फेर का गवे गवे उ टहलुआ के काम करे लगले. नगदे छरहर हो गईल रहलें, कमें उमिर के उनकरो बिआह हो गईल आ अब घर में एगो अउर टहलुआ बढ़ गईल आनि की विजय के घरवाली.
हेने चन्द्रिका बो सब धन आपन बेटीयन भीरी ठेकावे लगली, उनकर नियत में खोट साफ़ लउकत रहे. चन्द्रिका के जिनगी जबले रहल विजय के हालत त ठीक रहल बाकिर उनकर मउगत के बाद से चंद्रिका बो अउर कलाबिन हो गईल रहली, कम उमीर के विजय के मेहरारू पर जुलुम करे लगली, जुलुम अइसन की एक दिन विजय बो के पागल खाना जाए के पड़ी गईल. एतने ना विजय बो के चन्द्रिका बो हरेक रोज मारस पिटस. एक रोज विजय पूछ लेलस – माई रे ! हई हमरा मेहरारू के काहे मारत बाड़े. एही बात पर खिसिया के आँख लाल पियर करत चन्द्रिका बो विजय के घर से छांट देली. चन्द्रिका बो बेटियन के घर घर घूमत बाड़ी.
आखिर एक दिन विजय के मेहरारू पुछए लेली – ऐ जी ! अम्माजी काहे हमनी साथे अइसन व्यवहार करत बानी.
विजय कहले – पोसपुत हई नु ! एही से…
भोजपुरी लघुकथा “पोसपूत”, लेखक: संतोष पटेल