परनाम ! स्वागत बा राउर जोगीरा डॉट कॉम प, रउवा सब के सोझा बा भोजपुरी कहानी खोपड़ी, पढ़ीं आ आपन राय जरूर दीं कि भोजपुरी कहानी खोपड़ी कइसन लागल आ रउवा सब से निहोरा बा कि एह कहानी के शेयर जरूर करी।
सोन नदी का रेती पर आदमी के एक-आध गो खोपड़ी गड़ल-पड़ल रहल कउनो अचरज के बात नइखे । काहें कि गाँव-जवार के लाश सोन नदी का कछारे पर जलावल जाला । एह से रेती पर आदमी के खोंपड़ी भा हाथ-गोड़ के हड्डी गड़ल-पड़ल लडकि गइल कउनो अनहोनी बात ना मानल जाय । बाकिर ओह खोपड़ी में ना जाने अइसन का रहे कि हम खिंचाइल-खिंचाइल ओकरा लगे चलि गइल रहीं । साफ-समतल रेती पर ऊ खोंपड़ी महादेव अस स्थापित रहे । हो-ना-हो कउनो अबाटी लड़िका ओह खोपड़ी के ओह रूप में स्थापित क दिहले रहे । अइसे, आम तौर पर त रेती पर पावल जाय वाला खोंपड़ी ढिलमिलाइले-तिलमिलाइल रहेला । खैर, खोपड़ी का लगे जा के हम बइठि गइल रहीं । फिर हम ओकरा के गौर से देखले रहीं । ओकर लिलार खूब चौड़ा रहे । माथा गोल रहे । माथा का ऊपर खिंचाइल करिया-करिया रेघारी माथा के कई खाना में ठीक ओसहीं बाँटत रहे जइसे बिहार के नक्शा में जिला बँटाइल रहेला ।
‘करम के लेख साइत एकरे के कहल जाला ।’ -ओह रेघारियन के देखि के हम सोचले रहीं । फिर हम रेती पर से बित्ता भर के एगो लकड़ी उठा लिहलें रहीं आ ओही लकड़ी से हम ओह खोपड़ी के गवें ठेल दिहले रहीं । हमरा ठेलते ऊ खोंपड़ी सहजे एक ओरि ढिलमिला गइल रहे । तब हम ओही लकड़ी से ओकरा के उलटि-पुलटि के देखले रहीं । खोपड़ी में दूनों आँख के जगहा पर एक-एक छेद रहे । दूनों कान के जगहा पर एक-एक छेद रहे । खोपड़ी के नाक ना रहे । बाकिर नाको के जगहा पर एगो छेद बनल रहे । खोपड़ी के निचिला जबड़ा ना रहे । खाली ऊपर वाला जबड़ा रहे, जउना में दूनों अलंग दू-दू गो चह रहे । ठीक से देखला पर ऊ खोपड़ी कउनो जवान भा अधबूढ़ आदमी के बुझात रहे । काहें कि लड़िका के खोंपड़ी ओतना बड़ ना हो सकत रहे आ जादे बूढ़ के खोपड़ी में चहू ना हो सकत रहे ।
‘अच्छा,ई मरद के खोपडी बा कि मेहरारू के?’ -ओही बीचे हमार मन ई सवाल दगले रहे तब हम एह सवाल के हल करे खातिर ओह खोपडी के फिर से कई दफा उलटले-पलटले रहीं । बाकिर एह सवाल के हल करे लायक कउनो अर्जा हमरा हाथे ना लागल रहे । तब हम अनसा के ओह खोपड़ी के नीचे लकड़ी पेस दिहले रहीं आ ओकरा के हवा में उछाल दिहले रहीं । ऊ खोंपड़ी उछलि गइल रहे आ दू-तीन हाथ अलगा जाके रेती पर धब्ब से गिरि गइल रहे । अब हम उहवाँ से उठि के गवें-गवें घर का ओरि चलि दिहले रहीं। ओह घरी सूरुज खपड़िया बाबा के बरगद के फुनगी पर बइठल कनखी से ताकत रहे । साँझ ओकरा के चहेटे के तइयारी में रहे आ सूरुज पलखत पावते भागि के फरहंगपुर के बगइचा में लुका जाय के फिराक में रहे । हमार गोड़ अब तेजी से घर का ओरि बढ़े लागल रहें ।
काहें कि हाथ-गोड़ धो के पढ़े बइठे के टाइम भइल आवत रहे । कुबेर भइला पर बाबूजी से इँटाए के डरो मन में रहे । एही से हम कुछ-कुछ हड़बड़ाइले घर का ओरि बढ़ल जात रहीं । बाकिर हमार मन अबहियों ओही खोपड़ी में अझुराइल रहे, जेकरा चलते हमरा सामने दोसर-दोसर कई गो सवाल खाड़ हो गइल रहे । तइयो ओह कुल्हि सवालन से लड़त-झगड़त हम घर के राह पर बढ़ले चलल जात रहीं । बाकिर एक बार ओह कुल्हि सवालन के जोड़ एह तरी कबड़ल रहे कि हमार गोड़ अपने-आप मुड़ि के फिर ओही खोपड़ी का लगे चलि गइल रहे । ऊ खोंपड़ी रेती पर ओसहीं-के-ओसहीं पड़ल रहे । ओकरा लगे जाके हम फिर बइठि गइल रहीं ।
पहिले वाला लकड़ी ओह खोपड़ी के बगले में पड़ल रहे । हम ओह लकड़ी के उठा लिहले रहीं आ ओकरे से ओह खोपड़ी के फिर से उलटि-पलटि के अपना सामने खाड़ सवालन के जबाब खोजे लागल रहीं । बाकिर हर दफा हमरा हाथ में फुक्का लागल रहे । हमरा लाख चाहला के बादो, हमरा ई ना बुझाइल रहे कि ऊ खोपड़ी कउना जाति के ह ? अगड़ा के ह कि पिछड़ा के ह ? हिन्दू के ह कि मुसलमान के ह ? उलुटे हर दफा हमरा ई बुझाइल रहे कि ऊ खोंपड़ी हमरा के कउँचा रहल बा । तब हम पितपिता गइल रहीं आ खींझ में आ के ओह खोपड़ी के एगो आँख में लकड़ी घुसेड़ दिहले रहीं । लकड़ी ओह खोपड़ी के आँख में घुसि के फैसि गइल रहे । जउना के चलते अब लकड़ी के खिंचला पर ओकरा संगे-संगे खोंपड़ियो खिंचाय लागल रहे ।
‘अच्छा । अब एह खोपडी के नदी के जल में परवह क देवे के चाहीं ।’ -हमरा मन में ई बात अचके उठल रहे । तब हम ओह खोपड़ी के लकड़ी के सहारे टांग लिहले रहीं । फिर ओकरा के नदी के जल में परवह करे खातिर चलि दिहले रहीं । बाकिर हम पानी का लगे जसहीं पहुँचे-पहुँचे भइल रहीं कि हमार मन बदल गइल रहे । अब हम ओह खोपड़ी के गाँव में ले जाय के मन बना लिहले रहीं । संगे-संगे हम इहो सोच लिहले रहीं कि गाँव में ले जा के हम ओह खोपड़ी के तेलिया मशान के खोंपड़ी घोषित क देहबि । अइसन क के हम गाँव के लोगन के छकावल चाहत रहीं । असल में हमरा एह विचार के पीछे हमरा गाँव में आवे वाला एगो मदारी रहे । ओह मदारी के पाले तेलिया मसान के एगो खोंपड़ी रहे । मदारी ओही खोपड़ी के प्रताप से किसिम-किसिम के करतब देखावे में माहिर हो गइल रहे । खैर, एही विचार का साथे हमार गोड़ अपने-आप गाँव का ओरि घूमि गइल रहे । ओह घड़ी साँझ आकाश से उतरि के फेंड़न पर सुसता चुकल रहे आ अब भुइयाँ में उतरि के लोट-पोट करे के तइयारी में रहे । कुबेर त होइए चुकल रहे, एह से हमहूँ दुलकिये पर घर का ओरि बढ़े लागल रहीं।
‘बाकिर खोपड़ी के घरे ले गइल ठीक नइखे ।’ -घर का पिछुआरी पहुँचि के हम सोचले रहीं । फिर त एह बिचार के उठते हमार गोड़ ठमकि गइल रहे । तब हम उहवें खाड़ हो के एह दिसाईं आगे बिचार कइले रहीं। खोंपड़ी के देखते बाबूजी के आँख तड़ेरल आ माई के हल्ला कइल हमरा साफ लउके लागल रहे । बलुक बिना नहवइले माई हमरा के आँगन में टपे दिहें, हमरा एहू बात के शक भ गइल रहे । तब हम ओह खोपड़ी के घरे ले जाय के बिचार छोड़ दिहलें रहीं आ ओकरा के एगो बाँस के कोठ मे छिपा के राखि दिहले रहीं । ओह खोपड़ी के खैर सबेरे पूछे के ख्याल मन में लिहले हम गवें-गवें आहत-थाहत दुअरा पर गइल रहीं । बाबूजी ओह घरी गाय दूहत रहीं । हमार आहट पावते उहाँ का आपन मुड़ी घुमा के हमरा टोकले रहीं -‘कौलेज के पढ़ाई एही तरी पार लागी हो ?’
हम कुछ बोलले ना रहीं । बलुक चुपचाप सरसराइल हम आँगन में चलि गइल रहीं । माई ओह घड़ी रसोई घर में रही । आँगन एकदम सुनसान रहे । हम आँगन में जा के पहिले हाथ-गोड़ धोवले रहीं । कुल्ला-कल्लाली कइले रहीं फिर चुरुआ में जल लेके हम आपन सउँसे शरीर पर छिड़कले रहीं । तब हम दुआर पर आ गइल रहीं आ ललटेन ले के चुपचाप पढ़े खातिर बइठि गइल रहीं । बाबू जी ओही घड़ी गाय दूहि के उठल रहीं । उहाँ का हाथ में दूध के बाल्टी टंगले आ हमरा पर एक नजर डालत घरे चलि गइल रहीं । एह बीचे हमार आँख किताब पर गड़ल रहे । बाकिर हमार मन पढ़े में इचिको ना लागत रहे । हमरा माथा में त अबहीं तकले उहे खोपड़ी चक्कर काटत रहे । हमरा उहे खोपडी के फोटो किताब के एक-एक अच्छर में लउकत रहे, जेकरा चलते हमार माथा अब भारी भइल आवत रहे । हमार मन अब फीका-फीका भइल आवत रहे ।
ई सोचि के हमार मन अउरी थहल गइल रहे कि जउना खोपड़ी के आज सजावल-सँवारल जात बा, तेल-फुलेल-स्नो-पाउडर लगावल जात बा, उहे खोंपड़ी एक दिन जेने-तेने ढिलमिलाइल फिरी । जिनगी के इहे साँच, ओह घरी, हमरा मन के जइसे तूड़ि दिहले रहे आ तब जिनगी हमरा झुठ के एगो मोटरी लागे लागल रहे । ओह घड़ी, हमरा इहो बुझाइल रहे कि जिनगी में हाय-हाय कइल, जाल-फरेब रचल, भा छल-कपट घृणा-द्वेष राखल सचहूँ पाप बा ।
‘अइसे त हम सनक जाइब !’ -अचके हम चिहुँकल रहीं । फिर अपना माथा के दू-तीन बार जोर से झटका दिहले रहीं । बाकिर तबहूँ हमार माथा हलुक ना भइल रहे । तब हम उठि के ओसरा से नीचे सहन में उतरि गइल रहीं । दू घड़ी अन्हरिया अब बीते-बीते भइल रहे आ गाँव का ऊपरी अँजोरिया मोहिया चुकल रहे । हम अबहीं सहन में उतरि के टहले खातिर मन बनावते रहीं कि उत्तर दिशा से हमरा रऊफ मियाँ के आवाज सुनाई पड़ल रहे । रऊफ मियाँ के घर हमरा घर से तीने घर के बाद बा । एह से उनुकर बोली हमरा साफ-साफ सुनाई पड़त रहे । ऊ केहू के जोर-जोर से गरियावत रहलें । एह से ई बात साफ साबित होत रहे कि उनुका के केहू चिढ़ा दिहले बा । अरे केहू चिढ़वले का होई, खाली उनुका दुआर का सोझा से गुजरत खानी बोका के बोली बोलि दिहले होई । रऊफ मियाँ खातिर ओतने काफी बा । ओतने पर त ऊ शुरुवे हो जाले । फिर त उनुकर रिकार्ड घंटों बाजते रहि जाला । ओह बीचे ऊ तउन-तउन गारी पढ़ेले, जउन ना केहू सुनले रहेला, ना सोचले रहेला । बाकिर उनुकर गारी के कबहूँ केहू अमनख ना मानेला । बलुक सभे अउरी लुफ्ते लेवेला । का हिन्दू का मुसलमान सभे के एक तरह से खेलवना बाड़े रऊफ मियाँ ।
‘लागत बा कि रऊफ मियाँ के केहू चिढ़ा दिहले बा !’ -पीछा से बाबू जी के ई आवाज हमरा कान में पड़ल रहे । तब हम पलटि के पीछा तकले रहीं । बाबूजी खाना खा के दाँत खोदत आँगन से निकसलि रहीं फिर उहाँ का ओसरा में बिछावल चउकी पर बइठत-बइठत आगे कहले रहीं -‘भला बूढ-पुरनिया के एह तरी चिढ़ावे के चाहीं ? हुँ ! कइसन-कइसन खोपड़ी वाला लोग बाड़े एह गाँव में ?’
बाबूजी के बात पर हम कुछ बोलल ना रहीं । बाकिर उहाँ के बात हमरो अँचल रहे । रऊफ मियाँ अस बूढ़-ठूढ़ के एह तरी चिढ़ावल हमरो नीक ना लागल रहे बाकिर एह गाँव के आदमी सब के का कहल जाव ? इहवाँ त एक-से-एक खुराफाती खोंपड़ी वाला लोग बाड़े । इहवाँ अइसनो लोग बाडे जेकरा खोंपड़ी में खाली भूसे भरल बा आ अइसनो लोग बाड़े जेकरा खोपड़ी में अइसन-अइसन पेंच बाटे, जिन्हनी के सझुरावे खातिर बड़-बड़ खोपड़ी वाला आदमी के फेने-फेन हो जाय के पड़ेला ।
‘ए बबुआ ! आवs खा ल हो !’ घरे से माई हमरा के ओही घड़ी खाय खातिर पुकरले रही । तब हम सहन में से ओसारा में आ गइल रहीं। फिर चउकी पर छितराइल आपन किताब-कॉपी के हम समेटि के राखि दिहले रहीं। किताब कॉपी रखला के बाद हम ललटेन उठा के खुंटी में टांगि दिहले रहीं आ तब हम खाये खातिर आंगन में चलि गइल रहीं ।
खाना खाते-खात हमरा एक बेर फिर घर का पिछुआरी बँसवारी में छिपा के राखल खोपड़ी के इयाद हो आइल रहे । तब हम ओह खोपड़ी के लेके आगे के योजना पर बिचार करे लागल रहीं । ओही बीचे हमरा माथा में एगो नया बिचार अँखुआइल रहे । फिर त देखते-देखत ऊ बिचार एगो लमहर फेड़ हो गइल रहे आ ओही लगले ऊ फेड़ फले-फूले लदि गइल रहे । साँचो, ओह घड़ी हमरा मन में खूब गुदगुदी उठल रहे आ हम अपने आप मुसका दिहले रहीं।
जेह घड़ी खाना खा के हम उठल रहीं, अपना सँगे उहे फेंड़ ले के उठल रहीं । ओह घड़ी माई रसोई घर में दूध अँवटत रही । आँगन में हमरा अलावे अउरी केहू ना रहे । अइसन मौका देखि के हम झटके पर आपन मुँह हाथ धो के पूजा घर में चलि गइल रहीं । पूजा घर में जा के हम झटके पर एगो पुड़िया में रोड़ी, एगो पुड़िया में अक्षत आ एगो पुड़िया में धूप लिहले रहीं । फिर ओह पुड़ियन के आपन कुर्ता के जेबी में राखि के हम दुअरा पर आ गइल रहीं।
दुअरा पर बाबूजी तब तकले आपन चउकी पर बिछावन लंगा के लेटि चुकल रहीं । ओह से पहिले उहाँ का गाय-बैलन के नाद पर से उतारि दिहले रहीं आ दुअरा पर एक बाल्टी पानी आ एगो लोटा राखि दिहले रहीं रऊफ मियाँ के बोलियो ओह घड़ी ना सुनात रहे । ऊहो थाकि-थूकि के तब तकले शांत हो चुकल रहलें ।
दुअरा पर आ के हमहूँ सबसे पहिले आपन चउकी पर बिछावन लगवले रहीं। फिर ताखा पर से माचिस उठा के आपन कुर्ता के जेबी में डालि लिहले रहीं । तब हम खूटी में टाँगल ललटेन के बुझा दिहले रहीं । ललटेन बुझवला के बाद हम एगो गोइँठा ले आ के ओकरा पर ललटेन में से थोडिका सा किरासन तेल गिरा लिहले रहीं । फिर ओह गोइँठा के आपन चउकी का नीचे राखि के हमहूँ लेटि गइल रहीं।
बिछावन पर लेटि के हम आपन आँख बन्द क लिहले रहीं । शुरू में हमार मन थथमला अस बुझाइल रहे । बाकिर थोड़िके देरि के बाद ऊ जेने-तेने पँवरे लागल रहे । ओह बीचे हमरा मन में कबो गुदगुदी उठे लागल रहे, कबो डर समा जात रहे । कबो हमार होठ पर मुसकी दउड़े लागत रहे, कबो हमार सउँसे देहि के रोवाँ खाड़ हो जात रहे । माने एक तरह से ऊखी-बीखी लेसि दिहले रहे हमरा, जेकरा चलते हम कबो एह करवट हो जात रहीं, कबो ओह करवट कबो चित्त हो जात एहीं, कबो पेटकुनिये । एही तरी आधा रात हो गइल रहे । तब हम अनसा गइल रहीं आ उठि के बइठि गइल रहीं । बाबूजी ओह घड़ी फोंफ काटत रहीं । उहाँ के नाक जोर-जोर से बाजत रहे । मौका अच्छा रहे । एह से हम चउकी पर से गवें उतरि गइल रहीं । फिर चउकी का नीचे राखल गोइँठा के हम उठा लिहले रहीं । तेकरा बाद हम एक लोटा पानी लिहले रहीं आ गवें-गवें, पाँव बँतले ओसरा में से हम सहन में उतरि गइल रहीं।
ओह घड़ी चानी पर चढ़ल चान ठठा के हँसत रहे । पहिले त हमार चोर मन ओतना अँजोर सहे में धुकमुकाइल रहे । बाकिर माथा के बेरि-बेरि हुडपेठला पर ऊ तइहार हो गइल रहे । फिर त हम दस मिनट में लक्ष्य भेदन करि के फिर दुअरा पर लवटिये आइल रहीं ।
दुअरा पर लवटि के सबसे पहिले हम माटी से हाथ मंजले रहीं । एक बार, दू-बार, तीन बार । फिर हम गोड़ धोवले रहीं, कुल्ला कइले रहीं । तेकरा बाद आपन बाहर-भीतर के शुद्धि खातिर हम चुरूआ में जल ले के मंत्र बुदबुदाइल रहीं -‘ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । य: स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ।।’ फिर मंत्रोपचारित जल के हम आपन देहि पर छिड़कि के सूते खातिर बिछावन पर चलि गइल रहीं ।
ओह घड़ी हमार माथा हलुक लागत रहे । बाकिर हमार आँख अलसाइल रहे आ हमार मन थाकल-थाकल लागत रहे । एह से हम चुपचाप अब आँख मूंदि के सूति जाय के मन बना लिहले रहीं।
ओकरा बाद ना जाने कब हमार आँख लागि गइल रहे आ हम एगो डरावन सपना देखे लागल रहीं । ओह घड़ी हम देखले रही कि जउना खोपड़ी के हम रेती पर से ले आइल रहीं, उहे खोपड़ी अचके आ के हमार छाती पर सवार हो गइल रहे । फिर देखते-देखत ऊ खोपड़ी बिला गइल रहे आ ओकरा जगहा पर रऊफ मियाँ प्रगट हो गइल रहलें । रऊफ मियाँ के आँख से ओह घरी खून टपकत रहे आ उनुकर दूनों हाथ हमार गरदन टीपे खातिर बढ़ल आवत रहे । साँचो, ओह घड़ी हम बहुते डरि गइल रहीं आ मदद खातिर जोर-जोर से चिल्लाय लागल रहीं ।
तलुक ओही घड़ी माई हमरा के झकझोरि के जगा दिहले रही -‘बबुआ ! बबुआ !! बउआत बाड़ का हो ?’
तब हम अकचका के जागि गइल रहीं आ उठि के बइठहीं के चाहत रहीं तलुक माई हड़बड़ाइले फिर कहले रहीं -‘उठऽ, देखऽ रऊफ मियाँ के दुआर पर साइत झगड़ा हो गइल बा ।’
अतना सुनते हम चिहुँकि के बइठि गइल रहीं । फिर आपन लुंगी सम्हारत हम झटके पर ओसारा में से सहन में उतरि गइल रहीं। किरिन अबहीं अबगे फूटल रहे आ सूरज के मुँह ओह घड़ी खीसी लाल भइल आवत रहे । ओने रऊफ मियाँ के दुआर पर से ओही घड़ी ‘अल्ला हो अकबर’ के तुमुल नाद सुनाइल रहे । तेकरा पीठ पर ‘महाबीर स्वामी की जय’ के जय-घोष लगले-लागल दू-तीन बेर सुनाइल रहे । फिर त ई कुल्हि सुनि के हमरा जइसे कठेया मारि दिहले रहे आ हमार गोड़ उहवें के उहवें थथमि गइल रहे । ओही घड़ी बाबू जी रऊफ मियाँ के दुआर का ओरि से हाँहें-फाँफे आइल रहीं आ आवते उहाँ का हमरा के बरजि दिहले रहीं -‘ओने मति जइहs, ओने दंगा हो गइल बा ।’
माई ओह घड़ी दुअरा पर ओसारा में खाड़ रही । बाबूजी के बात सुनते ऊ चिहा के पूछले रही -‘कइसन दंगा ए दादा !
बाबूजी तब तकले चउकी पर बइठि चुकल रहीं । उहाँ का आपन गमछा से मुँह पोछत बड़ा दुखित हो के कहले रहीं -‘का कहीं कइसन दंगा ? अरे, राते कउनों बदमाश रऊफ मियाँ के दुआरी पर एगो खोपड़ी राखि के पूजा क दिहले रहे…. बिहान भइला रऊफ मियाँ उठले त, लगले गाँव भर के हिन्दू के गरियावे….. ओही घड़ी संयोग से राम प्यारे भाई पैखाना जात रहलें….. ऊ रऊफ मियाँ के टोकि दिहले कि मय हिन्दू के काहें गरियावत बाड़ऽ ? -जे अइसन नीच काम कइले बा, ओकरे के गरियावऽ…. एही पर रऊफ मियाँ उनका से अझुरा गइलें आ बाते-बात में उनुका पर बधना चला दिहले…. एही पर त बात बढ़िये गइल ह….. फिर गवें-गवें दूनों गोल के जुटान हो गइल ह आ हो गइल ह कसि के मार…… अब पता ना आगे अउरी का-का होई ?’
‘आई हो दादा?’ -माई ई कुल्हि बात सुनि के आपन छाती पीटि लिहले रही -‘कउन पापी खोंपड़ा-खोंपड़ी ले आ के अइसन कुकरम क दिहलसि ए दादा !’
बाबू जी एह पर छुटते कहले रहीं -‘जब इहे पता रहित कि अइसन कुकरम के कइले बा, तब सबसे पहिले ओकरे खोपड़ी के ना फोड़ि दिहल जाइत ।’
साँचो, बाबू जी के ई बात हमरा धक् से लागल रहे । ओह घड़ी हमार एक मन अइसनो भइल रहे कि चलि के बाबूजी के आगा हम आपन खोपड़ी राखि दिहीं बाकिर का कहीं, ओह घड़ी हमरा हिम्मते ना नू भइल रहे ?
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