अपना बलमा के जगावे सांवर गोरिया

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प्रो0 बी0 एन0 विभाकर
प्रो0 बी0 एन0 विभाकर

अपना बलमा के जगावे सांवर
गोरिया-चुडि़या से मार-मार के

प्रो0 बी0 एन0 विभाकर

‘बहे पुरवइया रस चुवेले महुइया कि कवना बने कुहुके रे कोइलिया।
जब से संवरिया रे भइलें परदेसिया कि जियरा तइसे तलफे रे मछरिया।
विरह-विदग्धा नायिका के अल्हड़ करेज झांझर हो गइल बा। ‘पिया-पिया कहत पियर भइलें देहिया’ के स्थित में पहूॅंयल नायिका के लोराइल आँख में सावन सहम गइल बा। जब से गुलाब के गंध मुस्काइल का अंग-अंग में सेमर के रंग भर आइल बा आ लाल-लाल टेसू सपना में टीस रहल बा। पुरवा के सिसकी मन मरमरा देत बा। उमीर के पांव बहके लागत बा। रस बरसत रयना में खनकत कंगना साजन के सुधी में साध के सनकाहीन बना देत बा। ‘परदेस जा के परदेसिया मुझे भूल ना जाना पिया’ के रेषमी कसम बास किमती वायदा समय के धार संगे बहे लागत बा, तब हिया के दिया तले जिनगी आन्हार लागत बा-
अंसुअन से संझवत के दिअरा जराइले,
बुति जाला दिअरा त हियरा जराइले
तबहुँ ना होखेला अंजोर
मोरा सजना के देषवा में कइसे होला भोर?
जिनगी के पाँव पिरा गइल बा। असरा में
टंगाइल आँख पथरा गइल बा। पूजा के फूल
मन-मन्दिर के देवता पर चढ़े खातिर छछनत
बा-

‘फरि गइलें अमिया लहसि गइलें डरिया,
तइयो ना आइल परदेसिया हो राम।’
विचारके हहरत आन्ही में कबो चिन्तन के डोरी मसक जात बा- ‘रेलिया ना बइरी, जहजवा ना बइरी, पइसवा हो राम।’

बाकिर मदमातल फागुन के सोहागिन रात में पिया के आवाई सुन के जिया जवान होखे लागत बा। साध के सावन संगं हेराइल परदेसी जब पलाष के पाती बांच के ढेर दिन पर घर लवटत बा, तब जियरा जुड़ा जात बा। बाकिर हिया के हूक आ कोइलर के कूक से बेबुझ पिया निरभेद सूत रहत बा। रयना के के बयना नइखे लेत। तब नायिका के लागत बा कि ओकर जिनगी के चान-सुरूज छपित हो गइल बा। हिया के हुलास होली के हाहर में हेरा गइल बा। ‘आज होली काल्ह होली, अंजरा होली पंजरा होली।’ बाकिर हो-ली तब नु-होली। ओकरा खातिर त आज-

रामा साँझही के सुतल रामा फुटल किरिनिया हो रामा
तबो नाहीं जागेला हमरो बलमुआ हो रामा
रामा चुर घींची मरनी पइरिचा घींची मरनी हो रामा,
तबो नाही जागेला संइया अभागा हो रामा।
रामा तोरा लेखे ननदी तोर भइया निन्हिया के मातल हो रामा।
मोरा लेखे चान-सुरूज छपित भइल हो रामा।

भला अइसन घवाहिल सपना के संघाति बेदरदी पिया के गोरिया काहे ना जगावो- ‘चुडि़या से मार-मार के।’ जेकरा खातिर उ इन्तजारीमें में परान बिछवले रहल-
कागा स बतन खाइयो चुन-चुन खाइयो मांस,
दो नयन मत खाइयो पिया मिलन के आष।’
आज उहे साजन निष्ठुर निन्ह में मदमातल उमीर के अनेसा में बन्हाइल बा। एह से गोरिया चुडि़या से मार-मार के जगावत बिआ।

सवाल ई बा कि अल्हड़ नायिका अपना नायक के चुडि़या से मार के जगावत बिआ? जगावे खातिर आउरो माध्यम त हो सकत बा। फेरू ‘सावर गारिया’ कवना सन्दर्भ में आइल बा। इहो विचारणीय बा। उहो ‘ख्ुिड़या से मार के अपना बालम के जगावत विआ, आउर दोसरा के ना। एह शब्द के बिम्ब चित्र भी ध्यान देवे लायक बा।

सावर गोरिया  में नायिका के ‘ष्यामा’ स्वरूप लउकत बा। ‘ष्यामा’ नायिका ओकरा के कहल जाला जवन गर्मी में ठंढा आ ठंढा में गर्म महसूस होखे। एकर संकेत सेक्सी नायिका से बा।

जवन मन के अपेक्षा तन के रिष्ता से करीब होले। प्रेम के तीन गो भेद कइल बा- त्वउंदजपब स्वअम, स्वअम जितवनही च्ंततपमदजंसस बीवपबम आउर च्वसवजवदपब स्वअम। इहां सावर गोरिया के हिया में त्वउंदलपब स्वअम के भाव बा। एह से बहुत दिन के बाद विदेस से लवटला पर उ नायक से साहचर्य भाव से जुड़ जाए के चाहत बिआ। मदमातल बेरा में हारल-खेदाइल नायक सुतल बा, बाकिर ओकरा लेह के निहार के सबूर बान्ह टुट जात बा। नायिका याहत बिआ कि ओकरा के उदबेग के जगाई। अब जगावे खातिर उ अंगुरी से

खोद सकत बिआ, कंकर फेंक सकत बिआ। बाकिर उ जानत बिआ कि अइसन बेबुझ पिया के अइसे जगावल ठीक नइखे। बुझतउक रहित त अतना दिन पर भेंटइलो पर निरभेद सुतीत। अफसोस इहे बा-
‘‘उससे खेली होली जिसे ज्ञात नहीं फागुन क्या होता है,
उसे दे दिया मन जिसे ज्ञात नहीं मन क्या होता है।’’

एह से उ जगावे खातिर अइसन माध्यम के प्रयोग करत बिआ जवना के प्रभाव ओकरा मन के भीतर उतर जाव। ‘चुडि़या हिन्दु संस्कृति में सोहाग के चिन्ह ह। उ ओकरा माध्यम से जगा के अपना सोहाग के प्रत्यच्छीकरण करात बिआ। उ बतावे के चाहत बिआ कि हाथ-बाँह धइला के भारतीय संस्कृति मे कुछ अर्थ होला। इ अधिकार मांग में सेनूर डालहीेंवाला पर हो सकत बा। एह से उ ‘अपना बलमा’ के जगावत बिआ ‘चुडि़या से मार-मार के।’

ठहां पर मुग्धा नायिका के सांचल पिरित उमड़ रहल बा। लगन में मगन होके, जेठ में हेठ बनल कनिया घरे अइली आ तुरान्ते पति के परदेस परइला पर सावन के अॅगना में सपना के ॅूल मुरझाए लागल-

‘होई गइली रतिया पहाड़ हा
सवनवा में नाहीं अइलें बलमू।
झिमिर-झिमिर बरसे मग्धा के पानी
भींजे नयनवा में प्यार के कहानी
घोरेले जहर बवछार हो-
सावन में नाहीं अइले बलमू

ओकर सौभाग्य कहाॅ बा कि साजन के संगे सावन के साध कटो। उ कइसन सखी बाड़ी जेकरा घरे-
आहो बाबा बहेला पुरवइया, अब पिया मोरा सोवे ए हरी।
कलिया चुनी-चुनी सेजिया डसइनीं
संइया सुते आधी रात, देवर बड़ी भोरे ए हरी।
लवंग खिलि-खिलि बिरवा लगइनीं
संइया चाभेलें आधी राती, देवर बड़ी भोरे ए हरी।
जियरा कइसे बोधो बेचारी-
कोठवा पर चढ़ी झांकत बाड़ी धनिया
कि नाही अइलें हो अलगरजी मोर बलमुआ
कि नाहीं अइलें हो।
साध के सावन बितला पर फागुन में आवाई के चिट्ठी आवत बा। फेरू नायिका अपना मन के फागुन के रंग में में रंगावे के कोषिष करत बिआ। ‘हम त जानी पिआ आपन हउअन
परदेसिया हउंवे हो राम।
में ओकर खीस फूट रहल बा। मरद के बहरवाॅसू भइला पर गाॅवो जवार टिहुली मारत बा-

नया भइलें सरिसो पुरान भइलें तोरी
अब कइसे माथवा बन्हइबू हो गोरी।
नायिका भला का जबाब देव।
मूड़ी झुका के धिरे से कह देत बिआ-
चसकल छोड़एब छंवड़ा तोर
मथवा बन्हा के तनि आवे द।
एह मे प्रियतम के आवाई के भाव फूटत बा।

अंत में परदेसी पिया आवतो बाड़ें त अइसन कि उनकर आवाई, आवाई नइखे लागत। कइसन भावुक स्थिति बा जब सवांग सामने बा तबहूं सवांग के सुख निन्ह के नेह में हेराइल बा। दुख त इ बा कि-

एही नगरिया के बभना,
नइयो ना जाने तोहार।

धीरज के धार जब मुरूक जात बा, तब उ सोहाग के सामने करके अपना दरद के बोधत बिआ-
अपना बलमा के जगावे सांवर गोरिया,
चुडि़या से मार-मार के।

स्रोत: संतोष पटेल

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