नइहर छूटलऽ जात रे!
काँहें एतना सनेह सुगना
नइहर छूटलऽ जात रे!
ना केवनो चिन्ह बाँचीऽ
नाही पहचान रे!
दुआर रसता सब
बनी जाई अन्जान रे!
नइहर छूटलऽ जात रे!
दिन दुपहरी
नाहीं साँझ सवेर रे!
बीतल जाई पर
ना होई अबेर रे!
नइहर छूटलऽ जात रे!
सब कुछू छूटी
नाही कुछू बाँची
अँखिया के लोरवा
होइहें परेह रे!
नइहर छूटलऽ जात रे!
जे कुछू बचवनी
जे कुछू चोरवनी
परी डाका ओपर
सँसिए के फेर रे!
नइहर छूटलऽ जात रे!
काँहे फिकिर सुगना
का चाहीं, का ना चाहीं
एकर फिकिर तू
काँहे करे सुगना।
राह चलत जा दिन-दुपहरी
साँझ ढ़ली ना ढ़ली
काँहे सोचे सुगना।
काँहे फिकिर सुगना॥
जेवन मिललऽ तेवने तोहार हऽ
पथर हऽ ई कि
हवे फूल सुगना।
काँहे फिकिर सुगना॥
मन चिरई हऽ मन के ना सुनऽ
मन ललची कुछ ना कुछ
माँगी सुगना।
काँहे फिकिर सुगना॥
परिचय
नाम: राजीव उपाध्याय
सहायक संपादक मैना (http://www.maina.co.in/)
पता: बाराबाँध, बलिया, उत्तर प्रदेश
शिक्षा: एम बी ए, पी एच डी (अध्ययनरत)
लेखन: साहित्य (कविता व कहानी) एवं अर्थशास्त्र
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