मोती बी.ए. : साहित्यकार के जीवन का विश्लेषण उसके साहित्य के मूल्यांकन से कठिन है। साहित्य की कसौटी सर्वमान्य होती है, पर उर्वर भूमि आलोचक के विशेष दृष्टि-बिन्दु को आकाश दे सकती है। कविता का विशेष भाव, चित्र का विशेष रंग और गीत का विशेष लय, किसी के लिए रहस्य का द्वार खोल सकती है और किसी से टकराकर व्यर्थ हो जाती है, पर जीवन की इतिवृत्ति इतनी विविधता नहीं सम्भाल सकती।
साहित्य व्यक्ति को सहज बनाने का कार्य करता है। साहित्य को लिखने वाला साहित्यकार एवं साहित्य में रूचि रखने वाले साहित्य प्रेमी जन समृद्ध और उदार होते हैं। प्रत्येक सजग साहित्यकार के कृतित्व में उसका व्यक्तित्व फलित होता है और व्यक्ति के निर्माण में उसके पारिवेशिक और पारिवारिक संस्कारों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लोक साहित्य हिन्दी साहित्य की ऐसी विधा है, जो स्वयं में निरूपमेय है।
लोककण्ठ से उत्पन्न और उसी में रची-बसी और जन-जीवन की सूक्ष्म अनुभूतियों को स्वर देने वाली यह विधा हिन्दी में ही नहीं विश्व साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। मानव समाज के लिए इतिहास महत्वपूर्ण है, किन्तु इतिहास बनता है भूगोल के बाद। प्रकृति किसी देश-विदेश को किसी विशेष प्रयोजन के लिए चुन लेती हैमनुष्य प्रकृति द्वारा चयनित स्थानों पर जो कुछ करते हैं उससे इतिहास बनता है
इतिहास साक्षी है कि हर युग में लोकोत्तर क्षमतावान कवि, कलाकार, नेता, साहित्यकार समय के शिलाखण्ड पर अपने उदात्त व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ते हैं ऐसे ही साहित्यकारों में से एक थे मोतीलाल उपाध्याय पर प्रसिद्धि मिली मोती बी.ए. के नाम से। हिन्दी, भोजपुरी, उर्दू और अंग्रेजी भाषा पर समान अधिकार रखने वाले भोजपपुरी के शेक्सपीयर मोती जी के जीवन संघर्ष और साहित्यिक कर्म को समझने के लिए उनके जीवन तथा युग से परिचत होना आवश्यक है।
जिन्होंने अपने जीवन की शुरूआत गीत गाने से कीफिर गीतों के रचयिता बन गए। अंग्रेजों को उनके क्रान्तिकारी स्वर इतने तीखे लगे की कई बार वे जेल में डाले गए। किस्मत फिल्मों में ले गई जहाँ से उन्होंने भोजपुरी का डंका पूरे देश में बजाया लेकिन रुपहले पर्दे का मोह उन्हें जीवनपर्यन्त नहीं बाँध सका क्योंकि उन्हें सम्मान की शर्त पर शोहरत नहीं चाहिए थी। फिर जीवन भर साहित्य सृजन किया और ज्ञान बाँटते रहे, वह भी चार–चार भाषाओं मेंऐसे महान साहित्यकार जिसका साहित्य इतिहास के पन्नों से ओझल है, शोधार्थी होने के नाते समाज में उसकी प्रासंगिकता को देखते हुए निम्नलिखित तथ्यों पर विचार करना आवश्यक है-
मोती बी.ए. का जीवन संघर्ष –
मोती बी.ए. का जन्म ‘एक अगस्त, सन् उन्नीस सौ उन्नीस’ (01.08. 1919 ई0) को देवरिया जिले में स्थित बरेजी नामक ग्राम में हुआ था। ये मालवीय वंश के ब्राह्मण थे, इनके पिता का नाम पं0 राधाकृष्ण उपाध्याय तथा माता का नाम कौशल्या देवी था। सन् 1914 ई0 में घर की परिस्थितियों से ऊबकर इनके पिता जी ने अंग्रेजी सेना में नौकरी कर ली। सेना में नौकरी करने के बावजूद सामान्य और संयुक्त ब्राह्मण परिवार में आय से अधिक व्यय का बोलबाला थाफिर भी इनके पिता ने अपने बच्चों की शिक्षा की उचित व्यवस्था की।
मोती बी.ए. की प्रारम्भिक शिक्षा किंग जार्ज स्कूल, बरहज (देवरिया) से हुई। अंग्रेजी पढ़ने के लिए वे पनिका बाजार (देवरिया) के एक ट्यूटर के पास जाया करते थे। सन् उन्नीस सौ चौंतीस (1934 ई0) में किंग जार्ज स्कूल बरहज से हाईस्कूल पास करने के बाद नाथ चन्द्रावत कालेज धर्मशाला बाजार गोरखपुर से इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण किये।
मोती जी को गाने का शौक बचपन से था, वे मनपसन्द कविताओं को जबानी याद कर लेते थे। डॉ0 इकबाल रिज़वी ने ‘जो गुजर गया वह वक्त हूँ मैं’ नामक अपने संस्मरणात्मक लेख में लिखे हैं – “मोती जी जब कक्षा नौ में पढ़ते थे तब एक दिन उनके विद्यालय में गीतकार शम्भुनाथ सिंह पहुँचे, मोतीलाल की आवाज में गीत सुने और कहा कि तुम दूसरों के गीत क्यों गाते हो। स्वयं की कविता लिखा करोउनके सुझाव से प्रेरणा लेकर मोती लाल ने कविताएँ लिखनी शुरू कींउसी समय महादेवी वर्मा के भाई मनोहर वर्मा के सम्पादन में हस्तलिखित ‘विद्यालय’ पत्रिका निकलनी शुरू हुईइसमें पहली बार मोतीलाल की एक कविता ‘बिखरा दो ना अनमोल अरी सखि चूँघट के पट खोल’ छपी।
इण्टरमीडिएट की पढ़ाई पूरी कर लेने के पश्चात् मोती जी को अर्थसंकट का सामना करना पड़ा। फिर भी स्नातक तक मोती जी की शिक्षा कायदे की रही। स्नातक के बाद मोती जी का शैक्षिक जीवन संघर्षों से भरा हुआ थाइनके पिता जी कर्ज के भार से लदे हए थे, अतः जो कछ कमाते थे वह साहूकार और महाजनों के पास कर्ज के सूद में चला जाता था।
एम0ए0 करने के इच्छुक मोती बी.ए. आजीविका की तलाश में दैनिक समाचार पत्र ‘अग्रगामी’ में सात-आठ महीने नौकरी किए और उसके बाद अत्यन्त कठिन परिस्थितियों को पार करते हुए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से इतिहास विषय में एम0ए0 कियेमोती जी की एम0ए0 की फीस उनकी धर्मपत्नी लक्ष्मीदेवी उपाध्याय के गहने बेंचकर दी गयी थी। एम0ए0 की उपाधि धारण करने के बाद पुन: सन् 1943 ई0 तक ‘अग्रगामी’, ‘आज’, ‘संसार’, ‘आर्यावर्त’ समाचार पत्रों के सम्पादकीय विभाग में मूर्धन्य पत्रकार बाबूराव विष्णु राव पराड़कर तथा सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी शचीन्द्र नाथ सान्याल के साथ सहायक के रूप में कार्य करने लगे।
सन् 1942 ई0 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में सक्रिय रहने के कारण त्रिलोचन शास्त्री, डॉ0 स्वामीनाथ सिंह तथा मोती बी.ए. को भारत रक्षा कानून के अन्तर्गत सेन्ट्रल जेल चेतगंज (वाराणसी) में नजरबन्द रखा गया था। अंग्रेजी हुकूमत इनके खिलाफ जब कोई सबूत नहीं एकत्र कर पायी तो इन्हें रिहा कर दिया।
उन दिनों मोती बी.ए.राष्ट्रीय चेतना उभारने वाले गीत लिखा करते थे। तकली कातना, चरखा चलाना और आजादी का गीत लिखना और गाना उनका नियमित कार्य थाउन दिनों इनका सबसे प्रिय गीत था- ‘झण्डा तिरंगा लहराए मेरे देश में, हाँ हाँ रे, हाँ हाँ रे मेरे देश में रूइया छात्रावास ब्लाक ‘अ’ में रहने के दौरान साप्ताहिक ‘आज’ (सन् 1945-46 ई0) में ‘बिना गीत गाए न मैं जी सकूँगा’, शीर्षक से एक गीत छपा। काशी के साहित्यिक वातावरण में रहते हुए मोती बी.ए. की आत्मा काव्य सृजन में रमी हुई थी फिर भी पीएच0डी0 करने की लालसा उनके मन में सशक्त एवं सजीव थी। वे टिचर्स ट्रेनिंग कालेज वाराणसी से टीचर्स ट्रेनिंग किए, प्रमाण-पत्र भी प्राप्त हुआ, किन्तु ये प्रमाण-पत्र पीएच0डी0 करने की इच्छा के समक्ष सदैव फीके प्रतीत होते थे। मोती जी ने लिखा है कि- “टीचर्स ट्रेनिंग का कोर्स पूरा होने को थाइसके बाद मैं क्या करता यह अनिश्चित थामेरा विचार इतिहास में विशेष अध्ययन का था। शोधछात्र के रूप में मैं डाक्ट्रेट करने का अभिलाषी था किन्तु गुरूदेव आचार्य पं0 सीताराम द्विवेदी और महाकवि पं0 श्यामनरायण की कृपा से मैं बी0टी0 का कोर्स पूरा करने लगा गरीबों के हौसले इसी तरह पूरे होते हैं, वे माँगते हैं चार आना और पाते हैं दस नया पैसा मैं चार आना छोड़कर दस पैसे पर ही लटू हो गया।
सन 1943-44 ई0 में कलकत्ता, बम्बई, पूना और लाहौर फिल्म व्यवसाय के प्रमुख केन्द्र थे। अपनी रचनाधर्मिता के कारण साहित्यिक गोष्ठियों एवं कवि सम्मेलनों का मंच सुशोभित करने वाले मोती बी.ए. का फिल्मों में जाना उनके साहित्यिक जीवन की असफलता का घोषणा–पत्र था। फिल्मों में जाना मोती जी की प्राथमिकता कभी नहीं रही, किन्तु रोजगार की तलाश में परिवारजनों की आवश्यकताओं की पूर्ति के निमित्त उन्होंने लाहौर की ओर रूख किया, जहाँ उनकी मुलाकात पंचोली आर्ट्स पिक्चर्स के मालिक दलसुख पंचोली से हुई पंचोली ने मोती जी को सौ रूपये महीने के वेतन पर गीतकार के रूप में रख लिया।
वाराणसी से लाहौर पहुँचने पर मोती बी.ए. ने पंचोली पिक्चर्स की बन रही फिल्म ‘कैसे कहूँ साजन’ के लिए पांच गीत लिखे जो काफी लोकप्रिय हुए। इसके पश्चात वे मुम्बई आ गए और वहाँ ‘सुभद्रा’ फिल्म के लिए तीन गीत तथा ‘भक्त ध्रुव’ फिल्म के लिए तीन गीत लिखेडॉ0 धर्मेन्द्र कुमार पाण्डेय ने ‘फिल्म जगत में मोती बी.ए. का योगदान’ नामक अपने लेख में लिखा है कि- “फिल्म ‘एकदम’ में उन्होंने दो गीत लिखे इस फिल्म में ‘काटे न कटे मोरा दिनवा’ यह पहला भोजपुरी गीत था जो किसी हिन्दी फिल्म के लिए लिखा गया हिन्दी फिल्मों में सर्वप्रथम भोजपुरी गीत लिखने का श्रेय मोती बी.ए. को ही जाता है।”
सन् 1948 ई0 में किशोर साहु निर्देशित फिल्म ‘नदिया के पार के लिए मोती जी ने सात गीत लिखे। इस फिल्म के गीतों ने देश भर में धूम मचा दियाइस फिल्म के सभी गीत लोकधुनों पर आधारित थे, इस फिल्म का सबसे लोकप्रिय पहला गीत ‘कठवा के नइया बनइहे रे मलहवा, नदिया के पार दे उतार’, यह बिरहा के धुन पर आधारित था। नदिया के पार फिल्म की मुख्य भूमिका में दिलीप कुमार एवं कामिनी कौशल थे। सार्वजनिक रूप से शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ और जानकी बल्लभ शास्त्री की उपस्थिति में सन् 1993 ई0 में ‘बेबसी यह के/ मोती यहाँ गिरना मना है’, का काव्य पाठ करने वाले मोती बी.ए. को क्रमश: गीत लेखन का कार्य मिलता गया, इनकी चर्चित फिल्में रहीं सुभद्रा (1946 ई0), सुरेखा हरण (1947), रामबाण (1948 ई0), राम विवाह (1949 ई0), ममता (1952 ई0) इत्यादि लगभग पचासों फिल्मों में सफल गीत लेखन किया। गजब भइले रामा, चम्पा चमेली तथा ठकुराइन इत्यादि फिल्मों में मोती जी ने गीत लेखन के साथ-साथ अभिनय भी किया।
‘सजनि यह आह्वान तेरा नामक कविता पाठ करने पर प्रथम कवि सम्मेलन का तिलक मोती जी के माथे पर लगाजीवन को दीक्षित करने में कविता का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है कविता आत्मविकास का साधन हैयह मनुष्य को पूर्णता की दिशा में अग्रसर करती है। कविता कवि बनाती है यह मर्म मोती जी के मन में बैठ चुका था
जीवन में होने वाली प्रतिकूल घटनाएँ अभिव्यक्ति की छटपटाहट में कविता का रूप धारण करती जा रही थीं। सामाजिक, आर्थिक एवं पारिवारिक संघर्ष करते रहने से मोती जी का हृदय जर्जर हो गया था तब उन्होंने एक मुक्तक प्रस्तुत किया-
“हाले दिल मेहरबान मत पूछिए
हम तजरुबाज के हैं सताए हुए
ये हंसी है जहर की बुझाई हुई
ये ठहाके सभी चोट खाए हुए।”
जीवन की इस तपती जलती रेत में कविता की हरियाली और पत्रकारिता के जलस्त्रोत के अलावा फिल्मी दुनिया की भूख को मिटाने की इच्छा में मोती जी की दशा ‘तनी अउरी दउर हिरना पा जइब किनारा’ की भाँति हो गई थीक्योंकि कविता और पत्रकारिता से तो मोती जी को लगाव था लेकिन फिल्मों में जाना उनकी मजबूरी थी क्योंकि उन्हें पैसों की आवश्यकता थी। मोती जी ने अपने एक इण्टरव्यू में कहा है कि “गाता हूँ तो जमाना साथ देता है, रोता हूँ तो कोई आँसू भी पोंछने नहीं आता, वही रोना कविता में जब गीत बन जाता है तो तोहफे पर तोहफा ईनाम पर ईनाम मिलने लगते हैंआँसुओं की माधुरी गीतों में महक उठी है, आँसुओं का दर्द गीतों में नशे की हालत पैदा कर देता है, आँसुओं की गर्मी गीतों में हरियाली और ताजगी भर देती हैमैंने आँसू को गीतों में गाकर परम आह्लाद का अनुभव किया है दुनिया और दुनियादारी का दर्द जब गीतों की चासनी में रीझ जाता है तब वह महौषधि बन जाती है।
लाहौर की सारी पीड़ा बम्बई में गीत बनकर फिर चहकने लगी परन्तु सन 1952 ई0 में मोती बी.ए. ने बम्बई छोड़ दिया और सन् 1952-1980 ई0 तक श्री कृष्ण इण्टर कालेज बरहज (देवरिया) में तर्कशास्त्र, इतिहास और अंग्रेजी के अध्यापक रहे। लोगों को लगा कि मोती बी.ए. ने महानगरों का गन्धर्व लोक छोड़कर बरहज जैसे छोटे कस्बे में इण्टर कालेज की अध्यापकी करके गलती की इस बात पर मोती जी ने कहा कि ‘फिल्म संसार का गन्धर्वलोक छोड़कर अपने गाँव के निकट बाबा राघवदास के आश्रम में श्री कृ ष्ण इण्टर कालेज का साधारण प्रवक्ता होकर रहने के गौरव से मैं अपनी महिमामयी विभूति से अजजान नहीं हूँ’
अपने जीवन काल में अन्त तक मोती बी.ए. अध्यापकी से प्राप्त पेंशन पर आश्रित रहे। 18 जनवरी सन् 2009 ई0 को मोती बी.ए. का स्वर्गवास उनके वर्तमान निवास स्थान (लक्ष्मी निवास, नन्दना पश्चिमी बरहज) देवरिया में हुआ मोती जी के निधन से साहित्य जगत में शोक की लहर व्याप्त हो गई। साहित्यकारों ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए उनके निधन को साहित्य के एक युग का अन्त बताया। गोरखपुर विश्वविद्यालय (हिन्दी-विभाग) के प्रोफेसर अरुणेश ‘नीरन’ ने प्रेसवार्ता में कहा कि- “कविता के प्रति परम्परा मोती बी.ए. की कविता में प्रकट होती है इनको मुख्य धारा में लाने का श्रेय मोती जी को जाता है। वे भोजपुरी के इतिहास पुरूष थे वैसे ही जैसे हिन्दी के मैथिलीशरण गुप्त।
मोती बी.ए. साहित्य के क्षेत्र में तो सक्रिय थे ही साथ ही साथ वे आकाशवाणी मुम्बई, प्रयाग, लखनऊ और गोरखपुर में भी कार्यरत रहे। उनकी स्वरचित लोक संगीतिकाओं का सीधा प्रसारण लखनऊ और गोरखपुर दूरदर्शन केन्द्रों से समय-समय पर हुआ करता था जिनमें से ‘बरखा बहार ‘गाँव की गोरी, हराभरा है गाँव हमारा’, ‘चलो खेत की ओर इत्यादि प्रमुख हैं। मोती बी.ए. ‘विद्यालय पत्रिका’ का सम्पादन भी करते थे साथ ही साथ वे अपने विद्यालय में अनेक नाटकों का मंचन भी किए– ‘झाँसी की रानी’, ‘सेनापतिपुण्यमित्र शुंग, श्री ठाकुर प्रसाद सिंह कृत नाटक ‘वीर विक्रमादित्य ‘औरंगजेब’, ‘चन्द्रगुप्त’ आदि। ‘झाँसी की रानी’ में मोती बी.ए. कर्नल रोज की भूमिका निभाए थेइसी प्रकार ‘पुण्यमित्र शुंग’ में युनानी राजदूत हेलियोडोरस, ‘वीर विक्रमादित्य’ में नहपान (एक क्षत्रप), औरंगजेब, सेल्युकस आदि की भूमिका बड़ी सफलता के साथ प्रस्तुत किये।
मोती बी.ए. अपने अध्यापन के दौरान नियमित विद्यालय में कवि सम्मेलनों का आयोजन किया करते थे। कवि सम्मेलनों में आचार्य पं0 सीताराम चतुर्वेदी, पं0 श्यामनरायण, आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री, क्षेमेन्द्र सुमन, रूपनारायण त्रिपाठी, बेधड़क बनारसी, बेबस बलरामपुरी, विकल साकेती सूड जी, चन्द्रशेखर मिश्र, बुद्धिनाथ मिश्र आदि बहुत से कवियों का कविता पाठ मोती जी ने श्रीकृष्ण इण्टर कालेज, बरहज (देवरिया) में कराया। जनप्रियता एवं प्रगतिशीलता तो मोती जी के व्यक्तित्व का एक पक्ष था। राष्ट्रप्रेम और सामयिक कविताओं के माध्यम से वे जन मानस को प्रेरित किया करते थेअपने द्वितीय पुत्र भालचन्द्र उपाध्याय से बात-चीत के दौरान मोती बी.ए. ने अपने अतीत को याद करते हुए कहा कि- “1952 ई0 के प्रथम चुनाव में मेरी कविता ‘अब कैसी लाचारी यारों चुनाव संग्राम का गीत रहा है। राजनीतिक कुप्रवृत्ति को लक्ष्य करके मैंने कविता लिखी थी ‘कइसे चली नाई, इ त नइये में छेद बा’ जिसने जनता पर जादू सा असर किया।” मोती जी अपनी रचनाधर्मिता एवं फिल्मी कलाकार के रूप में तो प्रसिद्ध थे ही साथ ही साथ वे पाठ्येतर कार्यों के लिए केवल अपने क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि एक विस्तृत क्षेत्र में लोकप्रिय थे।
व्यक्तित्व शब्द स्वयं में बहुत गहन है। किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का नियामक तत्व उसका परिवेश तथा संस्कार होता है। सामान्यतः व्यक्तित्व से अभिप्राय व्यक्ति के शारीरिक बनावट, रहन-सहन से लिया जाता है, किन्तु ये व्यक्तित्व के बाह्म पक्ष हैं। किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का आन्तरिक पक्ष बाह्म पक्ष से महत्वपूर्ण होता है तथा आन्तरिक पक्ष का निर्माण व्यक्ति के परिवार तथा समाज से होता है। निष्कर्षतः कहने का अभिप्राय है कि व्यक्ति के बाह्म और आन्तरिक दोनों पक्ष जिनकी अभिव्यक्ति वह अपनी विभिन्न क्रियाओं–प्रतिक्रियाओं के द्वारा करता है, अपनी समग्रता में वही उसका व्यक्तित्व है।
मोती बी.ए. का व्यक्तित्व आकर्षक तथा गरिमायुक्त था। रंग गोरा, लम्बाई साढ़े पाँच फुट के लगभग हाफ कमीज जवाहर जैकेट, सिर पर गाँधी टोपी, खादी का पायजामा, कोल्हापुरी चप्पल, गठीला-फुर्तीला बदन। यह इनके व्यक्तित्व का बाह्य पक्ष थाचाय-पीना और पान खाना मोती जी को बहुत ही पसन्द था। वे पान की डिबिया हमेशा अपने साथ रखते थे मोती बी.ए. के व्यक्तित्व के निर्माण में उनकी धर्मपत्नी स्व0 लक्ष्मी देवी उपाध्याय सदैव सहभागी रही थींमोती जी अपने काव्य-संग्रह ‘प्रतिबिम्बिनी’ की भूमिका में लिखे हैं कि “मेरी धर्मपत्नी और प्रतिबिम्बिनी में कोई अन्तर नहीं है। व्यक्तिगत प्रसंगों का यहाँ स्थान नहीं वरना मैं निःसंकोच लिखता कि मेरी रचना इनके सहयोग के बिना अधूरी थी।”
मोती जी का जीवन संघर्षों से भरा हुआ था किन्तु युवावस्था का संघर्ष उनके वृद्धावस्था के लिए स्वर्ग बना। तीन पुत्र, दो पुत्रियाँ और नाती-पोतों से भरे-पूरे परिवार के शान्त एवं मधुर वातावरण में मोती जी के जीवन का अन्तिम समय व्यतीत हुआ मोती बी.ए. शतरंज और बैडमिण्टन के अच्छे खिलाड़ी थे। सिल्क का कुर्ता इनके पसन्दीदा पोशाकों में एक था, युवावस्था में मोती जी छायावादी कवियों की भाँति लम्बे-लम्बे बाल भी रखते थे गले में माला और हाथ में अँगूठी पहनने का शौक तो फिल्मी दुनिया की देन थी। रहन–सहन, खान-पान में पूरी स्वच्छता बरतते थे, हमेशा स्वच्छ एवं सुन्दर वस्त्र धारण करना इनका स्वभाव था। मोती जी के बारे में बातचीत के दौरान इनके पुत्र भालचन्द उपाध्याय ने बताया कि- “ईश्वर की दी हुई काया को बाबूजी ने स्वयं गढ़ा हैनियमित टहलना, व्यायाम, खेलकूद, पूजा, शाकाहारी भोजन के सेवन ने शरीर को निरोग और स्वस्थ्य रखने में काफी सहायता कीहालांकि काफी कठिनाइयों के दिन रहे थे मगर एक बात थी कि बाबूजी रूचि से खाते और ठीक से रहते थे। शाही भोजन से सदैव विरत तथा ग्राम्य भोजन में जो कुछ भी हो सकता था उसको उन्होंने हमेशा सराहा और तरजीह दी”।
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी मोती बी.ए. श्रेष्ठ साहित्यकार, सिनेकलाकार होने के बावजूद भी अपनी जड़ एवं जमीन को हमेशा याद रखते थे। वे मुम्बई तथा लाहौर से घर आने पर गोबर–पानी, घास-भूसा, खुरपी-कुदारी, खेती-बारी का जीवन पुनः शुरू कर देते थे।
मोती बी.ए. के समय का साहित्यिक–परिवेश वर्तमान साहित्यिक–परिवेश की भाँति ही गोल-गिरोह प्रचार-दुष्प्रचार वाला था लेकिन अनेकता में एकता की भावना से ओत-प्रोत मोती जी का कोई गोल-गिरोह नहीं था, इनके व्यक्तित्व में विभेद की स्थिति कभी न आ सकीइनका व्यक्तित्व सकारात्मक थाउन पर निराशावादी और पलायनवादी होने का आरोप लगाया गया किन्तु वे कभी भी निराश नहीं हुए उन्होंने कहा कि’परिस्थितियों के कारण मैं निराशावादी था और परिवेश के कारण पलायनवादी’।
मोती बी.ए. देहाती धरती की उष्मा से बने कर्मठ इंसान थे। पुत्र, पति, पिता होने के दायित्व का निर्वाह करते हुए भी उन्होंने विपुल साहित्य पढ़ा और लिखा। वे अपने मित्रों, पाठकों, शिष्यों के बीच बहुत मान-सम्मान प्राप्त किएवे एकान्त में बैठकर अपनी लेखनी चलाते थे गुनगुनाते हुए लिखना उन्हें बहुत ही पसन्द था।
भोजपुरी के पुरोधा मोती जी का साहित्यक व्यक्तित्व बहुत ही विराट था। उन्होंने लोक और लोक जीवन से सम्बन्ध रखने वाले विविध आयामों पर बेपरवाह और बेजोड़ लेखन किया चाहे वह लोक जीवन की धार्मिक स्थिति हो या प्राकृतिक, सामाजिक आर्थिक हो या राजनीतिक। इनके प्रसंशकों को इनका बहुआयामी व्यक्तित्व आवाक् कर देता था क्योंकि ये उनके समक्ष कभी कलाकार तो कभी गीतकार के रूप में प्रस्तुत होते थे, तो कभी साहित्यकार और मंचीय कवि के रूप में। विद्वान आलोचक डॉ0 रामचन्द्र तिवारी ने मोती जी के व्यक्तित्व के यायावरी पहलू का प्रभाव किस प्रकार उनके जीवन और साहित्य पर पड़ा इसको स्पष्ट करते हुए कहा है- “श्री मोती बी.ए. को हिन्दी साहित्य में वह महत्व नहीं प्राप्त हुआ जो प्राप्त होना चाहिए थाइसका एक मनोवैज्ञानिक कारण है और वह यह कि प्रारम्भ में आपकी प्रसिद्धि गीतों के माध्यम से हुई साहित्य-जगत में फिल्मी गीतकारों को वह मर्यादा नहीं प्राप्त होती जो कलात्मक गीति रचयिताओं को प्राप्त होती है। दूसरे आपने प्रारम्भ में अपनी भोजपुरी रचनाओं को प्रकाशित कराया। श्रोता व पाठक उस पर रीझे अवश्य किन्तु लोक-कवि को वे साहित्यिक हिन्दी कवियों की पंक्ति में न बैठा सके। अब जब श्री मोती बी.ए. की अनेक रचनाएँ एक साथ प्रकाशित हुई हैं तो हम यह अनुभव करते हैं कि यह एक ऐसे नाविक की नौका में सुरक्षित रत्नराशि है, जो धारा से कटकर जलावर्त में भटक गया था। अब तो इसी विश्वास से आगे बढ़ना होगा कि- काल असीम है और पृथ्वी का विस्तार विपुल है। कभी तो कोई समानधर्मा उत्पन्न होगा जो इन रत्नों को परखेगा।
मोती बी.ए. ने कभी भी अपना नाम साहित्य के शीर्ष स्थान पर लाने की होड़ में आलोचकों और विद्वानों की चाटुकारिता नहीं की। उनकी लेखनी में सच को सच और झूठ को झूठ कहने एवं उस पर टिके रहने का अदम्य साहस एवं शक्ति थामानवीय मूल्यों में मोती बी.ए. की अटूट निष्ठा थी उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में स्थित बनारस, गाजीपुर, देवरिया, गोरखपुर के अलावा आजमगढ़-जनपद की मिट्टी से उनका जुड़ाव था। उनकी लेखनी मनुष्य के चरित्र-निर्माण एवं यथार्थ की उन्मुखता की ओर संकेत करती हैयह उनके व्यक्तित्व का आलोकित पक्ष था। राजनीति एवं क्रान्ति में रूचि रखने वाले मोती स्वतन्त्रता संग्राम में बेबाक होकर कविताएँ लिखे उन दिनों ‘असवारी’ और ‘लाचारी इनके प्रमुख गीत थे। इनकी कविताओं के माध्यम से इनके क्रान्तिकारी व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक दिखाई पड़ती है। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्व0 चन्द्रशेखर ने 1998 ई में भारत की संसद में अपने भाषण के दौरान इनकी कुछ पंक्तियों को उद्धृत किया था-
“सच्ची बात बताना, मेरे मत में द्रोह नहीं है
शासन की कमजोरी, दिखलाना विद्रोह नहीं है
वह शासक आदर्श जो, इस कवि का हो आभारी
अब कैसी लाचारी यारों, अब कैसी लाचारी।
मोती बी.ए. के कृतित्व में उनका व्यक्तित्व फलीभूत होता है प्रमुख टी0वी0 चैनल सहारा और ई0टी0वी0 द्वारा समयानुसार इनके व्यक्तित्व एवं कृ तित्व से सम्बन्धित कार्यक्रमों का प्रसारण होता रहताप्रमुख समाचार पत्र ‘दैनिक जागरण’, ‘सहारा समय’, ‘आज’, ‘स्वतन्त्रचेतना’ में भी मोती जी से सम्बन्धित आलेख बराबर आते रहते थे श्री नौबत सिंह द्वारा सम्पादित ‘विश्वदर्पण’ नामक अन्तर्राष्ट्रीय कविताओं का संग्रह, जो मारीशस से प्रकाशित है, में इनकी कविताएँ संकलित हैं। मोती जी के व्यक्तितव को स्पष्ट करते हुए प्रख्यात साहित्यकार डॉ० अरूणेश नीरन का विचार है- “कविवर मोती बी.ए. को देखकर एक विशाल बरगद का बिम्ब उभरता है जितना कि मैं सोचता हूँ, यह बिम्ब उतना ही विराट होता जाता हैसघन और शाखाओं से समृद्ध । केवल एक व्यक्ति इतना विशाल और बहुआयामी हो सकता है, क्या आने वाली पीढ़ियाँ कभी सोच पायेंगी। वे दूर से देखेंगी और असम्भव आश्चर्य से घुटने के बल गिरकर सिर झुका देंगी। हमारे जैसे लोग भाग्यशाली हैं जिनके चारों ओर से यह जीवित आश्चर्य ताने-बाने की तरह फैला हुआ एक विशाल नर्सरी की तरह पल रहा है। जिसकी नसें आशीर्वाद की तरह चारों और फैली हुई हैं मोती जी वह सर्जनात्मक वर्तमान हैं जिनमें उनका और भोजपुरी काव्य का गर्वीला भूतकाल समाहित है और भविष्य के अंखुए अपनी आँख खोल रहे हैं। वे ऐस केन्द्र हैं जिसमें भोजपुरी काव्य की समस्त मनोदशाएँ, सारे विद्रोह, सारी उड़ानें, सारे आवेग और सारी सफलताएँ चित्रांकित हैं।
मोती बी.ए. को सन् 1987 ई0 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा आदर्श अध्यापक पुरस्कार से सम्मानित किया गयाइस पुरस्कार से यह ज्ञात होता है कि मोती जी का व्यक्तित्व एक आदर्श अध्यापक से भी गौरवान्वित था।
मोती बी.ए. को विभिन्न क्षेत्रों में योगदान देने के कारण अनेक पुरस्कार एवं उपाधियों से सम्मानित किया गया जो इस प्रकार हैं
राज्य साहित्यिक पुरस्कार (सन् 1973 ई0) इनके हिन्दी काव्य संग्रह ‘समीधा’ पर।
उ0प्र0 हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा ‘राहुल सांकृत्यायन’ पुरस्कार (1984 ई0),
विक्रमशीला हिन्दी विद्यापीठ, भागलपुर द्वारा (सन् 1984 ई0),
संस्कृति संस्थान गोरखपुर द्वारा ‘संस्कार भारती सम्मान’,
‘कविकुल-चूड़ामणि की उपाधि एवं प्रशस्ति’ (सन् 1987) संस्कृति संस्थान भाट पार रानी (देवरिया) द्वारा,
हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा ‘भोजपुरी रत्न अलंकरण’ की उपाधि,
अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य परिषद द्वारा सन् 1993 ई0 में ‘कविरत्न’ की उपाधि,
श्री महावीर प्रसाद केडिया हिन्दी साहित्य एवं सांस्कृतिक संस्थान द्वारा ‘आनन्द सम्मान’
‘पूर्वाञ्चल श्री’ की उपाधि तथा ‘सरस्वती स्मृति चिन्ह’ सन् 1995 ई0 में,
‘श्रुतिकीर्ति सम्मान’ ‘सेतु-सम्मान’ विश्व भोजपुरी सम्मेलन भोपाल द्वारा, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा
‘भाषा सम्मान’इन उपाधियों और सम्मानों के अतिरिक्त मोती जी ‘किसलय’, ‘काव्यभूषण’ तथा ‘सरयूरत्न’ सम्मान द्वारा सम्मानित थे।
मोती बी.ए. का साहित्य-कर्म:
साहित्य का एक मूल्य संसार होता हैहिन्दी के श्रेष्ठ आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है- “साहित्य जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिम्ब है।11 शुक्ल जी का उक्त कथन प्रत्येक कवि, लेखक, साहित्यकार के साहित्यिक-कर्म के साथ लागू होता हैअपने परिवेश एवं जीवनानुभव से जो कुछ भी मिलता है- उसे संवेदन शक्ति बना सकने की क्षमता साहित्य को ऊर्जावान और विश्वसनीय बनाती है। साहित्यकार या कवि का अनुभव जब उनकी चेतना से मिलकर अनुभूति का स्थान प्राप्त करता है, तब कविता और साहित्य में उसकी उपयोगिता होती है।
मोती बी.ए. का सृजनात्मक मन लोक के प्रति पूर्ण रूप से निष्ठावान था। अपनी इस प्रतिष्ठा के साथ-साथ हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत आदि भाषाओं में भी साहित्य-सृजन कियागद्य, काव्य, अनुवाद से लेकर फिल्मी गीतों के लेखन तक का सफर करने वाले मोती जी के साहित्यिक कर्म का विवरण इस प्रकार है।
हिन्दी काव्य:
मोती बी.ए. की रचनाधर्मिता का आरम्भ उनके अप्रकाशित हिन्दी काव्य-संग्रह ‘लतिका’ से होता है। रामदेव शुक्ल द्वारा सम्पादित ‘मोती बी.ए. ग्रन्थावली’ के कुल सात–खण्डों के प्रथम चार–खण्डों में कुल तेइस (23) हिन्दी काव्य संग्रह हैं जिनमें 16 (सोलह) प्रकाशित तथा सात अप्रकाशित थे। किन्तु अब इन सात अप्रकाशित रचनाओं को भी रामदेव शुक्ल ने मोती बी.ए. ग्रन्थावली में प्रकाशित किया है।
लतिका:
‘लतिका’ सन् 1936–1940 ई0 के मध्य रचित अप्रकाशित कृतियों का संग्रह है, इस काव्य संग्रह के अन्तर्गत छोटी-बड़ी कई कविताएँ विभिन्न शीर्षकों की हैं’लतिका’ की इन कविताओं के माध्यम से कवि ने कविता को नये स्वर और सन्दर्भ दिये हैं। इस काव्य संग्रह के माध्यम से ही कविता के प्रति कवि की भावनाओं को अभिव्यक्ति मिली है, जब कवि इसकी भूमिका में ‘लतिके सम्बोधन को तटस्थ भाव से सूखी लकड़ी को सौंप देता है वस्तुतः नि:स्सार और निर्जीव से भी लतिका का जुड़ना बिना समर्थ कवि दृष्टि के सम्भव ही नहीं था इस जटिल संसार के कटु सत्य का अनुभव कवि ने नये ढंग से किया-
“आज ही रे आज इसने आँख
निज खोली ले अटल विश्वास मन से हँस रही भोली,
लतिका अति चपल अनजान
पर यह कल्पना मेरी।
लतिका साधना ……………… ….1-12
मोती के गीत:-
इस काव्य-संग्रह की रचनाओं का सृजन मोती बी.ए. ने सन् 1941-42 ई0 के मध्य किया है मोती के गीत भाग-एक, मोती के गीत भाग-दो और मोती के गीत भाग-तीन, तीन भागों में संग्रहीत है। इस संग्रह में संकलित कविताएँ लतिका के गीतों को आगे बढ़ाती हुई प्रतीत होती हैं
छवि की छायाः-
इस संग्रह के अन्तर्गत तेरह कविताएँ हैं जिनके शीर्षक क्रमशः इस प्रकार हैं- नमित नयन, बादल छाये, क्षणभर रो लें, स्मृति नाचो, तुम्हारे पास, आज सोये गान जागे, दीपदान, इस जीवन में, मेरी याद, बसन्त प्राण देख तो जाओ, नयन के अश्रुकण, तुम कहो।
हरसिंगार के फूल (1943-1944)
इस संग्रह में पाँच लम्बी कविताएँ हैं जो कि पूर्णत: छायावादी शिल्प और रचना धर्मिता पर आधारित हैं। इन कविताओं के काव्य-पुरूष ‘निराला’ हैं। ‘हरसिंगार’ के फूल की एक कविता ‘गा लेते हो’ को सुनकर शिवदान सिंह चौहान ने कहा कि यह कविता कवीन्द्र ‘रवीन्द्र’ को समर्पित किया जाय। मोती बी0ए0 की प्रतिबद्धता ‘निराला’ के प्रति थी अत: ऐसा नहीं हुआ
लाहौर की नहर:
‘लाहौर की नहर’ सन् 1944-45 ई0 के मध्य रचित संस्मरणात्मक गीतों की लघु पुस्तिका है। लाहौर प्रवास के दौरान लिखी हुई इस पुस्तक की भूमिका में मोती बी.ए. ने लिखा है- “समय-समय पर जम्मू जाना और वहाँ के साहित्यिक बन्धुओं के बीच घण्टों काव्यानन्द का सुख लूटना, सबके बीच रहना, सबसे अलग हो जाना सबको याद का विषय बना लेना आज जबकि साठ-सत्तर प्रतिशत व्यक्ति इस संसार में नहीं रहे फिर भी इन्हीं यादों के सहारे जीवन यात्रा पूरी करने का उत्साह बने रहना मेरे लिए कम सौभाग्य की बात नहीं है। यही तो है अपना लाहौर ।”
पायल छम-छम बाजे:
सन् 1942-46 ई0 के बीच लिखित यह रचना गीतों के राजकुमार श्रीपाल सिंह ‘क्षेम’ को समर्पित करके लिखी गयी है। यह रचना कवि के जीवन का आवश्यक अंग है। इन गीतों के माध्यम से जीवन जीने की कोशिश को व्यक्त किया गया है। कवि ने इसे गीत संग्रहों की अगली कड़ी स्वीकार किया है।
बादलिका (1943-45 ई0) ‘बादलिका’ के गीत अपने ढंग के अकेले हैं- इस संग्रह की कविताएँ जीवन के आभावों की पूर्ति हेतु प्रयासरत रहती हैं और प्रत्येक टक्कर से आगे बढ़ती हुई अभावों को नैसर्गिक भाव में परिवर्तित कर देती हैं। ‘बादलिका’ काव्य संग्रह कवि के संघर्षमय क्षणों की उपज है। युग सापेक्ष कविता के स्वर और गीति की गीतिमयता बदल जाती है किन्तु भावना कहीं ना कहीं कवि को रोकती है और बादलिका के गीतों का यह स्वर कवि के मन के दीप जलाने में समर्थ हुआ है
“नूपुर आज बजे प्राणों में
दूर कहीं पर गाता कोई/अश्रु जलद बरसाता कोई
प्रतिध्वनि गरज उठी कानों में
नूपुर आज बजे प्राणों में ।।”
आँसू डूबे गीत:
‘आँसू डूबे गीत साहित्य के सुचिन्तित और समृद्ध परम्परा से जुड़े हुए हैंकवि हृदय में व्याप्त जन-कल्याण की भावना को इन गीतों के माध्यम से उजागर किया गया है। यदि इन गीतों को अनदेखा किया जाय तो यह कहा जा सकता है कि हिन्दी ने अपनी ही समृद्धि से साहित्य को वंचित कर दिया।
मधुतृष्णाः
सन् 1946–1947 ई0 के दौरान जब मोती बी.ए. मुम्बई में थे तब ‘मधुतृष्णा’ की रचना की। ‘मधुतृष्णा’ की अवधारणा पर विचार करते हुए देखा जाय तो कवि का उद्देश्य रसानुभूति के माध्यम से समरसता स्थापित करना है, परन्तु अपनी सम्पूर्ण परिधि में गीतों का केन्द्र भावाकर्षण से घिरा हुआ है-
शाश्वत पीड़ा के गीत मधुर
क्या ये जाएँगें बीत नहीं
मेरे वश में ये गीत नहीं
‘मधुतृष्णा के माध्यम से गतिशील समय से सदैव कुछ पाने की इच्छा व्यक्त की गयी है।
कवि और कविता:
इस काव्य संग्रह में ‘कवि और कविता के मध्य वार्तालाप होता है। ‘कवि और कविता में विचार तथा संसार से क्या रिश्ता होता है, कविता कवि तक कैसे पहुँचती है? जैसे गम्भीर प्रश्नों को सुलझाया गया हैइस कविता का नायक (कवि) परिस्थितियों से जूझता हुआ काव्य की आत्मा से तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करने को व्यग्र हैउसकी परिस्थितियाँ सामाजिक हैं और संघर्ष व्यक्तिगत।
समिधा:
‘समिधा’ कृति की पृष्ठभूमि में रचनाकार के सामने आदर्श गढ़ने की समस्या आ खड़ी हुयी है। जीवन और जगत के विविध चित्रावली के मध्य उस विभु के एकाग्र और एकात्म स्वरूप का दर्शन ही ‘समिधा’ का अभीष्ट है। ‘जग अपने प्रिय को पालेगा, निज प्रिय को तू गुहराये जा, पंक्षी तू निर्भय गाये जासंसार यज्ञशाला हैजीवन एक यज्ञ है मनुष्य याज्ञिक है। यज्ञ के विभिन्न उपकरणों में ‘समिधा’ का अपना विशिष्ट स्थान है। आवाहन, स्थापन अर्चन-पूजन, बन्दन के बाद हवन वह अन्तिम विधा है, जिसके पश्चात ही जीवन को आत्मिक शान्ति और दिव्य ज्योति के रूप में आत्मिक फल प्राप्त होता हैवेदों का अन्त वेदान्त में और यज्ञान्त ‘समिधा’ में सम्पन्न होता है।
कवि भावना मानवः
कवि, भावना और मानव तीनों का रूपक लेकर, कवि और भावना की अमूर्तता का मूर्त स्वरूप ‘कवि भावना मानव’ में कराया गया है। सामयिक युगीन परिवेश का दृष्टि बोध ही कवि भावना और मानव की रचनात्मक सार्थकता का आधार है। इस काव्य संग्रह में कवि, भावना और मानव अपने-अपने द्वन्द के चलते एक दूसरे के तर्क को सुलझाने में लगे रहते हैं। यथा-
“प्रकृति की पूर्णतम रचना,
प्रकृति से ही स्वयं जूझे
अन्धेरा क्यों न घिर आये,
दिये को पंथ क्यों सूझे।।
‘कवि भावना मानव’ तक आते-आते मोती जी के गीतों की यात्रा पूरी हो जाती है।
प्रतिबिम्बनी:
(1943-1971 ई0) ‘प्रतिबिम्बिनी’ की कविताओं का कारण कवि का स्वभाव है, निरन्तर काव्य या कविता में लीन रहने के कारण बात-बात में कविता ही दिखायी पड़ती है। समाधिस्थ अवस्था में तो कविता से तादात्मय होता ही है प्रकृतिस्थ होकर भी कविताओं के ही नियंत्रण में आत्मानुशासित एवं स्वत: संचालित स्थिति बनी रहती है। ‘प्रतिबिम्बिनी’ की उत्पत्ति इन्हीं दशाओं से है। इसे मोती जी की काव्य यात्रा का प्रतिनिधि संकलन माना जा सकता है।
अश्वमेध यज्ञ:
(1966-1972 ई0) ‘अश्वमेध यज्ञ’ कवि की नयी मानसिकता और कविता के बदलते स्वरूपों पर एक दृष्टि डालता है’अश्वमेध यज्ञ की अठारह पृष्ठों की भूमिका पढ़कर यह पता चल जाता है कि कवि ने नूतन के राजतिलक की भूमिका बनायी हैभारतीय इतिहास और साहित्य के संदर्भ को देखते हुए भारत की सतरंगी पृष्ठभूमि को कवि ने रेखांकित किया है। ‘अश्वमेघ यज्ञ’ कविता के बिम्ब और प्रतीक स्वयं कवि के हैं अर्थात लोकजीवन से सम्बन्धित हैं। नयी कविता और उसके समानान्तर चलने वाली कविताओं का स्वर ‘अश्वमेघ यज्ञ’ की कविताओं में मिलते हैं-
“खड़ी थी जमात एक कवियों की
राकेट स्टेशन पर।
पूछा तो एक ने बताया हमें चन्द्रलोक जाना है
बोर हुए जाते कवि सम्मेलन धरती के
हमें चन्द्रलोक जाना है।”
रावी से राजघाट (अप्रकाशित):
सन् 1966-1980 ई0 के मध्य लिखित इस काव्य संग्रह के अन्तर्गत तीन लम्बी कविताएँ हैं
‘व्योमे आजादी, ‘रावी से राजघात’, ‘झाँसी की रानी’ ये कविताएँ भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम से सम्बन्धित हैं। ‘झाँसी की रानी लम्बी कविता की रचना करते हुए मोती बी.ए. हिन्दी साहित्य में एक नवीन प्रयत्न का प्रयास किये हैंसाथ ही यह संग्रह कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान के प्रति एक अमर श्रद्धांजलि है। कवि के शब्दों में-
“चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो प्यार करो
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो।।
‘रावी से राजघाट’ कविता में तीव्र राजनीतिक स्वरों की स्पष्ट छाप झलकती है।
राशन की दुकान (1946-1997 ई०)
‘राशन की दुकान’ काव्य संग्रह की कविताएँ राजनीतिक हैं इन कविताओं के जरिए कवि ने भ्रष्ट नेताओं पर करारा व्यंग्य किया है। अपने समय में ये कविताएँ चुनावी सभा में समाँ बाँधने के लिए प्रयोग की जाती रहीं
“राशन की दूकान समर्पित उनको,
यह कन्ट्रोल विधान समर्पित उनको,
जिनके घर में अन्न नहीं है
जिनके तन पर वस्त्र नहीं है।”
तिनका-तिनका शबनम-शबनमः
(1988 ई0) मोती बी.ए. की धर्मपत्नी का देहावसान सन् 1987 ई0 में हुआ था। उन्हीं की स्मृतियों को सहेजते हुए श्रद्धांजलि के रूप में यह काव्य-संग्रह लिखा गया है। इस पुस्तक के पूर्वार्द्ध में हिन्दी एवं भोजपुरी तथा उर्दू की गजलें हैं तथा उत्तरार्द्ध में पूरा गद्य हैगद्य के माध्यम से मोती जी अपेन गाँव का वर्णन करते हुए अपनी वंशावली का विस्तृत वर्णन किया है। साथ ही साथ लेख, संस्मरण तथा पत्नी से सम्बन्धित विवरण है।
मोती के मुक्तक
(1972-1999 ई0) इस पुस्तक में हिन्दी, भोजपुरी तथा उर्दू के सभी मुक्तक दिये गये हैं।
कुछ गीत कुछ कविता:
सन् 1984-1990 ई0 के बीच लिखित यह पुस्तक कवि की वह कृति मानी जाती है जिसमें कविताओं के सहारे कवि गीतों से जुड़ा हुआ है। मोती जी अपनी पुस्तक की भूमिका में परिभाषा दिये हैं-
“गीत’ में से ‘नवगीत’ घटाएँ तो शेष होगा ‘कुछ गीत । कविता में से नई कविता घटाएँ तो शेष होगा ‘कुछ कविता’।” नाम के अनुसार इस संकलन में कविताएँ भी हैं और गीत भी।
गति के चरण:- (1990 ई0)
इस काव्य संग्रह में कवि यह स्पष्ट करने का प्रयास किये हैं कि जीवनधारा और काव्य में क्या अन्तर है? साहित्य और साहित्य-कर्मों का इस सन्दर्भ में दायित्व क्या है? साहित्य जीवन के कितना निकट तथ कितना दूर है। यही इस रचना धर्मिता का मुख्य प्रतिपाद्य है।
अथेति (अप्रकाशित/1991-1999 ई0)
इस संकलन की कविताएँ, गीत गजल, दोहा, हाइकू आदि जो मोती बी.ए. द्वारा 1991-1999 के बीच लिखे गए थे, पहली बार प्रकाशित हो रहे हैं (मोती बी.ए. ग्रन्थावली/खण्डचार) में’अथेति’ मोती जी की अन्तिम काव्यकृति है।
हिन्दी गद्य:
(1980-1987 ई0) इतिहास की कसौटी पर मानवता कभी खरी नहीं उतरती हैइसी प्रकार मानवता की कसौटी पर इतिहास प्रायः खोटा ही साबित हुआवर्तमान किस तरह इतिहास के तिक्त और कटु स्वरूप को ठुकराता रहता है यही ‘इतिहास का दर्द है जो भारत की राजधानियों की कहानी, कुछ युगान्तकारी लड़ाईयाँ, एक तवारीखी मैदाने जंगः खनवा, इतिहास की दृष्टि में अपना पराया, वेदभूमि भारत अखण्ड, हिन्दू राज्यः एक विडम्बना, गणतन्त्र भारत के कुछ बुनियादी सवाल, सम्राट हुमायूँ शक्ति था व्यक्तित्व था लेकिन, नूरजहाँ जो शह देते स्वयं मात खा गई’ इत्यादि भारत के अनेकों ऐतिहासिक तथ्यों को अपने अन्दर समेटे हुए है मोती जी की इस रचना से बहुत कम लोग परिचित हैं
निबन्ध संग्रह:
मोती बी0ए0 द्वारा सन् 1980-1987 ई0 के बीच लिखित निबन्ध रामदेव शुक्ल द्वारा सम्पादित ‘मोती बी0ए0 ग्रन्थावली, खण्ड–पाँच’ में संकलित हैंइन निबन्धों का शीर्षक है- वर्णव्यवस्था बनाम जाति प्रथा, दक्षिण भारत, कस्मै देवाय हविषा विधेमः, नूतन का राजतिलक युवाविद्रोह, भोजन वस्त्र आवास एक महाभारत, प्रगति काव्य कला का शाश्वत स्वरूप बनाम प्रगतिवाद इत्यादि।
आत्मकथ्य एवं पत्राचार:
सन् 1976–1999 ई0 के मध्य मोती बी.ए. अपने पाठकों, मित्रों विद्यार्थियों के अनुरोध पर अपने कवि जीवन तथा फिल्मी जीवन पर आधारित संस्मरणों को सुनाया करते थेउन्हीं दिनों देवरिया से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रों जैसे युग, वातायन, जनचक्षु तथा दिग्दर्शक के संपादकों ने उनसे छपने के लिए लेखों एवं कविताओं की माँग करने लगे। तब मोती जी ने आत्मकथ्य लिखना आरम्भ किया। सन् 1990 तक इन्होंने जितना लिखा वह जनचक्षु (साप्ताहिक–देवरिया) के अनेक अंकों में छपाआत्मकथ्य के आरम्भिक अंश दिग्दर्शन में भी छपे। इन पत्रों में छपे आत्मकथ्य के शीर्षक थे- कविता की खोज, खोज की उपाधियाँ, पत्रकार जीवन का अनुभव, फिल्म जगत में पदार्पण, छायालोक की सैर, फिल्मी दुनिया में गीतों का संघर्ष आदि। मोती बी.ए. का हिन्दी काव्य संसार इतना विराट था, यह विरले व्यक्ति तथा सुधिपाठक ही जानते हैं। इनकी रचनाधर्मिता को स्पष्ट करते हुए डॉ0 महेन्द्रनाथ पाण्डेय ने कहा है कि- “छायावादोत्तर गीतकारों में मोती बी.ए. अकेले कवि हैं जिन्होंने हलचलों से दूर रहकर अपनी रचनाओं में छायावाद की नयी व्याख्या दी है। आपकी विपुल काव्यराशि में शोध की अनेक दिशाएं सन्निहित हैं।”7 (राष्ट्रीय सहारा, गोरखपुर/ 19 जनवरी 2009/प्रस्तुति अनुप द्विवेदी)
भोजपुरी कविता एवं अनुवादः
भोजपुरी के सपूत मोती बी.ए. का काव्यसाधना पर पूरा अधिकार थावे अपने भोजपुरी गीतों एवं कविताओं के कारण ही लोक गीतकार के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त किये, जो इस प्रकार हैं
बनबन बोलेले कोइलिया (लोक संगीतिका संग्रह)
मोती बी.ए. ने सन् 1948 ई0-1980 ई0 के बीच इस संगीतिका की रचना की। भोजपुरी लोक मंच के अन्तर्गत जोगीड़ा, कठपुतरी का नाच, नौटंकी, धोबियों, कहारों, चमारों का नृत्य आदि का विशिष्ट स्थान है संगीतिका अथवा लोक संगीतिका उपर्युक्त मंच के लिए सर्वथा नवीन है। विदेशों में ‘आपेरा’ एवं ‘बैले’ मंच पर खेले जाते हैं संगीतिका उसी का परिवर्द्धित रूप है। जो भोजपुरी लोकमंच पर ‘लोकसंगितिका’ बन जाती है’बन बन बोले ले कोइलिया’ नामक लोक संगितिका के अन्तर्गत लोक जीवन व राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत संगीतिकाएँ साम्मिलित हैं-
“बन बन बोलेले कोइलिया
डहरिया निहारेले हो,
भईया केकरा के सबद सुनावे
उहकि जिउवा मारेले हो।”
सेमर के फूल (1955-1984 ई0)
‘सेमर के फूल’ कविता के माध्यम से कवि इस संसार के यथार्थ सत्य को उद्घाटित करने का प्रयत्न किए हैं। यह ‘निर्गुनिया कजरी’ की लोक धुन पर आधारित है। इस संकलन की ‘महुबारी कविता’ मानव जीवन का एक आदर्शरूपक है।
भोजपुरी सॉनेट (1980 ई0- 1986 ई0)
पाश्चात्य काव्य विधा में ‘सॉनेट’ छन्द का ऊँचा स्थान होता है। शेक्सपीयर का सॉनेट साहित्य में अपना अलग स्थान रखता है मोती जी ने शेक्सपीयर के सॉनेट का हिन्दी एवं भोजपुरी में अनुवाद करके इस पुस्तक में प्रस्तुत किए हैं जो सर्वथा मौलिक प्रयास हैभोजपुरी में सॉनेट लिखने का पहला प्रयास मोती बी.ए. ने कियासॉनेट चौदह पंक्तियों की रचना होती है हिन्दी में इसे ‘चतुर्दशपदी’ कहते हैं। जिसमें चार–चार की तीन पक्तियाँ होती है तथा दो पंक्तियाँ अन्त में होती हैं। इन्हीं दो पंक्तियों में कविता का मूल भाव छिपा रहता है
तुलसी रसायन (1980-1986)
कवि मोती बी.ए. का ‘तुलसी रसायन’ तुलसी दास से सम्बन्धित कृति है। ‘रामचरितमानस’ की रचना जब तुलसी दास ने किया तब काशी के विद्वत समाज द्वारा उन्हें प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा। तुलसीदास ने किस प्रकार उन विरोधों का सामना किया और वे विरोध किस तरह के थे यही तुलसी रसायन का मुख्य प्रतिपाद्य है
“आँसुओं की गीता है
साँस में रसायन है
आसरा जिलाने को
नाम का रसायन है।”
भोजपुरी फिल्मी गीत:
सन् 1984 ई0 में प्रकाशित इस पुस्तक में इनके प्रसिद्ध फिल्म जैसे– ‘नदिया के पार’, चम्पा-चमेली ‘गजब भइले रामा’ तथा ‘ठकुराइन’ आदि फिल्मी गीतों का संकलन है मोती जी इस पुस्तक की भूमिका में लिखे हैं कि- “मेरे साहित्य-जीवन पर फिल्मी रंग कभी भी हाबी नहीं होने पाया वैसे मैंने पचासों हिन्दी एवं भोजपुरी फिल्मों में गीत लिखे हैं सफलता के साथ नाम यश भी अर्जित किया मुझे अपनी फिल्मी गतिविधियों से पर्याप्त संतोष है।
इस पुस्तक में नदिया के पार फिल्म के तीन गीत, ‘गजब भइले रामा के तीन गीत तथा ‘ठकुराइन’ और ‘चम्पा मेली’ के दो-दो गीत हैं
ठोरिआव सुगना (भोजपुरी हाइकू अप्रकाशित)
मोती बी.ए. ने ‘भोजपुरी साहित्य में हाइकू नामक एक लेख को पढ़कर तथा उससे प्रेरित होकर ‘ठोरिआव सुगना’ की रचना की। इस रचना के पूर्व वे हाइकू छन्द के जानकार कई कवियों से सम्पर्क किए और ‘हाइकू के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त की।
‘हाइकू’ जापानी भाषा का छन्द है यह हिन्दी में ‘अज्ञेय’ की कविताओं में भी मिलता है इस छन्द में संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति की बहुत ही अत्यधिक सम्भावना होती है।
कालिदास कृत मेघदूत (भोजपुरी पद्यानुवाद)
सन् 1978–1979 ई0 तक मोती बी.ए. ने कालिदास के खण्डकाव्य ‘मेघदूत’ का भोजपुरी में अनुवाद किया। इसमें दो खण्ड हैं- ‘पूर्वमेघ’ और ‘उत्तरमेघ’। इसको पढ़ने से पता चलता है कि ‘मेघदूत’ में स्वस्थ्य जीवन की चेतना है, विरह की कृशता में सौभाग्य का दर्शन है, इसमें विश्व के मंगल की कामना के साथ-साथ परम्परा में गहरी आस्था है और आस्था में नव-जीवन भरने की पूर्ण शक्ति भी है। ‘मेघदूत’ का नायक ‘यक्ष शिवसाधना के लिए पुष्प चुनने के काम में नियुक्त रहता है लेकिन अपनी नयी प्रिया के प्रेम में पड़कर वह पुष्प चुनना भूल जाता हैअतः उसे अपनी प्रिया से शापवश अलग होना पड़ता है और वह काम से पीड़ित, मेघ को दूत बनाकर अलका नगरी भेजता है जहाँ उसकी प्रिया है। यही ‘मेघदूत’ का मुख्य विषय है।
अब्राहम लिंकन (अंग्रेजी नाटक का भोजपुरी अनुवाद)
सन् 1996 ई0 में मोती बी.ए. ने पाश्चात्य लेखक ‘जॉन ड्रिंकवाटर’ की रचना ‘अब्राहम लिंकन’ (ABRAHAM LINCON) का भोजपुरी में अनुवाद कियेमहात्मा गाँधी के आदर्शों में अब्राहम लिंकन भी थे। महात्मा गाँधी और अब्राहम लिंकन दोनों की विचारधारा एक समान थी। अतः इस दृष्टि को ध्यान में रखते हुए इस नाटक का अनुवाद मोती जी ने किया।
लव एण्ड ब्यूटी (Love and Beauty) मोती बी.ए. ने सन् 1972 ई0 में इंग्लिश में सॉनेट लिखा जो ‘लव एण्ड ब्यूटी’ शीर्षक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ।
प्रेम और सौन्दर्य:
मोती बी.ए. अपने द्वारा रचित English Sonnets ‘Love and Beauty’ का ‘प्रेम और सौन्दर्य’ नाम से अनुवाद किये तथा दोनों को संपादित भी किये मोती बी.ए. द्वारा अपने ही मूल का रूपान्तरण एक अभिनव व रोमांचक प्रयास है।
शेक्सपीयर क सॉनेट का भोजपुरी पद्यानुवाद (1966)
मोती बी.ए. अध्यापन के दौरान अपने साथी अध्यापक रामनरेश पाण्डेय की प्रेरणा से अंग्रेजी कवि शेक्सपीयर द्वारा रचित 154 सॉनेट्स में से 109 का भोजपुरी में पद्यानुवाद किये।
रबीबेन एजरा (RABBI BENEZRA (1969 ई0)
प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक राबर्ट ब्राउनिंग की कविता ‘रबी बेन एजरा’ का अनुवाद मोती बी.ए. ने किया इस कविता का मूल विषय भारतीय दर्शन और जीवन है।
माँझी की पुकार (दी राइम आफ एन्सेण्ट मेरिवर)
मोती बी.ए. ने सन् 1987 ई0 में एस0टी कॉलरिज की रचना ‘दी राइम आफ दी एन्सेण्ट मेरिनर’ का हिन्दी में रूपान्तरण किया और इसे ‘मांझी की पुकार नाम दिया। यह कविता ‘लिरिकल बैलेड्स’ में सन् 1798 ई0 में प्रकाशित हुई थी। इसमें कालरिज के परा प्रकृति विषयक तथा वईसवर्थ के प्रकृति विषयक विचारों का विस्तार है।
इसके अतिरिक्तमोती बी.ए. ने हाईस्कूल तथा जूनियर हाईस्कूल के कोर्स में पढ़ायी जाने वाली अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद भी किया यह अनुवाद उन्होंने अपने अध्यापन के दौरान छात्रों के अनुरोध पर किया था।
उर्दू रचनाएँ:
मोती बी.ए. को उर्दू में रचना करने की प्रेरणा इनके पिता जी द्वारा मिली थी। इनके पिताजी रूह से शायरी और जिस्म से शायर थे। मोती जी की उर्दू रचनाएँ इस प्रकार है
दर्दे गुहर:- ‘दर्दे गुहर मोती बी.ए. की उर्दू शायरी का संग्रह है। कवि ने ‘दर्दे गुहर’ में अपने दर्द को बयां किया है क्योंकि हर व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त है कि अपने जीवन से सम्बन्धित दुःख-सुख को अपनी कलम से बयाँ कर सकता है। व्यक्ति मेहनत के साथ-साथ अपने भाग्य से मंजिल तय करता है, एक शेर के माध्यम से देखिए
“कोई जीता है कोई मरता है अपनी-अपनी किस्मत लेकर
तकदीर कभी दिवाने के दिल को पहचान न पाती।”
इस प्रकार मोती बी.ए. ‘दर्दे गुहर’, ‘एक शायर’ नामक गजलों की रचना भी किये।
मोती के मुक्तक (उर्दू) : मोती बी.ए. ने सहृदय पाठकों के आग्रह पर उर्दू में मुक्तकों की रचना किये जो मोती बी0ए0 ग्रन्थावली के नवें-खण्ड में संकलित है। इसके अतिरिक्त मोती जी ने ‘शबनम-शबनम तिनका-तिनका तथा ‘अथेति नामक हिन्दी काव्य-संग्रहों में भी कुछ उर्दू की कविताएँ गजल, व शायरी लिखे हैं।
मोती बी.ए. के जीवन संघर्ष और साहित्य-कर्म के क्रमवार अध्ययन से स्पष्ट होता है कि जिस लेखक को केवल भोजपुरी के साथ जोड़कर देखा जाता रहा उसने अपनी साहित्य साधना का विपुल-विस्तार किया है। इनके कविता और गीतों में काव्यगत आकर्षण के साथ समर्थ लेखनी का चमत्कार भी है।
डॉ0 अरूणेश नीरन ने इनके व्यक्तित्व तथा साहित्य कर्म को देखते हुए कहा है- “मोती जी ने गांव की आत्मा को पहचाना है, उसके कोने अतरे में छिपे हुए सौन्दर्य को अपनी रचना प्रक्रिया से जोड़कर देखने का प्रयास किया हैउनकी ‘महुआबारी’ कविता हमारे जीवन का सार्थक रूपक है। कालीन पर खड़े होकर समकालीन की बात करने वाले उन साहित्यकारों से जो रचना को सुविधा से जोड़कर देखते हैं। मोती जी का कवि व्यक्तित्व अपनी सहजता के कारण ईमानदार रचनाधर्मिता का साक्षी बन गया है।”
निजी उन्नति के लिए एक-दूसरे को पीछे करने और जड़ खोदने वालों की इस दुनिया में कमी नहीं है इसलिए मोती बी.ए. जैसे भावुक व्यक्ति को साहित्य और फिल्म जगत में निरन्तर संघर्ष करना पड़ा। मोती जी फिल्मों में हिन्दी भाषा की दुर्गति और घाल-मेल पर सवाल उठाने के कारण भी फिल्मी डायरेक्टरों, कम्पोजरों और गायकों में अप्रिय हो रहे थेअत्यन्त विषम परिस्थितियों से जूझते हुए मोती जी ने अपनी मंजिल तय किया तथा अपने जीवन में आपार सफलतायें भी अर्जित किया।
ये आलेख शोध छात्रा यशवी मिश्रा जी के शोध से लिया गया है।
मोती बी०ए० जी के फोटो अमृतांशु जी के बनावल (कार्टून धुन)
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