मछरी

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मछरी
मछरी
ताल के पानी में गोड़ लटका के कुंती ढेर देर से बइठल रहे. गोड़ के अंगुरिन में पानी के लहर रेसम के डोरा लेखा अझुरा-अझुरा जात रहे आ सुपुली में रह-रह के कनकनी उठत रहे जे गुदगुदी बन के हाड़ में फइल जात रहे. कबहूं, झिंगवा मछरी एंड़ी भिरी आके कुलबुलाए लागत रही सन, त सऊंसे देह गनगना जात रहे. कुछ दूर पर सरपत में बेंग टरटरात रह सन आ कवनो-कवनो जब-तब पानी में कूद जात रह सन, जेकरा से ताल में चक्करदार हल्फा उठे लागत रहे आ तरेंगन में परछाहीं लहर पर टूटे लागत रहे.

झींगुर के अजब मनहूस झनकार हवा में भर गइल रहे. नीम के फूल के गंध से मातल बेआर ढिलमिइल फिरत रहे. दिन भर के दबंक से अंउसाइल कुंती के मन भइल कि गते से पानी में उतर जाय आ अपना देह के पानी में बोर दे. चुहानी में सांझे से चूल्हा फूंकत-फूंकत ओकर जीव उजबुजा गइल रहे. मारे पसीना के लूगा देह में सट गइल रहे. कसहूं जीव जांत के, सब केहू के बीजे करा के फजिरे बरतन-बासन मले खातिर पानी ले आवे निकललि रहे. राते में डूभा, छीपा आउर बटुआ पानी में ना फुला दिआई, त बिहने जूठ अइसन खरकट जाई कि छोड़वले ना छूटी. बाकी, कुंती से पानी में उतरल ना गइल. अपना देह के आउर ढील के चुपचाप बइठल रहली.

|बगले में, दहिने ओकरा घर के दुआर लउकत रहे. निकसार में ढिबरी धुआत रहे. ढिबरी के मइलछहूं लाल अंजोर में अपना पोंछ के मच्छड़ उड़ावत भंइस लउकत रहे. धवरा बैल कोना में बइठल पगुरात रहे. कुंती के बुझाइल कि ओकर माई सूत गइल होई आ ओकर नाक फोंय-फोंय बोलत होई, बाबूजी भी आंख मूंद के महटिवले होइहें आ दमा के मारे उनकर सांस अदहन लेखा हनर-हनर करत होई. सीतवा,गीतवा,मोतिया,गएत्रिया, अखिलखवा, कसिया सब एके खटिया पर गुड़मुड़ा के सूतल होइह सन. कवनो के लात कवनो के मूंड़ी पर चढ़ल होई, कवनो के मूड़ी लटकल होई, कवनो के गोड़ खटिया के ओरचन में बाझ गइल होई. अब ओकरा जा के सबके सोझ करे के परी.सब पिल्ला लेखा कांय-कांय किकिअइहन स आ माई कांचे नींदे जाग अगले अनराह करी- अइसन कुलच्छन ई कुतिया बिया, दिन-रात लइकन के डहकावत रहेले, एकर बस चले त ई सब के छछना-छछना के मुआ दिही. बाबूजी अलगे अपना खटिया पर से गुरगुरइहें-काहे रोवावत बाडि़स रे, हमरा के जीए देबिस कि ना. एक त हमार जीव अपने ….खों खों…आ सब ओइसहीं छोड़ दे, त माई लगिहें बिख बोले-एकर रहन देख के त हमार हित्त लहर जाता. काठ के करेजा हइस. पाथर प पाथर. एकरा कवनो गम-फिकिर हऊस. लइका मूअ सन भा जीय सन.

घर इयाद अवते कुंती के जीव उदास हो गइल जइसे खंखार पर गोड़ पर गइल होखे. कुंती के ना चहला पर भी पहिले के याद ओकरा आंख के आगा पवंरे लागल.कुंती नौ बरिस के रहे, तबे ओकर माई मू गइल रहे. ओकरा अपना माई के मउअत सोझा लउके लागल. माई मउराइल बैगन लेखा हो गइल रहे आ ढकना में लाल मिरचाई जरा के डहल ओझा बेंट पटक-पटक के ओझाई करत रहन, फेर माई के मूंड़ी एक देने लटक गइल आ बुढिय़ा मेहरारु सब सियार लेखा फेंकरे लगली स, आजी हमरा के करेजा में जांत के माई के गुन रो-रो के गावे लगल रहे. कुछ दिन बाद बाबूजी आ चाचा मूड़ी छिलवा लेलन, खूब भोज भंडारा भइल,छौ महीना बाद नयकी माई आइल. पहिले दिन ओठ बिजुका के हमरा के देखते पूछलस-तूं ही हमरा सौत के बेटी हऊ. हम मूंड़ी हिला के कहलीं हूं. तहिया से आज ले हमार जेतना सांसत कइलस, ओतना कवनो दुस्मनो केहू के ना कइले होई. के जाने ओह जनम के कवनो कमाई से हम दस बरिस ले जीयते, छछात नरक के भोग भोग लेंली. माई के लइका भइल पांच गो त मूं गइले स. ओकरो पाप माई हमरे कपार पर थोपेले कि इहे हंड़साखिन मुअवलस. बाबूजी के दमा हो गइल. माई रोज कवनो-ना-कवनो रोग कछलहीं रहेले. चाचा माइए से आजीज आके अलगा हो गइलन. लइका देखीं त हम, खैका बनाई त हम, भंइस गोसि के सानी-पानी करीं, गवत लगाईं त हम. माई अपना हाथे खरी ना टारे. दस बरिस से दिन-रात चंग पर चढ़ल रहीला, मिजाज चरखा भइल रहेला, अतनो संवास ना मिले कि आईना में सुबहिते मुंह देखीं. सोचत-सोचत कुंती के बुझाइल कि हजारन चिंटी ओकरा सऊंसे देह में रेंगे लगली सन. ओकरा बुझाइल कि ओकरा देंह में देहे नइखे.

अठमी के चनरमा, सड़ल तरबूजा के फंक लेखा बांस के फुलुंगी में अझुराइल रहे- फीका, उदास, सकुचाइल. मारे धूर के असमान सिलेट लेखा सांवर लागल रहे. पानी में डूबल-डूबल कुंती के गोड़ कठुआ गइल रहे, पेडुरी चढ़े लागल रहे. गते से आपन गोड़ पानी से बाहर निकाल लेलस. एक मन कइल कि घइला भर के घरे चलीं. ढेर रात बीत गइल. बाकि ओकरा से टकसल ना गइल, आलस ओकर गत्तर-गत्तर बान्ह देले रहे. कुंती गते से एगो खपड़ा टकटोर के अपना एंड़ी के मइल छोड़ावे लागल. चिंता से टूटल धागा फेर जोड़ा गइल. एने तीन साल से हमरा अपने चुप-चाप बइठे के मन ना करे. जहां अकेले बइठीं, मन में किसिम-किसिम के विचार उठे लागल. ई सब सोचला से फायदा. बाकि जहां इचिको संवास लागल कि फेर बैताल ओही डाढ़ पर. मनवां खराबे बात देने झुकेला. एही से जानबूझ के हरदम अपना के काम में बझवले रहीला. जेतना हमउमरिया सखी-सहेली रही सन सभ के बिआह कहिए भइल. कै गो त लरकोरिओ हो गइली सन. जहां सब बइठिह स, खाली ससुरा के बात, अपना मरद के बात. खोद-खोद के दोसरा से पूछिह सन आ रस ले ले कहिह सन. हमरा त ई सुनल इचिको नीमन ना लागे, बाकि केहू सुनइबे करे त का कान मूंद लिहीं. झूठ काहे के कहीं, जहिया ई सब देखे लागेला कि कइसन हमार ससुरा होई, कइसन सास के सुभाव होई, सबांग खिसियाह मिलिहें कि मिठबोलिया. ंह, कइसनो मिलस. आपन-आपन भाग ह. नइहर में सौतेली महतारी के दिन-रात के किचकिच से त नीमने होई. माई के बोली हइस, बुझाला कि चइली से मारत होखे. बाबूओ जी के मन फेर देले बिया. परियार साल बाबूजी एक जगे बात चलवलन. लइकवा दोआह रहे. डाकपीन के काम करत रहे. एक तरे से सब कुछ पक्के रहे. सखी-सहेली में केहू हमरा के मनीआडर वाली कह के चिढ़ावे, केहू लिफाफा पोसकार्ट वाली कह के चउल करे. हमहूं मने-मने गाजत रहीं कि दोआह बा त का ह. करकसा महतारी से त जान बांची. बाकि माई बेंड़ देली कि हम अपना जीयत जिनगी कुंती के बिआह दोआह बर से त ना होखे देब, नाहीं त सब केहू मेहना मारी कि सवत के बेटी रहइन, एही से दोआह के गले मढ़ देली, जिनगी भर के अकलंक के अपना माथे लिही. बाबूजी त हर बात में माई के मुंह जोहत रहेलन. लागल बात कट गइल. भितरिया बात त हम जनबे करीला, माई सोचली कि कुन्ती चल जाई, त लइका के खेलाई.

कुन्ती के बुझाइल कि ओकरा कंठ में कुछ अंटक गइल बा दुखाता. पंजरी आ हंसुली के हाड़ में जइसे टभक अमा गइल होख, सऊंसे देह जइसे धवदाह हो गइल होखे, माथा के नस के जइसे केहू तांत लेखा तान देले होखे आ टन-टन बाजत होखे. कुन्ती के सांस तेज चले लागल चाहे गरम सांस के धार ओकर ओठ पर साफ बुझात रहे. गदराइल देह समुन्दर के हल्फा लेखा सांस के ताल प उभरत रहे, डूबत रहे, ओठ रह-रह के ओइसहीं कांप जात रहे जइसे भोरहरी के हवा में बबूर के पतई कांप जाला. बहुत दूर प मनियारा सांप के कतार लेखा छोटी लैन छकछकात चलल जात रहे. मधिम अंजोरिया बेरमिया लेखा बेदम होके गते-गते हांफत रहे. कुन्ती के एगो लमहर ठंडा सांस निकल गइल आ ओकर सऊंसे देह लूक में परल मोजराइल आम के गाछ लेखा सिंहरे लागल. अइसे कबतक चली, डेगे-डेगे खाई खंध बा. ओह दिन अछैवट सिंह के छत पर गेहूं सुखावे गइल रहीं, त उनकर भगिना गते से आके हमार नांव पूछे लागल. सुनीलवा जे पटना पढ़ेला मन त भइल कि खूब सुना दिहीं कि बहरकू तोरा हमरा नांव से मतलब. बाकि पित्त घोंट के रह गइलीं. हमार खिसिआइल मूंह देख के अपने लवट गइल. बिरीछ काका के बेटवा के भी उहे हाल, जहां हम ताल में नहाए अइलीं कि केवाड़ी का दोगा में लुका के अपना दलान पर से घंटन निहारल करी. मउगा कहीं का. मन त करेला कि कान धर के मारी दू थप्पर. सींक अइसन त बाडऩ, एको थप्पड़ के मउआर ना होइहें आ रसिया बने के सवख बा. सिलिक मिरजई पेन्ह के दिन भर चार भांवर हमरा फेरा लगावेला. हम ओकर रंग-ढंग ना चीन्हीं. बाकि बोले-उले ना. जहिया टोकलन, अइसन उघटब कि फेन हमरा सोझा आवे के नांवें ना लीहें. बाकि कब तक. अइसे कहिया ले चली.

कुन्ती के बुझात रहे कि सांप के बिख के लहर ओकरो देंह में उठ रहल बा आ गोंइठा के धुआं में जइसे ओकर दम घोंट रहल बा आ ओकर गत्तर-गत्तर अब पारा लेखा चारो देने छितरा जाई. गांव के दखिन सिवान पर कुकुर भूंकत रहलन. खेत में सियार फेंकरत रह सन. काली माई के मंदिल से पाठ कर के चरितर काका लवटल आवत रहलें. उनका खड़ां के खटर-खटर साफ सुनात रहे. कुन्ती सोचलस कि एह रात के चरितर काका ओकरा के ताल के किनारे बइठल देखिहें, त का सोंचिहें. छप्पर से घइला बुड़का के घरे चलल. निकसार के बगल में तन दहिने हट के नेनुआ के लत्तर चढ़वल रहे. ओहिजा कुछ आहट बुझाइल. कुन्ती चिहा के पुछलस-के ह. बंसी के कांपत, खखन से भरल आवाज आइल- हमार किरिया, तनी एगो बात सुन जा. मारे घबराहट के कुन्ती के हाथ-गोड़ कांपे लागल. एह समय ओकरा अपना करेजा के धड़कन साफ सुनाई देत रहे ओकरा माथा पर पसेना चुहचुहा आइल रहे आ सांस बहुत तेज हो गइल रहे. घइला थवना भिरी रख के मने-मने बंसी में खूब गरियवलस. आंगन में माई ना रहे. लड़का सभ दवरी लेखा खटिया पर पटाइल रह सन. बाबूजी के घर में दिया बरत रहे. पल्ला ओठंधावल रहे आ बुदुर-बुदुर के आवाज आवत रहे. आपन नांव सुन के कुंती गोड़ जांत के गते से जाके केवाड़ी में कान लगा के सुने लागल.

माई बाबूजी के समझावत रहे- एह साल कुंती के बिआह के नांव लेल, त ठीक न होई. तोहार बेरामी एह साल बहुत उखड़ गइल बा. चल बनारस रह के दवाई कराव. हमहूं ओहिजा डाक्टर से जांच कराइब. बाबूजी कहलन-से त बड़ले बा, बाकि लोग-बाग अब अंगुरी उठावता, जवान-जहान बेटी के कबले कुआंर रखबू. माई तड़प के बोलली-वाह रे, लोग बाग कही त कुंइयो में कूद जाइब. एह साल ना सही, पर साला सही, कवनो मछरी ह जे सड़ल जात बिया. बाबूजी मान गइलन- ई त ठीक कहत बाड़ू, कवनो मछरी त ह ना जे सड़ जाई. परे साल सही. कुंती के फफक-फफक के रोए के जीव करत रहे. मन करत रहे कि लाज लिहाज के छोड़ के बाबूजी से अभी जा के कह दे कि बेटी मछरी ह बाबूजी, पानी के बाहर कब तक जिही. सड़ी ना, त बिलार ले भागी.
कसहूं रोआई जांत के कहलस-कुछ ना रे माई, बिलार रहे एगो. ……………..भाग बिल-बिल.

–रामेश्वर सिंह कश्यप

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