हीरा डोम: यथार्थ या मिथक

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हरिनारायण ठाकुर, प्राध्यापक, एस आर ए पी कॉलेज, बरचकिया, पूर्वी चंपारण, बिहार
हरिनारायण ठाकुर, प्राध्यापक, एस आर ए पी कॉलेज, बरचकिया, पूर्वी चंपारण, बिहार
हीरा डोम की एकमात्रा उपलब्ध कविता भोजपुरी में है। ‘अछूत की शिकायत’ में हीरा डोम ने दलित जीवन के दुख, अवसाद और पीड़ा को गहराई से व्यक्त किया है। इस कविता के भाव, इसकी बनावट-बुनावट, सशक्त कथ्य और मजे हुए शिल्प को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि कवि ने एक ही कविता लिखी होगी। इस कविता को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इसका रचनाकार कितना कुशल कवि और सधा हुआ कालाकार है! लोकधुन की लय, प्रवाह, छन्द, यति, गति और तुकों की मिलावट का ऐसा संयोजन कोई कुशल कवि ही कर सकता है।

इसलिए हीरा डोम अपने जमाने के एक सशक्त और कुशल कवि रहे होंगे, जिसकी सुधी तत्कालीन साहित्य ने नहीं ली। खैर, भला हो महावीर प्रसाद द्विवेदी का, जिन्होंने चाहे जैसे छापी हो, हीरा डोम की एक कविता तो छापी। यह कविता सितम्बर 1914 की ‘सरस्वती’ में छपी थी। आज 2014 में उस एकमात्रा कविता के सौ साल पूरे हो गये और इस प्रकार यह वर्ष इस कविता का शताब्दी वर्ष है। किन्तु साथ ही एक शंका भी उठती है कि क्या हीरा डोम नामक कोई प्राणी सचमुच में था या दलित दुर्दशा पर दुख और आक््रफोश व्यक्त करने के लिए महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खुद ही यह कविता लिखकर समाज के सबसे नीचले वर्ग के कवि के रूप में इसे प्रकाशित कर दिया था। ऐसी शंका पटने के एक समारोेह में सुपरिचित आलोचक खगेन्द्र ठाकुर ने उठायी है। और पटने के इस हीरा डोम का इतिहास में कहीं अता-पता न देखकर ऐसी आशंका स्वाभाविक लगती है। पिफर डोम जाति में प्राचीन कवि-साहित्यकारों का अभाव और अशिक्षा आदि को देखकर ऐसा सोचना स्वाभाविक है।

पिफलहाल कविता-अछूत की शिकायत;लोकगीतद्ध
हमनी के राति-दिन दुखवा भोगत बानीऋ हमनी के सहेबे से मिनती सुनाइबि।
हमनी के दुख भगवनओं न देखताजेऋ हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।
पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजांऋ बे-धरम होकर रंगरेज बनि जाइबि।
हाय राम! धरम न छोड़त बनत बाजे, बे-धरम होके कैसे मुंखबा दिखाइबि ।।1।।
खंभवा के फ्रफारि पहलाद के बंचवले जां, ग्राह के मँंह से गजराज के बचवले।
धोती जुरजोधना कै भैया छोरत रहै, परगट होकै तहाँ कपड़ा बढ़बले।
मरले रवनवां कै पलले भभिखना के, कानी अंगुरी पै धर के पथरा उठवले।
कहवां सूतल बाटे सुनत न वारे अब, डोम जानि हमनी के छुए से डेरइले।।2।।
हमनी के राति-दिन मेहनत करीले जां, दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि।
ठकुरे के सुख सेत घर में सुतल बानी, हमनी के जोति जोति खेतिया कमाइबि।
हाकिमे के लसकरि उतरल बानी, जेत उहओ बेगरिया में पकरल जाइबि।
मुँह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानी, ई कुलि खबर सरकार के सुनाइबि।।3।।
बमने के लेखे हम भिखिया न माँगव जां, ठकुरे के लेखे नहिं लउरि चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम मारब जां, अहीरा के लेखे नहिं गइया चोराइबि।
भंटऊ के लेखे न कबित्त हम जोरबा जां, पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइबि।
अपने पसीनवा के पैसा कमाइब जां, घर भर मिली जुलि बांटि-चोंटी खाइबि।।4।।
हड़वा मसुइया के देहिया है हमनी केऋ ओकारै कै देहियां बमनऊ के बानी।
ओकरा के घरे-घरे पुजवा होखत बाजे, सगरै इलकवा भइलैं जजमानी।
हमनी के इनरा के निगिचे न जाइलेजां, पांके में भरि-भरि पिअतानी पानी।
पनहीं से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं, हमनी के एतनी काही के हलकानी?।।5।।

यह एक कविता ही हीरा डोम का इतिहास बन गयी। इसमें, जाहिर है भारतीय समाज खासकर हिन्दू समाज से हीरा ने अछूतों की दुर्दशा की शिकायत की है। बड़े ही कातर स्वर में हीरा डोम ने दलितों की दीन-हीन दशा का हाल सुनाया है। इसमें वर्णित यथार्थ भारतीय समाज में दलित जीवन का नंगा यथार्थ है। ‘‘हम गरीब सदियों से जातिगत भेदभाव और छुआछूत का दंश झेल रहे हैं। हमारे दुखों को कोई सुननेवाला नहीं है। यहाँ तक कि भगवान भी हमारी दुर्दशा पर नहीं पिघलता है। हम दलित कब तक ऐसे कष्ट उठाएँगे? इस हिन्दू धर्म के अत्याचार से ऊबकर अगर पादरी साहब का ईसाई धर्म धारण कर लें, तो विधर्मी होकर फ्रिफर समाज को अपना मुँह कैसे दिखाएँगे?’’ आदि आदि।

यह ध्यान देने की बात है कि हीरा डोम ने जाति-व्यवस्था के विरु( जिस आक्रोश और क्षोभ की शिकायत ईश्वर से की है, उसकी वैसी मार्मिक व्यंजना समाज-व्यवस्था से सीधे शिकायत करने में नहीं हो पाती। कवि ईश्वर से शिकायत करते हुए कहता है कि ‘‘जिस ईश्वर ने प्रह्लाद को बचाया, द्रौपदी की लाज रखी, जन-कल्याण के लिए उँगली पर पर्वत उठाया, रावण को मारा, ऐसा ईश्वर आज कहाँ सोया हुआ है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मनुष्यों की तरह वह भी डोम जानकर हमसे दूर हो गया है, हमें छूने से डर रहा है! हम दलित लोग ईमानदरी से मिहनत करके खाते हैं। ब्राह्मण-ठाकुरों की तरह हम घर में आराम से नहीं सोते। किसी से भीख भी नहीं माँग सकते। साहुओं की तरह हम बेईमानी नहीं करते, कम तौलकर नाजायज धन नहीं कमाते, अहीरों की तरह गाय नहीं चुराते। जी-तोड़ मिहनत करते हैं। इस पर भी ठाकुर महाजन हमसे बेगार लेते हैं। हमारा भी शरीर उसीं हाड-मांस का बना है, जो उनके शरीर में हैऋ फ्रिफर हममें और उनमें इतना अन्तर क्यों है कि ब्राह्मण घर-घर पूजा पाता है और हमें गाली मिलती है। हम इनार ;कुएँद्ध के पास भी नहीं जा सकते। पंकीले नहर-तालाब से ही हमें पानी भरकर पीना पड़ता है। इस पर भी यदि कोई गलती हो गयी, तो जूतों से पीट-पीटकर वे हमारे हाड़ तोड़ देते हैं। यही हमारी दशा-दुर्दशा है।’’

इस काल में एक दूसरे दलित कवि श्री शोभाराम ‘धेनु सेवक’ दिखाई पड़ते हैं, जिनकी कविता 1927 में ‘चाँद’ के ‘अछूत अंक’ में छपी थी। वे आर्य समाजी थे। हीरा डोम की तरह उनकी कविता भी ईश्वर से अछूत की शिकायत ही है। उनमें दीनता और याचना भाव है। वे ईश्वर से दीनों की दशा सुधारकर दलित-उत्थान करने की याचना करते हैं।

यह सही है कि अछूतानन्द की कविताओं में हीरा डोम से ज्यादा आक्रोश और विद्रोह का स्वर है। किन्तु ध्यान देने की बात है कि हीरा डोम ने भले ही अपनी कविता में मिनती और शिकायत का इजहार किया हैऋ किन्तु उसमें विद्रोह और आक्रोश का तेवर कम नहीं है। तथाकथित ँचे लोग और यहाँ तक कि ईश्वर के प्रति सम्बोधन में भी उनके एक भी शब्द सम्मानजनक नहीं है। ‘भगवनमा’, बभना, ठकुरा, भभीखना, सहुआ, अहीरा आदि सम्बोधनों द्वारा हीरा डोम ने प्रकारान्तर से दलितों के अपमान और दुर्दशा का ही प्रतिकार किया है। ऐसे में श्यौराज सिंह बेचैन का यह कहना कि हीरा डोम से पहले हुए अछूतानन्द की कविताओं में जो आक्रोश है, वह हीरा डोम की कविताओं में नहीं है, सही नहीं जान पड़ता।

अछूतानन्द ने अपनी कविताओं में वर्ण-व्यवस्था की तीखी आलोचना की है। उन्होंने अपने गीत और गजलों द्वारा मनु और मनुवादी व्यवस्था की खिल्लियाँ उड़ायी हंै और दलितों के गौरवपूर्ण अतीत का गुणगान किया है। कविताओं की भाषा और उसके भाव इतने सरल हैं कि सहज ही समझ में आ जाते हैं। अपनी कविताओं में दलितों के गौरवपूर्ण इतिहास की याद करते हुए स्वामीजी ने उन्हें सतकर््फ और सावधान किया है। आत्म-हीनता की भावना को त्यागकर दलितों को वे सीना तानकर जीने की प्रेरणा देते हैं। इन्हीं भावों को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने जागरण के अन्य गीत भी गाये। हिन्दू-वंश गौरव दिखाते हुए स्वामी जी ने ‘थियेटर ध्वनि’ कविता लिखी। इस कविता द्वारा स्वामीजी ने तत्कालीन समय और समाज का चित्राण करते हुए दलित जीवन का जो मार्मिक और यथार्थ चित्रा खींचा है, वह स्वयं स्पष्ट है।
स्वामी अछूतानन्द: कविताएँ
;1द्ध पद
मनुजी तुमने वर्ण बना दिए चार।
जा दिन तुमने वर्ण बनाये, न्यारे रंग बनाये क्यों ना?
गोरे ब्राह्मण लाल क्षत्राी बनिया पीले बनाये क्यों ना?
शूद्र बनाते काले वर्ण के, पीछे को पैर लगाये क्यों ना?
कैसे ही पहिचान पोप जी दो अक्षर डलवाये क्यों ना?
पाँच तत्व तो सब मैं दीखें, ज्यादा तत्व लगाये क्यों ना?
वह सर्वज्ञ सर्व में व्यापक, उससे भी जुदे बनाये क्यों ना?
पाँच तत्व गुण बराबर बढ़कर तत्व लगाये क्यों ना?
एक चूक बड़ी भारी पड़ गयी न्यारे मुल्क बसाये क्यों ना?
लोहे के बर्तन पर पानी कंचन को दयौ डार।। मनु जी …..
;2द्ध गजल: प्राचीन हिन्दवाले
हम भी कभी थे अफ्रफजल, प्राचीन हिन्द वाले,
अब हैं गुलाम निर्बल, प्राचीन हिन्द वाले।। ……..
इतिहास हैं बताते, है शु( खँ हमारा,
पर अब हैं शूद्र सडि़यल, प्राचीन हिन्द वाले,
पर अब हैं, शूद्र सडि़यल, प्राचीन हिन्द वाले।……
बाहर से कौम आयी, बसने को जो यहाँ पर,
सब ले लिया था छलबल, प्राचीन हिन्द वाले।……
वे ही हैं द्विजाति ये, पर खल्त-मल्त हैं सब,
छाती के बने पीपल, प्राचीन हिन्द वाले।…….
शूद्रो गुलाम रहते, सदियां गुजर गई हैं,
जुल्मो सितम को सहते, सदियां गुजर गई हैं,
अब तो जरा विचारो, सदियां गुजर गई हैं,
अपनी दशा सुतारो, सदियां गुजर गई हैं। ……
;3द्ध ‘चेतावनी’ ;गजलद्ध
पुरखे हमारे थे बादशाह, तुम्हें याद हो कि न याद हो,
अब हिन्द में हम हैं तबाह, तुम्हें याद हो कि न याद हो,
इतिहास में जो नामवर, तुम्हें याद हो कि न याद हो,
थे सभ्यता में अग्रसर, तुम्हें याद हो कि न याद हो,
आये थे आर्य यहाँ नये, तुम्हें याद हो कि न याद हो,
छल-बल से वे मालिक भये, तुम्हें याद हो कि न याद हो,
यदि खून में कुछ जोश हो, ओ बेहोश कौमो, जो होश हो,
तुम क्यों पड़े खामोश हो, तुम्हें याद हो कि न याद हो।’’
श्री शोभा राम ‘धेनु सेवक’
विभो क्या हम अछूतों की दशा पर ध्यान भी दोगे?
कभी हम दीन दलितों को दया का दान भी दोगे?
धरम के ढोंगियों को क्या कभी यह ज्ञान भी दोगे?
दलित अंगों को हतभागों! कभी उत्थान भी दोगे?
;‘चाँद’ के अछूत अंक 1927 से साभारद्

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