आचार्य महेंद्र शास्त्री का व्यक्तित्व विरल है। उनका कृतित्व भी विरल कोटि का है। यह भी एक विरल बात है की उनका सम्पूर्ण कृतित्व उनके समय व्यक्तित्व का सच्चा पारदर्शी प्रतिरूप है।
भोजपुरी और हिंदी, संस्कृत और संस्कृति, भाषा और साहित्य, प्रचार और संगठन, लेखन और पत्रकारिता, कविता और गद्य, हास्य और व्यंग, सम्मलेन और गोष्ठी, पुस्तकालय और विद्यालय, अध्ययन और अध्यापन, शिक्षा-प्रसार और दलितोद्वार, समाज सेवा और राष्ट्र सेवा इन विविध क्षेत्रों में बिखरी हुई शास्त्री जी की सम्पूर्ण सक्रियता लोक चिंतन के जिस एक सूत्र में ग्रथित है वह भी विरल है।
>> भोजपुरी के आउरी किताब पढ़े खातिर क्लिक करीं
उनकी एकांतिक लोक निष्ठा का ही परिणाम है की उनके व्यक्तित्व को उनके कृतित्व से पृथक नहीं किया जा सकता, की उनके व्यक्तित्व या कृतित्व के किसी भी एक पहलू को दूसरे से विलगाया नहीं जा सकता, की नगरी सुख सुविधा के बिच बैठकर साहित्यिक अखाड़ेबाजी करने की अपेक्षा दूर देहात में साहित्य, संस्कृति, शिक्षा और समाजोत्थान का अलख जगाना उन्हें विशेष प्रिय रहा है, की प्राचीन परम्परा और परिवेश में पले बढ़े होने पर भी उनका व्यक्तित्व पुरातन रूढ़ियों और व्यवस्थाओ के प्रति सदैव उग्र और क्रन्तिकारी रहा है, की हिंदी के अनन्य सेवक होकर भी उन्होंने विगत पचास वर्षो में लोकभाषा भोजपुरी की अकथनीय सेवा की है, की संस्कृत के अगाध विद्वान् होकर भी काव्य लेखनी के लिए उन्होंने लोकभाषा हजपुरी की प्राकृत भाषा संरचना के मर्म को ही जैसे आत्मसात कर लिया है।